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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैन कर्मसिद्धान्त
और मनोविज्ञान की भाषा,
डा०रत्नलालजैन
Dr. Rattan Lal Jain M.AHINDI, SANSKRIT].M.Ed..Ph.D.
Gali Arya Samaj, Near Jain Dharamshala, HANSI [Haryana] - 125033
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विप या नकम
-दानआरम्याग-दानम
तमाना......
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REENAHAN
MPS
T ERIYAR
2. कर्म की वियित्र गतिः
* मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य मः ........ 17-27
३. गरीर-संरचना : नाम कर्म -
आधुनिक गरीर-विज्ञान के परिपक्ष्य में..... 28 -66
4. मनोविज्ञान के तन्दर्भ में :
भाग्य को बदलने का तिक्षान्त-संकमकरण ..
67-72
5. कर्मवाद' का मनोवैज्ञानिक पहलू .
....... 73-82
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जैन-दर्शन और योग-दर्शन में कर्म - सिद्धान्त
D रत्नलाल जैन*
भारत-भूमि दर्शनों की जन्म स्थली है, पुण्य स्थली है। इस पुण्य भूमि पर न्याय सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक, मीमांसक बौद्ध, जैन आदि अनेक दर्शनों का आविर्भाव हुआ। उनकी विचार धाराएं हिमालय की चोटी से भी अधिक ऊंची, तथा समुद्र से भी अधिक विशाल हैं ।
यहां के मनीषी दार्शनिकों ने आत्मा और परमात्मा, लोक और कर्म, पाप और पुण्य आदि महत्त्वपूर्ण तत्त्वों पर बड़ी गम्भीरता से चिन्तन, मनन और विवेचन किया है। कर्म-सिद्धान्त
युवाचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में
"अध्यात्म की व्याख्या कर्म सिद्धान्त के बिना नहीं की जा सकती । इसलिए यह एक महान् सिद्धांत है। इसकी अतल गहराइयों में डुबकी लगाना उस व्यक्ति के लिये अनिवार्य है जो अध्यात्म के अंतस की ऊष्मा का स्पर्श चाहता है । "
जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उस अर्थ में अथवा उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य दर्शनों में भी इन शब्दों का प्रयोग किया गया हैमाया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य, आदि ।
'माया, अविद्या और प्रकृति शब्द' वेदान्त दर्शन में उपलब्ध हैं । 'अपूर्व' शब्द मीमांसा दर्शन में प्रयुक्त हुआ है । 'वासना' शब्द बोद्ध दर्शन में विशेष रूप से प्रसिद्ध है । 'आशय' शब्द विशेषतः योग और सांख्य दर्शन में उपलब्ध है । 'धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार' शब्द न्याय एवं वैशेषिक दर्शनों में प्रचलित हैं। देव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि ऐसे शब्द हैं जिन का साधारणतया सब दर्शनों में प्रयोग किया गया है । "
जैन और दर्शनों में कर्मवाद का विचित्र समन्वय मिलता है । प्रसिद्ध जैयाचार्य देवेन्द्रसूरि' कर्म की परिभाषा करते हुए लिखते हैं
कर्म की परिभाषा (जैन-दर्शन)
"जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है ।" पं० सुखलालजी कहते हैं
* शोध छात्र, गली आर्यसमाज, हाँसी - १२५०३३ (हिसार)
१४.
तुलसी प्रशा
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"मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो कुछ किया जाता है वही कर्म कहलाता है।'
जब प्राणी अपने मन, वचन अथवा तन से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से कर्म-योग्य पुद्गल-परमाणओं का आकर्षण होता है।'
"आत्मा की राग-दृपात्मक क्रिया से आकाश-प्रदेशों में विद्यमान अनन्तानन्त कर्म के सूक्ष्म पुद्गल चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्म-प्रदेशों से संश्लिष्ट हो जाते हैं उन्हें कर्म कहते हैं।
'जैन लक्षणावली' के अनुसार-"अंजनचर्ण से परिपूर्ण डिब्बे के समान सूक्ष्म व स्थूल आदि अनन्त पुद्गलों से परिपूर्ण, लोक में कर्मरूप में परिणत होने योग्य नियत पुदगल जीव-परिणाम के अनुसार बन्ध को प्राप्त होकर ज्ञान-दर्शन के घातक (शानावरण व दर्शनावरण तथा सुख-दुःख, शुभ-अशुभ, आयु, नाम, उच्च व नीच गोत्र और अन्तसय रूप) पुद्गलों को कर्म कहा जाता है।" जातंजल योगदर्शन में कर्माशय . महर्षि पतंजलि लिखते हैं
'क्लेशमूलक कर्माशय-कर्म-संस्कारों का समुदय वर्तमान और भविष्य-दोनों ही जन्मों में भोगा जाने वाला है।"
कर्मों के संस्कारों की जड़... अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश-ये पांच क्लेश हैं । यह क्लेगमूलक कर्माशय जिस प्रकार इस जन्म में दुःख देता है, उसी प्रकार भविष्य में होने वाले जन्मों में भी दु:खदायक है।
जब चित्त में क्लेशों के संस्कार जमे होते हैं, तब उनसे सकाम कर्म उत्पन्न होते हैं । विना रजोगुण के कोई क्रिया नहीं हो सकती । इन रजोगुण का जब सत्त्व गुण के साथ मेल होता है, तब ज्ञान, धर्म, वैराग्य और ऐश्वर्य के कर्मों में प्रवृत्ति होती है। इस रजोगुण का जब तमोगुण से मेल होता है तब उसके उल्टे अज्ञान, अधर्म, अवैराग्य और अनश्वर्य के कर्मों में प्रवृत्ति होती है। यही दोनों प्रकार के कर्म शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य या शुक्ल-कृष्ण कहलाते हैं। आठ कर्म प्रकृतियां (जैन दर्शन)
जिस रूप में कर्म-परमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते है, और आत्मा का शरीर से सम्बन्ध स्थापित करते हैं, तथा जिन कार्यों से बन जीव संसार भ्रमण करते हैं, वे आठ हैं:
१. ज्ञानावरणीय- यह कर्म जीव की अनन्त ज्ञान-शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकता
२. वर्शनावरणीय-यह कर्म जीव की अनन्त दर्शन-शक्ति को प्रकट नहीं होने
देता।
पण १४, बंक ३ (दिसम्बर, ८८)
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३. मोहनीय-यह कर्म आत्मा की सम्यक श्रद्धा को रोकता है। ४. अन्तराय-यह कर्म अनन्त वीर्य को प्रकट नहीं होने देता। ५.वेदनीय-यह कर्म अव्याबाध सुख को रोकता है । ६. आयुष्य-यह कर्म अटल-अवगाहन-- शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता। ७. नाम-यह कर्म अरूप अवस्था को नहीं होने देता।
८. गोत्र-यह कर्म अगुरुलघु भाव को रोकता है । घाति और अधाति कर्म . धाति कर्म-जो कर्म आत्मा के साथ बन्द कर उसके स्वाभाविक गुणों की घात करते हैं । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय घाति कर्म हैं।'
. अघाति कम-जो आत्मा के प्रधान गुणों को हानि नहीं पहुंचाते जैसे-वेदनीय, आयुष्य, नाम गोत्र ये अघाति कर्म हैं । वेदनीय कर्म दो प्रकार का होता है-सातावेदनीय और असातावेदनीय । आयुष्य कम चार प्रकार का है-१. नरकायुष्य २. तिर्यञ्चायुष्य ३. मनुष्यायुष्य ४. देवायुष्य । नाम कर्म दो प्रकार का होता है-१. शुभ और २. अशुभ । गोत्र कर्म के दो भेद हैं- १. उच्च गोत्र और २. नीच गोत्र ।" विपाक-जाति, आयु और भोग (योगदर्शन)
जब तक क्लेश रूप जड़ विद्यमान रहती है, तब तक कर्माशय का विपाक अर्थात् . फल-जाति, आयु और भोग होता है।
जाति-मनुष्य, पशु, देव आदि जाति कहलाती है ।
आयु-बहुत काल तक जीवात्मा का एक शरीर के साथ सम्बन्ध रहना आयु पद का अर्थ है। भोग-इन्द्रियों के विषय-रूप-रसादि भोग शब्दार्थ हैं ।
कुलेश जड़ है । उन जड़ों से कर्माशय का वृक्ष बढ़ता है । उस वृक्ष में जाति, आयु और भोग-तीन प्रकार के फल लगते हैं। कर्माशय वृक्ष उसी समय तक फलता है, जब तक अविद्यादि क्लेश रूपी उसकी जड़ विद्यमान रहती है। - योगवर्शन में जाति, आयु और भोग भी जैन कर्मवाद के वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र के समान सुख और दुःख फल देने वाले हैं।
बन्धका स्वरूप
जीव और कर्म के संश्लेष को बन्ध कहते हैं। जीव अपनी वृत्तियों से कर्म-योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । इन ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गल और जीव-प्रदेशों का संयोग ही बन्ध कहलाता है।"
