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जदा विधे रसायणेणं ॥ ६ ॥ ॥ श्री सम्यग्ज्ञानपदकाव्यम् ॥ नाणं पढ़ाणं नयचक्क सि ं, ततवबोदीक मयं पसिदं ॥ ध रेह चित्तावसर फुरंतं, माणि कदिर्जवतमो दरंतं ॥ ७ ॥ ॥ श्री चारित्रपदकाव्यम् ॥ ॥ सुसंवरं मोदनिरोधसारं, पंचप्पयारं विगमाइयारं ॥ मूलो. त्तरागगुणं पवित्तं, पालेह नि चंपि सच्चरितं ॥ ८ ॥
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