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॥ भुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ ॥ विपर्यास दठवासनारूप मिथ्या, टले जे अनादि वे जेम पथ्या ॥ जिनोक्ते होये सहजधी श्रद्दधानं कहीए दर्शनं तेह परमं निधानं ॥ १ ॥ विना जेड़थी ज्ञान अज्ञानरूपं, चरित्रं विचित्रं जवारण्यकूपं ॥ प्रकृति सातने उपशमे क्षय ते होवे, तिहां यापरूपे सदा आप जोवे ॥२॥
॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ सम्यग्दर्शन गुण नमो, तत्त्व प्रतीत स्वरूपो जी ॥ जसु निरधार
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