श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती लिखते हैं....... जिस तम्य परिणाम से कर्म बन्धता है, वह भाव-बन्ध है, तथा कर्म और बात्मा के प्रदेशों का प्रवेश-एक दूसरे में मिल जाना-एक क्षेत्रावगाही हो जाना द्रव्य
तुलसी प्रहा
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बन्ध है।
कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि लिखते हैं-'जीव कषाय के कारण कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यह बन्ध है, वह जीव की अस्वतन्त्रता का कारण
आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जीव और कर्म के इस संश्लेष को दूध और जल के उदाहरण से समझा जा सकता है।" योग और कषाय-बन्ध के हेतु
दूसरे रूप में-"योग प्रकृति-बन्ध और प्रदेश-बन्ध का हेतु है तथा कषाय स्थितिबन्ध और अनुभाग-बन्ध का हेतु है । इस प्रकार योग और कषाय-ये दो बन्ध के हेतु बनते हैं।
तीसरी दृष्टि से-"मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग-ये बन्ध के हेतु हैं।" इन चार बन्ध-हेतुओं से सत्तावन भेद हो जाते हैं।
धर्मशास्त्र-आगम में प्रमाद को भी बन्ध-हेतु कहा है। श्री उमास्वाति ने" पांच बन्ध-हेतु माने हैं,-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग ।
इस प्रकार जैन-दर्शन में बन्ध-हेतुओं की संख्या पांच आस्रवों के रूप में मान्य है।
समन्वय-कर्म-बन्ध के हेतुओं की दृष्टियों का समन्वय इस प्रकार किया गया है"प्रमाद एक प्रकार का असंयम ही है । इसलिये वह अविरति या कषाय में आ जाता है । सूक्ष्मता से देखने से मिथ्यात्व और अविरति--ये दोनों कषाय के स्वरूप से भिन्न नहीं। इसलिये कषाय और योग-ये दो ही बन्ध के हेतु माने गए हैं।" कर्म-बन्ध के हेतु
पांच मानव-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग बन्ध-हेतु हैं। जैन धर्म-शास्त्रों-आगमों में कर्मबन्ध के दो हेतु कहे गए हैं-१. राग और २. द्वेष । राग और द्वेष कर्म के बीज हैं।" जो भी पाप कर्म हैं, वे राग और द्वेष से अजित होते हैं।
टीकाकार ने राग से माया और लोभ को ग्रहण किया है, और देष से क्रोध और मान को ग्रहण किया है।"
एक बार गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा- भगवन् ! जीव कर्म प्रकृतियों का बन्ध कैसे करते हैं ?" भगवान् ने उत्तर दिया--"गौतम! जीव दो स्थानों से कर्मों का बन्ध करते हैं--एक राग से और दूसरे द्वेष से । राग दो प्रकार का है-माया और लोभ । देष भी दो प्रकार का है--क्रोध और मान ।"
क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों का संग्राहक शब्द कषाय है। इस प्रकार एक कषाय ही बन्ध का हेतु होता है। बसक ३ (दिसम्बर; ८८)
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बन्ध के मूल कारण योग दर्शन में ... अस्मिता, राग, द्वेष
सब बन्धनों और दुःखों के मूल कारण पांच क्लेश हैं" - अविद्या, और अभिनिवेश । ये पांचों बाधा रूप पीड़ा को पैदा करते हैं । ये चित्त में विद्यमान रहते हुए संस्कार रूप गुणों के परिणाम को दृढ़ करते हैं। इसलिए इनको क्लेश के नामों से पुकारा जाता है ।
1
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सांख्य दर्शन की भाषा में इन पांचों - अविद्या को तमस्, अस्मिता को मोह, राग को महामोह, द्वेष को तामत्र और अभिनिवेश को अन्धतामिस्र के नामों से अभिहित किया गया है।"
आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है- 'मूढ़ अधिक कोई भयानक वस्तु नहीं । मूढ़ आत्मा वाली कोई वस्तु इस संसार में नहीं है । "
भयंकर वस्तु में विश्वास करना और अभयदान करने वाली वस्तुओं से दूर भागना - यह उस समय होता है जब आत्मा मूढ़ हो, दृष्टिकोण मिथ्या हो, अविद्या, अज्ञान और मोह से व्यक्ति ग्रसित हो ।
मिथ्यात्व और अविद्या
आत्मा जिसमें विश्वास करता है, उससे जिससे डरता है, उससे बढ़कर शरण देने
मिथ्यात्व का अर्थ है मिथ्यादर्शन, जो कि सम्यग्दर्शन से उलटा होता है । जो बात जैसी हो, उसे वैसी न मानना या विपरीत मानना मिथ्यात्व है ।
मिथ्यात्व - विपरीत तत्त्व श्रद्धा के दस रूप बनते हैं" --
१. अधर्म में धर्म संज्ञा । २. धर्म में अधर्म संज्ञा । ३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा ।
६. जीव में अजीव संज्ञा । ७. असाधु में साधु संज्ञा । ८. साघु में असाधु संज्ञा । ६. अमुक्त में मुक्त संज्ञा ।
४. मार्ग में अमार्ग संज्ञा ।
५. अजीव में जीव संज्ञा ।
१०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा ।
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जिसमें जो धर्म नहीं है, उसमें उसका भान होना अविद्या का सामान्य लक्षण है। अविद्या के पाव
योग-दर्शन के अनुसार पशु के तुल्य अविद्या के भी चार पाद हैं"
१. अनित्य में नित्य का ज्ञान ।
२. अपवित्र में पवित्रता का ज्ञान ।
३. दुःख में सुख का ज्ञान ।
४. अनात्म (जड़) में आत्म-ज्ञान ।
'
अविरति - विरति का अभाव, व्रत या त्याग का अभाव, दोषों से विरत न होना,
मौद्गलिक सुखों के लिये व्यक्त या अव्यक्त पिपासा ।
मनोविज्ञान ने मन के तीन विभाग किये हैं
१. अस् मन ( Id )
२. अहं मन ( Ego )
" तुलसी प्रसा
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।
३. अधिशास्ता मन (Super Ego) .
अदस मन (Id)-इसमें आकांक्षाएं पैदा होती हैं, जितनी प्रवृत्यात्मक आकांक्षाएं और इच्छाएं हैं, वे सभी इसी मन में पैदा होती हैं।
अहं मन (Ego)-समाज-व्यवस्था से जो नियन्त्रण प्राप्त होता है, उससे आकांक्षाएं यहां नियन्त्रित हो जाती हैं और वे कुछ परिमाजित हो जाती हैं। उन पर . अंकुश जैसा लग जाता है । अहं मन इच्छाओं को क्रियान्वित नहीं करता।
- ३. अधिशास्ता मन (Super Ego)-यह अहं पर भी अंकुश रखता है, और उसे नियन्त्रित करता है। अविरति अर्थात् छिपी हुई चाह । सुख-सुविधा को पाने की और कप्ट को मिटाने की चाह । यह जो विभिन्न प्रकार की आन्तरिक चाह है, आकांक्षा है- इसे कर्मशास्त्र की भाषा में अविरति आस्रव कहा है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में अदस् मन (Id) कहा गया है। कषाय--राग और द्वेष
उमास्वाति कहते हैं-'कपाय भाव के कारण जीव कर्म के योग्य पद्गलों का ग्रहण करता है, वह बन्ध कहलाता है।"
आत्मा में राग या पभावों का उद्दीप्त होना ही कषाय है। राग और द्वेषदोनों कर्म के बीज हैं।" जैसे दीपक अपनी ऊष्मा से बत्ती के द्वारा तेल को आकर्षित कर उसे अपने शरीर (लो) के रूप में बदल लेता है, वैसे ही यह आत्मा रूपी दीपक अपनी राग भाव रूपी ऊष्मा के कारण क्रियाओं रूपी बत्ती के द्वारा कर्म-परमाणओं रूपी तेल को आकर्षित कर उसे अपने कर्म शरीर रूपी लो में बदल देता है।
राग-पोश-सुख भोगने की इच्छा राग है"- जीव को जब कभी जिस किसी अनुकल पदार्थ में सुख की प्रतीति हुई है या होती है, उसमें और उसके निमित्तों में उसकी आसक्ति-प्रीति हो जाती है, उसी को राग कहते हैं।
वाचकवर्य श्री उमास्वाति कहते हैं- इच्छा, मूळ, काम, स्नेह, गद्धता, ममता, अभिनन्दन, प्रसन्नता और अभिलाषा आदि अनेक राग भाव के पर्यायवाची शब्द हैं।"
देष-क्लेश-पातंजल योग-दर्शन में लिखा है कि दुःख के अनुभव के पीछे जो घृणा की वासना चित्त में रहती है उसे देष कहते है ।" जिन बस्तुओं अथवा साधनों से दःख प्रतीत हो, उनसे जो घृणा या क्रोध हो, उनके जो संस्कार चित्त में पड़ेंउसे देषक्लेश कहते हैं।
प्रशमरति में लिखा है- ईर्ष्या, रोष, द्वेष, दोष, परिवाद, मत्सर, असूया, वैर, प्रचण्डन आदि शब्द द्वेष भाव के पर्यायवाची शब्द हैं।"
प्रमाद, अस्मिता और अभिनिवेश का समावेश भी राग-द्वेष में हो जाता है। संदर्भ : १. कर्मवाद:-प्रस्तुति-युवाचार्य महाप्रज्ञ
२. पं० सुखलालजी कृत कर्मविपाक, प्रस्तावना, पृ० २३. " बा१४.संक ३ (दिसम्बर, ८)
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३. कम विपाक (कर्मग्रन्य प्रथम),१ : कीरइ जिएण हेनहिं, बेण तो भण्णए कम्म। ४. दर्शन और चिन्तन, पृष्ठ २२५, पं० सुखलालजी ५. (क) विसय कसायहिं रंगियहं जे अणुया लग्गति ।
जीव-पएसहं मोहियहं ते जिण कम्म भण्णंति ।। परमात्म-प्रकाश, १/६२ (ख) जैन सिद्धान्त दीमका,-४.१, आचार्य तुलसी
__ आत्मनः सदसत्प्रवृत्त्याऽकृष्टास्तत्प्रायोग्यपुद्गलाः कर्म । ६. जैन लक्षणावली (द्वितीय भाग) पृष्ठ ३१६ (कर्म प्रकृति) चूणि-१, पृष्ठ २:
अंजन चुण्णपुण्ण समुग्गगोव्व सुहमथूलादि-अणेगविह परिणएहि अणंतेहिं पोग्गलेहि णिरंतर णिचितेलोगे परिच्छिणा एव पोग्गला कम्मपरिणमणजोगा बंधमाण जीव परिणाम पच्चएण बद्धा जाणादिलविघातिणो सुहदुक्खसुहासुहाउनाम
उच्चाणी योगायंतराय पोग्गला कम्म ति बुच्चति । ७. क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टा दृष्टजन्मवेदनीयः । पातंजल योग दर्शन, २. १२ ८. (क) उत्तराध्ययन, ३३.१-३; (ख) ठाणाङ्ग, ८.३.५६६; (ग) प्रज्ञापना,
२३.१। है. गोम्मटसार (कर्म काण्ड), १०. (क) गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, ६; (ख) पंचाध्यायी, २, २६६ ११. नाम कम्मं तु दुविहं, सुहमसुहं च आहियं ।
गोयं कम्मं तु दुविह, उच्च नीयं च आहियं । उत्तराध्ययन, ३३/१३-१४ १२. सति मूले तद्विपाको जात्यायोंगा:-पातंजल योगदर्शन, २.१३ १३. उत्त० २८. १४, नेमिचन्द्रीय टीका:-बन्धश्च -जीवकर्मणोः संश्लेषः । १४. ठाणाङ्क, १.४.६ की टीका : बन्धन बन्धः सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान्
पुद्गलान् आदत्ते यत् स बन्ध इति भावः । १५. बज्झदि कम्म जेण दुचेदण भावेण भावबन्धो सो।
कम्मादपदे साणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो ॥ द्रव्य संग्रह, २. ३२ १६. सकषायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् । .. यदादत्ते सः बन्धः स्याज्जीवास्वातंत्र्य कारणम् ।। नवतत्त्व साहित्यसंग्रह : गा०१३३ १७. तत्त्वार्थ; १.४, सर्वार्थसिद्धि। १८. ठाणाङ्ग २:४:६६ : जोगा पयडिपदेसं ठिति अणु भागं कषायो कुणइ । १६. ठाणाङ्ग, २. ४. ६६, : मिथ्यात्वाविरति कषाय योगा बन्धहेतवः । २०. मिच्छत्तमबिरई तह, कषायजोगा य बंधहेउ ति।
एवं चउरो मुले, भेएण उ सत्तवण्णत्ति । नवतत्त्व प्रकरण गा० १२ २१. तत्त्वार्थ, ८.१ २२. तत्त्वार्यसूत्र (गुजराती त० आ०), पृ. ३२२-३२३. . २३. (क) ठाणात २. ४. ६६ (ख) समवायाङ्ग, समवाय २. २४. उत्तराध्ययन, ३२.७ : रागो य दोसो वि य कम्मबीयं । २५. उत्तराध्ययन, ३०.१ : जहा उ पावगं कम्मं, रागदोससमज्जियं।
.
..
तुलसी प्रजा
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२६. ठाणाङ्ग २.४. ६६, टीका
रागो मायालोभकषाय लक्षण : द्वेषस्तु क्रोधमानकषायलक्षणः यदाह
मायालोभ कषायश्चेत्येतद् रागसंशिद्वन्द्वम् ।
क्रोधो मानएच पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्ट: ।।
२७. प्रज्ञापना २३. १.३.
२८. अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ॥ पातञ्जल योगदर्शन, २ : ३.
२६. तभी मोहो महामोहस्तामिस्रो ह्यन्धसंज्ञकः ।
अविद्या पञ्चपर्वा सांख्ययोगेषु कीर्तिता ॥
३०. मूढात्मा यत्र विश्वस्तः, ततो नान्यद् भयास्पदम् ।
यतो भीतस्ततो नान्यद्, अभयस्थानगात्मनः ॥ -
-- आचार्य पूज्यपाद
३१. दसविमिच्छते अधम्मे धम्म सन्ना, धम्मे अधम्मे सन्ना, अमग्गे मग्ग सन्ना, मग्गे अग्ग सन्ना, अजीवे जीव सन्ना, जीवेसु अजीव सन्ना, असाहसु साह सन्ना, साहसु साहु राना, अमुत्ते मुत्त सहा, मुत्तेसु अगुत्त सन्ना -ठाणांग, ठाणा १०
३२. अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्याशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ।
1
-- पातंजल योगदर्शन, २/५.
३३. सकपायत्वाज्जीवः कर्मणी योग्यान् पुदगलानादत्ते ।
सबन्धः । तत्त्वार्थ सूत्र, ८ / २-३.
३४. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं । - उत्तराध्ययन ३२ : ७
३५. तत्त्वार्थ टोका, भाग - १
३६. सुखानुशयी राग : पातञ्जल योगदर्शन, २:७
३७. इच्छा, मूर्छा, कामः, स्नेहों, गांध्यं, ममत्वमभिनन्दः ।
अभिलाप, इत्यनेकानि रागपय यिवचनानि ॥ - प्रशमरति, १८, उमास्वाति
३८. दुःखानुशयी द्वेषः । २:८ पातंजल योगदर्शन |
३.६ ईर्ष्या, रोपो, दोप:, द्वेष, परिवादमत्सरासूयाः ।
वंर प्रचण्डनाद्या नवे द्वेपस्य पर्यायाः ॥ - प्रशमरति, १६, उमास्वाति
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जैन-दर्शन और योग-दर्शन में कर्म-सिद्धान्त
0 रत्नलाल जैन
(गतांक से आगे) चार कबायों के बावन नाम
कपाय चार हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ । समवाओ में चार कषाय रूप मोह के ५२ नाम" कहे गए हैं, जिनमें क्रोध के दस, मान के ग्यारह, माया के सत्रह और लोभ के चौदह नाम बताए गए हैं
क्रोध-१. क्रोध, २. कोप, ३. रोष, ४. दोष, ५. अक्षमा, ६. संज्वलन, ७. कलह, ८. चांडिक्य (चंडयन), ६. भंडण और १०. विवाद ।
मान-१. मान, २. मद, ३. दप, ४. स्तम्भ, ५ आत्मोत्कर्ष, ६. गर्व, ७. परपरिवाद, ८. आक्रोश, ६. अपकर्ष (परिभव), १०. उन्नत और ११. उन्नाम ।
माया-१. माया, २. उपधि, ३. निकृति, ४. वलय, ५. ग्रहण, ६. न्यवम, ७. कल्क ८. कुरूक, ६. दम्भ, १०. कूट, ११. वक्रता (जैहम), १२. किल्विष, १३. अनादरता, १४. गूहनता, १५. वंचनता, १६. परिकुंचनता, १७. सातियोग ।।
लोभ. १. लोभ, २. इच्छा, ३. मूच्छी, ४. कांक्षा, ५. गति, ६. तृष्णा, ७. भिध्या, ८. अभिध्या, ६. कामाशा, १०. भोगाशा, ११. जीविताशा, १२. मरणाशा, १३. नन्दी और १४. राग। आस्रव भोर कर्माशय
आस्रव---काय, वचन और मन की क्रिया योग है।" वही कर्म का सम्बन्ध कराने 'वाला होने के कारण आस्रव कहलाता है।" कपाग-राहित और कषाय-रहित आत्मा का : योग श्रमशः साम्परायिक और ईर्यापथ कर्म का बन्ध-हेतु-आस्रव होता है। जिन
जीवों में क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों का उदय हो, वे कषायसहित और जिनमें इनका उदय न हो, वे कगायरहित हैं। पहले से दसवें गुणस्थान तक के जीव न्यूनाधिक मात्रा में पायसहित हैं और ग्यारहवें आदि आगे के गुणस्थानों वाले जीव कषायरहित
कर्माशय-वलेशमूल । पांच क्लेश जिसकी जड़ है ऐसी कर्म की वासना वर्तमान और भविष्य में होने वाले दोनों जन्मों में भोगा जाने योग्य है ।" ये क्लिष्ट (तम प्रधान), अक्लिष्ट
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(सस्व प्रधान) दो रूप में हैं। जिन महान् योगियों ने क्लेशों को निर्बीज समाधि द्वारा उखाड़ दिया है, उनके कर्म निष्काम अर्थात् बासनारहित केवल कर्त्तव्यमात्र रहते हैं, इसलिए उनको इनका फल भोग्य नहीं है। जब क्लेशों के संस्कार चित्त में जमे होते हैं, तब उनने सकाम कर्म उत्पन्न होते हैं । शुभ-अशुभ आस्रव-पुण्य-पाप कर्म
शुभ योग पुण्य का बन्ध-हेतु है" और अशुभ योग पाप का बन्ध-हेतु है" । पुण्य का अर्थ है, जो आत्मा को पवित्र" करे। अशुभ -पाप कर्मों से मलिन हुई आत्मा क्रमशः शुभ कर्मों का-पुण्य कर्मों का अर्जन करती हुई पवित्र होती है, स्वच्छ होती है। ____ आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं-- "जिसके मोह-राग-द्वेष होते हैं उसके अशुभ परिणाम होते है, जिसका चित्त प्रसाद-निर्मल चित्त होता है, उसके शुभ परिणाम होते हैं । जीव के शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभ परिणाम पाप हैं। शुभ-अशुभ परिणामों से जीव के जो कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है, वह क्रमशः द्रव्य-पुण्य और द्रव्य-पाप
योगदर्शन के अनुसार "वे जन्म, आयु और भोग- सुख-दुःख फल के देने वाले होते हैं, क्योंकि उनके पुण्य कर्म और पाप कर्म -- दोनों ही कारण हैं ।"१२ आठ कर्मों में पुण्य-पाप प्रकृतियां
प्रत्येक आत्मा में सत्तारूप से आठ गुण विद्यमान हैं१. अनन्त ज्ञान
५. आत्मिक सुख २. अनन्त दर्शन
६. अटल अवगाहन ३. क्षायक सम्यक्त्व
७. अमूर्तिकत्व ४. अनन्त वीर्य
८. अगुरुलघु भाव कर्मावरण के कारण ये गुण प्रकट नहीं हो पाते । जीव द्वारा बांधे जाने वाले आठ कर्म हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-ये ही क्रमशः आत्मा के आठ गुणों को प्रकट होने नहीं देते।
कोकी मूल प्रकृतियों, उत्तर प्रकृतियों में पुण्य-पाप का विवेचन निम्न प्रकार मिलता हैमूल प्रकृतियां उत्तर प्रकृतियां पाप" प्रकृतियां पुण्य प्रकृतियां" १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३.वेदनीय
१ (असात) १ (सात) ४. मोहनीय
५. आयुष्य
६. नाम ७.गोत्र ८. अन्तराय
(नरक) (देव, मनुष्य, तिर्यंच) १ (नीच)
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पुष्य शुभ कर्म है, अतः अकाम्य-हय है ही योगीन्दु कहते हैं-"पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पाप होता है, अतः हमें वह नहीं चाहिए।"५
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-"अशुभ कर्म कुशील है-बुरा है और शुभ कर्म सुशील है---अच्छा है, ऐसा जगत् मानता है। परन्तु जो प्राणी को संसार में प्रवेश कराता है, वह शुभ कर्म सुशील-अच्छा कैसे हो सकता है। जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बांधती है और सुवर्ण की भी बांधती हैं, उसी तरह शुभ और अशुभ कृत कर्म जीव को बांधते हैं। अतः जीव ! तू दोनों कुशीलों से प्रीति अथवा संसर्ग मत कर । कुशील के साथ संसर्ग और गग से जीव की स्वाधीनता का विनाश होता है। जो जीव परमार्थ से दूर हैं, वे अज्ञान से पुण्य को अच्छा मानकर उसकी कामना करते हैं। पर पुण्य संसार-गमन का हेतु है अत: तू पुण्य कर्म में प्रीति मत कर।""
पुण्य काम्य नहीं है । पुण्य की कामना पर-समय है ।
योगीन्दु कहते हैं-"वे पुण्य किस काम के जो राज्य देकर जीव को दुःख-परम्परा की ओर ढकेल दें । आत्मदर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति मर जाए--यह अच्छा है, किन्तु आत्म-दर्शन से विमुख होकर पुण्य चाहे - - यह अच्छा नहीं है ।"२७ सुखप्रद कर्माशय भी दुःख है
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-"परिणाम दु:ख, ताप दुःख और संस्कार दुःख-ये तीन प्रकार के दु:ख सबमें विद्यमान रहने के कारण और तीनों गुणों की वृत्तियों में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी पुरुष के लिए सब-के-सब कर्मफल दुःख रूप ही हैं।" परिणाम दुःख, जो कर्म विपाक भोगकाल में स्थल दृष्टि से सुखद प्रतीत होता है, उसका परिणाम दुःख ही है। जैसे स्त्री-प्रसंग के समय मनुष्य को सुख भासता है, परंतु उसका परिणाम-बल, वीर्य, तेज, स्मृति आदि का ह्रास प्रत्यक्ष देखने में आता है। इसी प्रकार दूसरे भोगों में भी समझ लेना चाहिए।
- गीता में भी कहा है --"जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह यद्यपि भोगकाल में अमृत के सदृश भासता है, परन्तु परिणाम में विष के तुल्य है, इसलिए वह मुख राजस कहा गया है ।"".
विवेकी पुरुष परिणाम-दुःख, ताप-दुःख, संस्कार-दुःख तथा गुणवृत्तियों के विरोध से होने वाले दुःख को विवेक के द्वारा समझता है, उसकी दृष्टि में सभी कर्म-विपाक दुःख .. रूप हैं । साधारण जन-समुदाय जिन मांगों को सुखरूप समझता है, विवेकी के लिए वे भी दुःख ही हैं। । गीता में लिखा है-"इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले जितने
भी भोग हैं, वे सब के सब दुःख के ही कारण हैं।""शानी कहते हैं-कामभोग शल्यरूप हैं, विषरूप है, जहर के सदृश है ।" . .
१
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दुबसो शा
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संवर - आस्रव का निरोध, योग-चित्तवृत्ति का निरोध । संवर
वाचक उमास्वाति" लिखते है-आनव-द्वार का निरोध करना संवर है"। आचार्य पूज्यपाद" लिखते हैं-"जो शुभ-अशुभ कर्मों के आगमन के लिये द्वार रूप है, वह आस्रव है, जिसका लक्षण आस्रव का निरोध करना है, वह संवर है।"आचार्य हेमचन्द्र" सूरि का कथन है-"जो सर्व मानवों के निरोध का हेतु है, उसे संवर कहते हैं।" जिस तरह नौका में छिद्रों से जल प्रवेश पाता है और छिद्रों को रूंघ देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही योगादि-आरुवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत्त जीव के प्रदेशों में कर्म-द्रव्यों का प्रवेश नही होता" । द्रव्य-संवर और भाव-संघर
ये दो भेद श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ग्रन्धों में मिलते हैं। इन की निम्न परिभाषाएं मिलती हैं। योग-चित्तवृत्तियों का निरोध ___ महपि पतंजलि लिखते हैं "योगश्चित्तवृत्तिगिरोध :'"' अर्थात् चित्त की वृत्तियों का रोकना योग है। चित्त की वृत्तियां जो बाहर को जाती हैं, उन बहिर्मुख वृत्तियों को सांसारिक विषयों से हटा कर उससे उल्टा अर्थात् अन्तर्मुख करके अपने कारण-चित्त में लीन कर देना योग है।
चित्त मानो अगाध परिपूर्ण सागर का जल है । जिस प्रकार बह पृथिवी के सम्बन्ध से खाड़ी, झील आदि के आन्तरिक तदाकार परिणाम को प्राप्त होता है, उसी प्रकार चित्त आन्तर-राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, भय-आदि रूप आकार से परिणत होता रहता है तथा जिस प्रकार वायु आदि के वेग से जलरूपी तरंग उठती है, इसी प्रकार चित्त इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों से आकर्षित होकर उन जैसे आकारों में परिणत होता रहता हैं। ये सब चित्त की वृत्तियां कहलाती है, जो अनन्त हैं और प्रतिक्षण उदय होती रहती है।
वृत्तियां सामान्यत: दो प्रकार की हैं-क्लिप्ट अर्थात् रागद्वेषादि क्लेशों की हेतु, और अक्लिष्ट अर्थात् राग-पादि क्लेशों को नाश करने वाली ।" उनके पांच प्रकार इस प्रकार हैं-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति' ।" पांच महावत एवं पांच सार्वभौम यम
जैन दर्शन में आत्म-साधना-आनव-निरोध के लिये पांच महाव्रतों की पालना के लिये पांच सार्वभौम यमों की प्रतिष्ठा की गई है।
हिंसा, सत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह" से (मन, वचन और काय द्वारा) निवृत्त होना व्रत है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांच यम हैं। मन से, वचन से और शरीर से (कर्म से) सभी प्राणियों की किसी प्रकार से (करने, कराने अनुमोदन करने) हिंसा- कष्ट न पहुंचाना अहिंसा है।" वण १४, अंक ४ (मार्च, ८८)
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भगवान महावीर ने कहा है-हे मानव ! तू दूसरे जीवों की आत्मा को भी अपनी ही आत्सा के समान समझकर हिंसा कार्य में प्रवृत्त न हो... । हे पुरुष ! जिसे तू मारने की इच्छा करता है, विचार कर, वह तेरे जैसा ही सुख-दुःख का अनुभव करने वाला प्राणी है । जो हिंसा करता है, उसका फल बाद में वैसा ही भोगना पड़ता है। अतः मनुष्य किसी भी प्राणी की हिंसा करने की कामना न करे ।
इसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- महावतों, यमों की तीन करण व तीन योग- मन, वचन और काय से पालना करनी चाहिये । निर्जरा के बारह भेद- अष्टांग योग
भगवान् महावीर ने कहा है- जिस प्रकार जल आने के मार्ग को रोक देने पर बड़ा तालाब पानी के उलीचे जाने और सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है, उसी प्रकार आम्रर- पाप कर्म के प्रवेश-मार्गों को रोक देने वाले संयमी पुरुष के करोड़ों जन्मों के संचित वर्म तप के द्वारा जीर्ण होकर झड़ जाते हैं।" निर्जरा-तप के बारह" (छह बहिरंग और छह अभ्यन्तर) अंग है--.
१. अनशन--उपवास-आदि तप २. ऊनोदरी-कम खाना, मिताहार ३. भिक्षाचरी-जीवन-निर्वाह के साधनों का संयम ४. रस-परित्याग-सरस आहार का परित्याग ५. कायक्लेश-आसनादि क्रियाएं ६. प्रतिसलीनता---इन्द्रियों को विपयों से हटाकर अन्तर्मुखी करना ७. प्रायश्चित्त-पूर्व भव कृत दांप विशुद्ध करना। ८. विनय-नम्रता ६. वयावृत्य-- साधकों को सहयोग देना १०. स्वाध्याय--पठन-पाठन ११. ध्यान-चित्तवृत्तियों को स्थिर करना ।
१२. व्युत्सर्ग-शरीर की प्रवृत्ति को रोकना । अष्टांग योग
महषि पतञ्जलि ने लिखा है-"योग के अंगों का अनुष्ठान करने से-आचरण करने में अदि का नाश होने पर ज्ञान का प्रकाश विवेकख्याति तक प्राप्त हो जाता के योग-दर्शन में योग के आठ अंग माने गए हैं :
पम- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांच यम हैं।" नियम-शौच, सन्तोप, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान-ये पांच नियम है।" भासन-निश्चल-हलन-चलन से रहित सुखपूर्वक बैटने का नाम आसन है। प्राणायाम-श्वास और प्रश्वास की गति का रुक जाना प्राणायाम है। प्रत्याहार---अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के स्वरूप
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पानह
में तदाकार हो जाना प्रत्याहार है। धारणा-किसी एक देश में चित्त को ठहराना धारणा है । ध्यान-चित्त में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। समाधि-जब ध्यान में केवल ध्येयमात्र की प्रतीति होती है, और चित्त का
निज स्वरूप शून्य-सा हो जाता है, तब वही ध्यान समाधि हो जाता है। . केवलज्ञान
वाचक उमास्वाति लिखते हैं---"मोह कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण,दर्शनावरण और अन्तराय कमों के भय से केवलज्ञान प्रकट होता है।"प्रतिबन्धक कर्म चार हैं, इन में से प्रथम मोहनीय कर्म क्षीण होताहै, तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त बाद ही ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अन्तराय... इन तीन का का क्षय होता है। इस प्रकार मोक्ष प्राप्त होने से पहले केवल उपयोग-सामान्य और विशेष दोनों प्रकार का सम्पूर्ण बोध प्राप्त होता है। यही स्थिति सर्वज्ञत्व और सर्वदशित्व की है।
विवेकजन्य तारक ज्ञान
महर्षि पतंजलि लिखते हैं---"जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सब विषयों को, सब प्रकार से जानने वाला है, और विना क्रम के जानने वाला है, वह विवेकजनित ज्ञान है।" बुद्धि और पुरुष- इन दोनों की जव समभाव से शुद्धि हो जाती है, तब कैवल्य होता है। इस प्रकार बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होता है । सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होना ही मोक्ष है। संदर्भ:
१३. समवाओ, ५२: मोइणिज्जस्सणं कम्मरस बावन्नं नामज्जा पन्नता, तं जहा
पोहे १, फोवे २, रोसे ३, दोसे ४, अखमा ५, संजणे ६, कलहे ७, चंडिपके ८, मंडणे , विवाए १०, माणे ११, मदे १२, दप्पे १३, थंभे १४, अत्तुक्कोसे १५, गवे १६, परपरिवाए १७, अक्कोसे १८, अवककोले (परिभवे) १६, उन्नए २०, उन्नामे २१. माया २२, उवही २३, नियडी २४, वलए २५, गहणे २६, णूमे २७, कक्के २८, कुरूए २६, दमे ३०, कडे ३१, जिम्हे ३२, फिबिसिए ३३, अणायरणया ३४, ग्रहणया ३५, वंचणया ३६, पलिकंचणया ३७, सातिजोगे ३८, लोभे ३९, इच्छा ४०, मुच्छा ४१, कंखा ४२, गेही ४३, तिण्हा ४४, भिज्जा ४५, अभिज्जा ४६,
कामासा ४७, भोगासा ४८, जीवियासा ४६, मरणासा ५०, नन्दी ५१, रागे ५२ १४. कायवाङ्मनःकम योगः। तस्वार्थ सूत्र, ६१ १५. स आत्रयः । तत्वार्य सूत्र, ६२ १६. सकपायाफपाययोः साम्प्ररायिकर्यापथयोः। तस्वार्थ सूत्र, ६५ १७.क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । पातंजल योगवर्शन, २.१२ १८. तस्वार्थ सूत्र -शुमः पुण्यस्य, ६२, अशुभ पापस्प, ६.३ २०. पुण्यं नाम पुनाति आत्मानं पवित्रीकरोति पुग्यम् ।
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२१. पञ्चास्तिकाय, २।१३१-१३२ :
२२. पातंजल योगदर्शन, २।१४ : ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् । २३. नवतत्त्व साहित्य संग्रह : देवगुप्तसूरि, नवतत्त्व प्रकरण, गाया ८ : नातरायसगं वंसणनव मोहपयह छठवीसं । नामस्स चउत्तीस, तिहन एक्केक पावाओ ||
- ७ : सायं उच्चगोयं सत्तत्तीसं तु नाम पगईओ । तिन्नि य आऊणि तहा बायालं पुन्नपगईओ ॥
२५. पुणेण हांई विवो, विहवेणमओ, मएण मइमोहो । मोहेण य पावंता पुण्णं अम्ह मा होऊ ।। २.६० २६. ( क ) समयसार ३ : १४५-१४७, १५४, १५० (ख) पंचास्तिकाय, १६५-१६६, १७५
२७. परमात्म प्रकाश वृत्ति, ५७-५८
२४. वही
मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि । विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामा ॥ सुहपरिणामो पुष्णं असुहो पावंति हवदि जीवस्स । दोन्हं पोग्गालमेसो मावोकम्मणं पत्तो ॥
२८. परिणामतापसंस्कारदुखं गुणा वृत्तिविरोधान् दुःखमेव सर्वं विधेकिनः ।
पातंजल योगदर्शन, २.१५
२६. विषयेन्द्रियसंयोगद्य तदग्रे ऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।। गीता, १८.३८
३०. ये हि संसगंजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ गीता, ५.२२ ॥
३१. उत्तराध्ययन ६.५३ -- सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसी विसोवमा ।
१२
३२ तत्त्वार्थ सूत्र, ६.१ आखवनिरोध : संवर ।
३३. तत्त्वार्थ - १.४. सर्वार्थसिद्धि : शुभाशुभकर्मागमद्वाररूप आस्रव:, आस्त्रवनिरोध
लक्षण संवर: ।
३४. नवतत्व साहित्य संग्रह १११, सर्वषामाश्रवाणां यो रोधहेतु सः संवरः ।
:
४५. वही १२१-१२२,
यथा वा यानपात्रस्प मध्ये विशेज्जलम्, कृते रन्ध्र पिधाने तु न स्तोकमपि तद्विशेत् ॥ योगादिष्वाभवद्वारेष्वेवं रुद्धेषु सर्वतः ॥ कर्मद्रव्यप्रवेशो न जीवे संवरशालिनि ॥
- सप्त तस्य प्रकरणम्, १२१-१२२
३६. पातंजल योग-दर्शन, १.२.
३७. बही, १.५ : पातंजल योगदर्शन : वृत्तय: पञ्चतय्य : क्लिष्टाक्लिष्टा : । ३८. वही, १६ : प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय: ।
३६. हिसाऽनृततेाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । तस्वार्थ, ७.१
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४०. योगदर्शन - अहंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा: ॥
४१. कर्मणा मनसा वाचा, सर्वभूतेषु सर्वदा ।
अक्लेशजननं प्रोक्तमहसात्वेन योगिभि: ॥
४२. तुमंस नाम तं चैव जं हंतव्यं ति मन्नसि... ।
घायए, अणुसंवेयणमप्पाणेणं जं हंतध्वं नाभिपत्थए || - आचारांग सूत्र १, ५/५.५ ४३. उत्तराध्ययन, ३०.५-६ : जहामहात लायस्स, सन्नियते जलागमे । उचिणाए तबणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ एवं तु संजय सावि, पावकम्म निरासवे । भवको संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ॥
४४. उत्तराध्ययन, ३०.८, ३०: अणसणमूणोयरिया, य भिक्खायरिया रसपरिवाओ।
काय किलेसो संलोणया, य बुज्झो तवो होइ ॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्वं तहेव सज्झाओ । झाणं च विसग्गो, ऐसो अभिन्तरो तो ॥
४५. योगाङ्गानुष्ठानात् शुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरविवेकख्यातेः । - पातञ्जल योगदर्शन, २.२८ ४६. यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि । वही २.२६, ४७. शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । योगदर्शन, २.३२.
४८. मोहयाज्मानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । तत्त्वार्थ, १०.१
४६. तारकं सर्वविषयं सर्वयात्रिषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् । - पातंजल योगदर्शन, ३:५४. ५०. सस्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कंवल्यम् । वही, ३: ५५.
५१. तत्त्वायं सूत्र --१०.२-३: बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् । कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ।
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वर्ष - 2, अंक-2, मार्च - 90, 27-37
अर्हत्वचन
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ. इन्दौर
कर्म को विचित्र गति - मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में
रतनलाल जैन *
'कर्म'' भारतीय दर्शन का एक प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। उस पर लगभग सभी पुनर्जन्मवादी दर्शनों ने विमर्श प्रस्तुत किया है। पूरी तटस्थता के साथ कहा जा सकता है कि इस विषय का सर्वाधिक विकास जैन दर्शन में हुआ है।' - युवाचार्य महाप्रज्ञ * *
कर्म को विचित्रता
महापुराण में कर्मरूपी श्रह्मा के पर्यायवाची शब्दों के बारे में लिखा है
'विधि, सुष्टा, विधाता, दैव, पुरा कृतम और ईश्वर -- ये कर्मरूपी ब्रह्मा के वाचक शब्द हैं।' इस प्रकार कर्म को ब्रह्मा के रूप में ही मान लिया गया।
नीति शतक में लिखा है कि कर्म तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश से भी अनेक प्रकार से नाच, नचवाता है
'जो कर्म ब्रह्मा जी को कुम्हार के समान ब्रह्माण्ड रूपी भांड में स्थापित करता है । जो भगवान् विष्णु को दस अवतारों के महान और बड़े भारी संकट में डाल देता है और जो महादेव के हाथ में कपाल फुटे हुए घड़े का आधा भाग देकर उनसे भिक्षा के लिए भ्रमण कराता है, तथा जिसके प्रभाव से सूर्य निरन्तर आकाश में भ्रमण करता है, उस कर्म को नमस्कार हो । ' जनदर्शन में
मनुष्यों में
शरीर, मन और वृद्धि आदि को लेकर असंख्य विभिन्नताएँ हैं ।
(श्वे. ) जैनाचार्य देवेन्द्रसूरि ने कर्म की विचित्रता- विविधता का इस प्रकार उद्घाटन किया है
'राजा-रंक', सुन्दर कुरूप, धनवान् धनहीन, वलवान्- निर्बल, स्वस्थ रोगी, भाग्यशालीअभागा -- इन सब में मनुष्यत्व समान होने पर भी जो अन्तर-- जो भेद दिखाई देता है, वह सब कर्म कृत है। और वह कर्म जीव के बिना नहीं हो सकता। कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? 4
गौतम स्वामी ने पूछा
'हे भगवन् ! क्या जीब के सुख-दुःख तथा विभिन्न प्रकार की अवस्थाएं कर्म की विभिन्नताविचित्रता या विविधता पर निर्भर है, अकर्म पर तो नहीं ?"
भगवान महावीर ने कहा
गली आर्य समाज, हाँसी-125033 (हिसार)
श्वेताम्बर जैन तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित युवाचार्य महाप्रश, आचार्य तुलसी के शिष्य हैं। प्राकृत एवं जैनदर्शन के आप उद्भट विद्वान है ।
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- 'गौतम ! संसार के जीवों के कर्मवीज भिन्न-भिन्न होने के कारण उनकी अवस्था या स्थिति में भेद है, अन्तर है। यह अकर्म के कारण नहीं है।'
कमरूपी बीज के कारण हो संसारी जीवों में अनेक उपाधियां, विभिन्न अवस्थाएँ दिखायी देती हैं।
आत्मा को मणि की उपमा देते हुए यह सत्य प्रकट किया गया है
'जिस प्रकार मल से आवृत्त मणि की अभिव्यक्ति विभिन्न रूपों में होती है, उसी प्रकार कामरूपी मल से आवृत्त आत्मा की, विविध-विभिन्न अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होतो हैं।"
कर्म के कारण ही जीव संसार में पृथक-पृथक गोत्रों में, जातियों में या गतियों में उत्पन्न हो जाता है--
"इस संसार में विभिन्न प्रकार के कर्म-बन्धन के कारण प्राणी भिन्न-भिन्न गोत्रों में, जातियों में उत्पन्न होते हैं।
'पूर्व जन्म-समय में किए कर्मों के अनुसार ही कितने ही जीव देवलोक में जाते हैं, अनेक नरक गति म और बहुत से असुर-निकाय में चले जाते हैं।'
कितने ही जीव क्षत्रिय बन जाते हैं, अनेक जीव चांडाल के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं। बहत-मे कीड़ों-पतंगों का जन्म ग्रहण कर लेते हैं तथा अनेक कुंधु रूप में चींटी की तरह जन्म
लग प्रकार इस कर्म के संयोग से मृढ बना एवं भारी वेदना और दु:ख पाता हुआ यह जीव मनप्य गति को छोड़कर अन्य (नरक-तियंच-आदि) योनियों में दुःख-कष्ट भोगता रहता है।' बौद्ध दर्शन में--
राजा मिलिन्द ने पूछा
भगवन नागसन ! ये जो पाँच आयतन-आंख, कान, नाक, जीभ और चमड़ी हैं, क्या ये अलग-अलग कर्मों के फल हैं, या एक ही कर्म के फल हैं ?
---राजन ! अलग-अलग कर्मों के फल हैं, एक ही कर्म के फल नहीं।
-कृपा करके उपमा द्वारा समझाइए।
--राजन ! यदि कोई मनुप्य एक खेत में पृथक-पथक जाति के बीज बोये तो क्या अनेक प्रकार के योजों का फल अनेक जाति का न होगा?
-हाँ भगवन् ! अनेक प्रकार के बीजों का फल अनेक जाति का होगा।'
-राजन् ! इसी प्रकार ये पांच आयतन है-ये पृथक-पृथक कर्मों के फल है। एक कर्म का फल नहीं।
-भंते ! आपने ठीक फरमाया!
महत्वाचन, इन्दौर
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राजा मिलिन्द और स्थविर नागरीन के बाच हुए संवाद में जीवों की विविधता, विभिन्नता का कारण कर्म ही माना है -- 10
राजा मिलिन्द ने स्थविर नागसेन से पूछा--"
"भन्ते ! क्या कारण है कि सभी मनुष्य समान दीर्घ आय वाला; कोई अधिक रोगी तो कोई निरोगी; प्रभावहीन कोई प्रभावशाली ;' कोई अल्पभोगी - निर्धन, बाल), कोई ऊँचे कुल वाला तथा कोई मुर्ख व कोई विद्वान क्यों होते हैं ?"
नहीं होते — कोई अल्प आयु वाला, कोई कोई कुरुप तो कोई अति सुन्दर; कोई कोई बहु भोगी- धनवान, कोई नीच कुल
स्थविर नागसेन ने प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा-
राजन ! क्या कारण है कि सभी वनस्पति एक जैसी नहीं होती - कोई खट्टी, कोई मीटी कोई नमकीन कोई तीखी, कोई कड़वी, कोई कमेली क्यों होती है ?'
राजा मिलिन्द ने कहा
'मैं समझता है कि बीजों के भिन्न-भिन्न होने के कारण ही वनस्पति भी भिन्न-भिन्न होती है ।'
नागमेन ने कहा- 'राजन जीवों की विविधता का कारण भी अनका अपना कर्म ही होता है । सभी जीव अपने-अपने कर्मों के फल भोगते हैं। सभी जीव अपने कर्मों के अनुसार ही नाना गतियों और योनियों में उत्पन्न होते हैं ।'
वैदिक दर्शन-
मनुस्मृति में लिखा है कि कर्म के कारण हो मनुष्य को उत्तम, मध्यम या अधम गति प्राप्त होती है
'मन, वचन और शरीर के शुभ या अशुभ कर्म फल के कारण मनुष्य की उत्तम, मध्यम या अधम गति होती है ।" "
उन्होंने आगे कहा है- 'शुभ कर्मों के योग से प्राणी देव योनि को प्राप्त होता है । मिश्र कर्मयोग से वह मनुष्य योनि में जन्मता है और अशुभ कर्मों के कारण वह तिर्यच-पशुपक्षी आदि योनि में उत्पन्न होता है । 13
विष्णु पुराण में कहा गया है- 'हे राजन् यह आत्मा न तो देव है, न मनुष्य है, और न पशु है, न ही वृक्ष है-ये भेद तो कर्म जन्य शरीर-कृतियों का है 1'24 शारीरिक मनोविज्ञान और नाम कर्म
शारीरिक मनोविज्ञान पत्थिवाद आज के शरीर शास्त्रियों ने शरीर में अवस्थित ग्रन्थियों" के विषय में बहुत सूक्ष्म विश्लेषण किया है। बोना होना या लम्बा होना, सुन्दर या
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अन्दर होना, बुद्धिमान या बुद्धिहीन होना, स्वस्थ या रोगी होना - यह सब इन ग्रन्थियों के त्रा पर निर्भर है । ग्रन्थियों के स्राव - इन सब को नियन्त्रित करते हैं ।
इसी तथ्य को हम
कर्म शास्त्रीय भाषा में समझें ।
कर्मशास्त्रीय भाषा नाम कर्म-विचित्रता - आठ कर्मों में एक कर्म है--नाम कर्म । उसके अनेक विभाग हैं । संस्थान नाम कर्म के कारण मनुष्य लम्बा या बोना होता है । इस प्रकार सुन्दर कुरूप, सुस्वर वाला या दुःस्वर वाला आदि सब नाम कर्म की विभिन्न प्रकृतियों के कारण होता है ।
नाम कर्म का सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि हमारे शरीर का सारा निर्माण नाम कर्म के आधार पर होता है ।"
उपर्युक्त कर्म शास्त्रीय विश्लेषण और शरीर शास्त्रीय विश्लेषण को देखें । दोनों में भाषा का अन्तर है, तथ्य का नहीं। शरीर शास्त्री 'हार्मोन्स', 'सिक्रीशन ऑफ ग्लैडस'- ग्रंथियों का स्राव कहते हैं ।
कर्म-शास्त्री 'कर्मों' का 'रसविपाक' - 'अनुभाग बन्ध' कहते हैं ।
मनोविज्ञान की भाषा में
मित्रता का नियम ( Law of Variation ) साधारणत: यह समझ लिया जाता है कि समान 'समान' ही उत्पन्न करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि बुद्धिमान या स्वस्थ माता-पिता अपने ही समान सन्तान उत्पन्न करते हैं और निर्बल निर्बल सन्तान उत्पन्न करते हैं । पर कहीं-कहीं हमें इस नियम में परिवर्तन दिखाई देता है ।
बुद्धिमान माता-पिता के मुखं सन्तान क्यों उत्पन्न होती है ? बहुत साधारण परिवार में कभी-कभी बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति कैसे उत्पन्न हो जाते हैं ?
हम शंका का समाधान 'भिन्नता के नियम' से होता है । 27
वंशानुक्रमीय गुणों ( Heredity traits) के वाहक बीज कोष ( Germ Plasm ) हुआ करते हैं। ये बीज-कोप अनेक रेशे से बने हुए होते हैं। 28 इन रेशों को अंग्रेजी में क्रोमोजोम्म (Chromosomes ) कहते हैं । इसे हम वंश सूत्र की
संज्ञा देंगे ।'
जोन्स - विभिन्न गुण-दोषों के वाहक
एक बीज कोप में अनेक वंश-सूत्र पाये जाते हैं। आश्चर्य है कि इन वंशसूत्रों के और भी अनेक सूक्ष्म भाग होते हैं, जिन्हें अंग्रेजी में 'जीन्स' कहते हैं । ये 'जीन्स' अनेक संख्या में मिलकर वंश-सूत्र मनाते हैं । वास्तव में ये जीन्स ही विभिन्न गुण-दोषों के वाहक होते हैं ।"
वचन, इन्दीर
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कोई जीन पैर की लम्बाई का हुआ तो कोई नाक या । गोई छोटी आंत्र का हुआ तो कोई निचिड़ापन का इत्यादि ।
___ जीव विज्ञान के अनुसार प्रत्येक भ्रण-कोष में चौबीस पिता के तथा चौबीस माता के बंग-गुत्रों का समागम होता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इनके संयोग से 16,777,216 प्रकार की विभिन्न सम्भावनाएँ अपेक्षित हो सकती हैं। विभिन्न मानसिक-शारीरिक स्थिति
प्रकृति की लीला कितनी विचित्र है। वैज्ञानिकों का कथन है कि वंश-सूत्रों का मिश्रण जय माता-पिता में भी सदैव ममान नहीं होता क्योंकि उनकी मानसिक तथा शारीरिक स्थिति मदैव कमी नहीं रहती । मनोविज्ञान में भिन्नता?
कर्मशास्त्र में तो वैयक्तिक भिन्नता का चित्रण मिलता ही है। मनोविज्ञान ने भी प्रमका विशद रूप से चित्रण किया है। इसके अनसार वैयक्तिक भिन्नता का प्रश्न मल प्रेरणाओं के सम्बन्ध में उठता है ।
मूल प्रेरणाएं (Primary motives)-'मल प्रेरणा सव में होती हैं, किन्तु उनको मात्रा मब में एक ममान नहीं होती । किसी में कोई एक प्रधान होती है तो किसी में कोई दूसरी प्रधान होती है।'
अधिगम क्षमता ( Learning Capacty) अधिगम क्षमता भी सब में होती है, किसी में अधिक होती है, किमी में कम।
वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धान्त तो मनोविज्ञान के प्रत्येक सिद्धान्त के साथ जुड़ा हुआ है ।।
वंश-परम्परा और वातावरण (Heredity and Environment)-मनोविज्ञान में . वैयक्तिक भिन्नता का अध्ययन वंश परम्परा और वातावरण के आधार पर किया जाता है। जीवन का आरम्भ माता के डिम्ब और पिता के शुक्राणु से होता है। कोमोसोम (Chromosonne)-जोनों का समुच्चय
____ व्यक्ति के आनुवंणिक गुणों का निश्चय क्रोमोसोम द्वारा होता है । क्रोमोसोम अनेक जानी (जीन्म) का समन्चय होता है । ये जीन ही माता-पिता के आनुवंशिक गुणों के वाहक होते है । एक क्रोमोसोम में लगभग हजार जीन माने जाते हैं । शारीरिक-मानसिक क्षमताएं (Potentialities)"
___ इन जीन्स में ही शारीरिक और मानसिक विकास की क्षमताएँ निहित होती हैं । व्यक्ति में कोई ऐसी विलक्षणता प्रकट नहीं होती जिसकी क्षमता उनके जीन में निहित न हो। मनोविज्ञान ने शारीरिक और मानसिक विलक्षणताओं की व्याख्या वंशपरम्परा और बातावरण के आधार पर की है।
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मनोविज्ञान और कर्मशास्त्र-वैषम्य
शारीरिक विलक्षणता पर आनवंशिकता का प्रभाव प्रत्यक्ष ज्ञात होता है, पर मानसिक विलक्षणताओं के सम्बन्ध में आज भी अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं।
___ क्या वृद्धि आनुवंशिक है ? अथवा वातावरण का परिणाम है ? क्या बौद्धिक स्तर का विकास किया जा सकता है ? इन प्रश्नों का उत्तर प्रायोगिकता के आधार पर नहीं दिया जा सकता । वंग-परंपरा और वातावरण से सम्बद्ध प्रयोगात्मक अध्ययन केवल निम्न कोटि के जवा पर ही किया गया है । बौद्धिक विलक्षणता का सम्बन्ध मनुप्य से है। इस विषय में मनप्य अभी भी एक पहेली बना हुआ है।
जीवन और जीव--मनोविज्ञान और कर्म
मनोविज्ञान के क्षेत्र में जीवन और जीव का भेद अभी तक स्पष्ट नहीं है । कर्म सिद्धान्त के अध्ययन में जीव और जीवन का भेद बहत ही स्पष्ट है । आनबंशिकता का सम्बन्ध जीवन में है, ब में ही कर्म का सम्बन्ध जीव मे है । उममें अनेकः जन्मों के कर्म या प्रतिक्रियाएँ संचित होती ।
इमलिए वैयक्तिक योग्यता या विलक्षणता का आधार केवल जीवन के आदि-बिन्दु में ही नहीं बोजा जा सकता । उससे परे भी खोजा जाता है, जीव के साथ प्रवाहमान कर्म संचय . (कर्म शरीर) में भी खोजा जाता है ।
शारीरिक मनोविज्ञान का मत-एक जोन में साठ लाख आदेश
आज के शरीर विज्ञान की मान्यता है कि शरीर का महत्त्वपूर्ण घटक है-जीन । यह म्कार मुत्र है, यह अत्यन्त सूक्ष्म है । प्रत्येक जीन में माट-साठ लाख आदेश लिखे हुए होते है । हम गूमता की तो मात्र कल्पना ही की जा सकती है। मनष्य की शक्ति, चेतना, पुरपार्थ कृतल्ब वितना है ? एक-एक जीन में साठ-साठ लाख आदेश लिखे हुए हैं।
प्रश्न होता है कि हमारा पुरुपार्थ, हमारा कर्तत्य, हमारी चेतना कहाँ है ? क्या यह 'श्रामामाम' और जीन में नहीं है? इसलिए तो इतनी तरतमता एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति म । मब का पुरुषार्थ ममान नहीं होता । सब को तना गमान नहीं होती । इस असमानता का कारण--प्राचीन भाषा में, कर्म-शास्त्र की भाषा में कम है।
जंसा कर्म, वसा व्यक्ति
एक बार गणधर गौतम ने भगवान महावीर मे पूछा"-"भंते ! विश्व में सर्वत्र तरतमता दिवाई देती है, किसी में ज्ञान कम है, किसी में अधिक इसका क्या कारण है ?'
भगवान बोले-'गौतम! इस तरतमता का कारण है कर्म'.
यदि आज के जीव-विज्ञानी से पूछा जाए कि विश्व की विषमता या तरतमता का कारण क्या है तो वह कहेगा कि सारी विषमता-तरतमता का एक मात्र कारण है 'जीन'।
अईत्वचन, इन्दौर
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जैसा जीन, वैसा आरमी28
जैमा 'जीन' होता है, गुणसूत्र होता है, आदमी वैसा हो बन जाता है, उसका स्वभाव और व्यवहार वैसा ही हो जाता है । यह जीन ही सभी संस्कार-सूत्रों तथा सारे भेदों-विभेदों का मूल कारण है । जीन-कर्म पर लिखे आदेश
जीन--विज्ञान की भापा में कहा जाता है कि एक-एक जीन पर साठ-साठ हजार आदेश लिखे हुए होते हैं।
कर्म-स्कन्ध (कर्म स्कन्ध)-कर्म-शास्त्र की भाषा में कहा जा सकता है कि एक-एक कर्म-कन्ध में अनन्त आदेश लिखे हुए होते हैं 120 जोन-स्थल-शरीर. कर्म-सूक्ष्म शरीर
अभी तक विज्ञान केवल 'जोन' तक ही पहुंच पाया है । जीन इस स्थूल शरीर का ही घटक है, किन्तु कर्म मूक्ष्म शरीर का घटक है। इस स्यूल शरीर के भीतर तैजस शरीर है, विद्युत शरीर है, वह मुक्ष्म है । इससे सूक्ष्म है कर्म-गरीर। यह सूक्ष्मतम है । इसके एक-एक स्कन्द पर अनन्त-अनन्त लिपियाँ लिम्बी हुई हैं। हमारे पुरुषार्थ का, अच्छाइयों और बुराइयों का न्यूनताओं और विशेषताओं का सारा लेखा-जोखा और सारी प्रतिक्रियाएँ कर्म-शरीर में अंकित हैं । वहाँ से जैसे स्पन्दन आते हैं, आदमी वैमा ही व्यवहार करने लग जाता है। कर्म सिद्धान्त और मनोविज्ञान का सिदान्त
कर्म का सिद्धान्त अति सूक्ष्म है। सूक्ष्म बुद्धि से परे का सिद्धान्त है। आज के वंश परंपरा के सिद्धान्त ने कर्म सिद्धान्त को समझने में सुविधा प्रदान की है। जीन-आनुवंशिक गुणों के संवाहक
जीन व्यक्ति के आनुवंशिक गुणों के संवाहक है ।10 व्यक्ति-व्यक्ति में जो भेद दिखाई देता है, वह जीन के द्वारा किया हुआ भेद है।
प्रत्येक विशिष्ट गुण के लिए विशिष्ट प्रकार का जीन होता है । ये आनुवंशिकता के नियम कर्मवाद के संवादी नियम है ।" स्थल शरीर से सूक्ष्म की यात्रा
स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर की यात्रा अपन आप में बड़ी महत्वपूर्ण है। यह शरीर म्थल है, यह सूक्ष्म कोशिकाओं (Biological cells) से, निर्मित है । लगभग साठ-सत्तर खरब कोशिकाएँ हैं। मूई की नोक में ? अनन्त जीव ।
। . इन कोशिकाओं को जैन दर्शन के प्रतिपादन के सन्दर्भ में समझें कि सूई की नोक टिके-उतने-से स्थान में निगोद के अनन्त जीव समा सकते हैं । निगोद बनस्पति का एक विभाग है--यह सूक्ष्म रहस्यपूर्ण बात है । पर आज का विज्ञान भी अनेक सूक्ष्मताओं का प्रतिपादन करता है।
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शरीर में खरबों कोशिकाएं हैं, उन कोशिकाओं में गुण-सूत्र होते हैं । प्रत्येक गुण-सूत्र दस हजार जीन से बनता है । वे सारे संस्कार-सूत्र हैं । हमारे शरीर में 'छियालीस' क्रोमोसोम होते हैं । वे बनते हैं जीन से, संस्कार-सूत्रों से ।
संस्कार-सूत्रों से एक क्रोमोसोम बनता है । संस्कार-सूत्र सूक्ष्म है, जीन सूक्ष्म है । कर्म - परमाणु के संवाहक
कर्मबाद मनोविज्ञान से एक चरण और आगे है। कर्म परमाणु का संवहन करते व्यक्तिगत भेद का मूल कारण है, कर्म । सारे विभेद कर्मकृत हैं।
प्रत्येक जैविक विशेषता के लिए कर्म उत्तरदायी होता है । आनुवंशिकता, जोन, रासायनिक परिवर्तन -- कर्म के सिद्धान्त :
यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो आनुवंशिकता, जीन और रासायनिक परिवर्तन ये तीनों सिद्धान्त कर्म के ही सिद्धान्त हैं । जीन हमारे स्थूल शरीर का अवयब है और कर्म हमारे सूक्ष्मतर शरीर का अवयव है। दोनों शरीर से जुड़े हुए हैं—एक स्थूल शरीर से और दूसरा सूक्ष्मतर शरीर से । यह सूक्ष्मतरं शरीर कर्म शरीर है।
'फर्म बनाम जीन' पर अनुसन्धान का विषय
महाप्रज्ञ जी लिखते हैं" - 'एक दिन यह तथ्य भी अनुसन्धान में आ जाएगा कि जीन केवल माता-पिता के गुणों या संस्कारों का ही संवहन नहीं करते, किन्तु ये हमारे किए हुए कमों का भी प्रतिनिधित्व करते ''
अतः उपर्युक्त विवेचना का निष्कर्ष है कि अब 'जीन बनाम कर्म शोध का एक महत्वपूर्ण विषय है ।
सन्दर्भ स्थल
1. युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ, कर्मबाद पृ. 235, 2. महापुराण-आचार्य जिनसेन
विधि, सृष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् । free- ईवर चेति पर्याय कर्म वेधस् ।
3. नीतिशतक, 92, भर्तृहरिः
--ब्रह्मा येन कुलाल वनियमितो ब्रह्माण्ड भाण्डोदरे, विष्णुर्येन दणावतार गहने क्षिप्तो महासंकटे । रुद्रो येन कपालपाणि पुटके भिक्षाटनं सेवते । सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे ।। 4. कर्मग्रन्थ प्रथम, टीका देवेन्द्र सूरि :
।
- मा भृद्रकयोर्मनीषिजडयो: सद्रूप निरूपयोः, श्रीमद्-दुर्गतयोवंलाबलवतार्नीरोगरोगार्तयोः । सौभाग्याऽसुभगत्वसंगम जुषोस्तुल्येऽति नत्वेऽन्तरं, यत्तत्कर्म निबन्धनं तदपि नो जीव बिना युक्तिमत् ॥
अर्हतबचन इन्दौर
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came to prata & 020 N BESOME T
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5. भगवती सूत्र, 12 / 5:
कम्मओणं भंते जीवे नो अकम्मओ विभत्ति भावं परिणमई । कम्मओणं जओ णो अकम्मओ विभत्ति भावं परिणमई ।
6. आचारांग सूत्र, 1 / 3 / 1 :
-कम्मृणा
उबाही जायइ.
7 तत्वार्थ श्लोक वार्तिक, 191 :
- मलावृतमणे व्यक्ति यथानेक विद्येक्ष्यते । कर्मावृतात्मनस्तद्वत्, योग्यता विविधा न किम' ?
8. उत्तराध्ययन सूत्र, 3 / 2, 3, 4, 6 :
-- समावन्नण संसारे, नाणा गोत्तासु जाइसु । कम्मा नाणाविहा कट, विस्सं भया पया ।। एगया देवलोएसु, नरएस वि एगया । एगया आसुरं कार्य, अहाकम्मेहि गच्छ ॥ एगया खत्तिओ होड़, तओ चंडाल बुक्क सो । तओ कीड पयंगो अ, तओ कुंथु पिवीलिया ।। कम्मसंगेहि संमृढा, दुनिआ वहुवेअणा ।
अमाणुसासु जोणीमु, विणिहम्मति पाणिणो ।।'
9. मिलिन्द पो पृष्ठ 68, विभतिच्छेद पञ्हो
राजा आह-भन्तं नागसेन, यानि मानि पञ्चायतनानि किं नु तानि नाना कम्मेहि निब्बतानि उदाहु एकेन कम्मेना'ति । नाना कम्मेहि महाराज निब्बत्तानि न एकेन कम्मेना'ति ।
-त्री पम्मं करोही'ति ।
तं कि मासि महाराज एकस्मि खोते
नाना बीजानि वप्पेयुं । तेसं नाना बीजानं नाना फलानि निब्बत्ते 'ति ।
- आम भन्ते निब्बतेय्युं 'ति ।
- एवमेव खो महाराज यानि तानि पञ्चायतनानि तानि तानि नानाकम्मेहि निम्बानि न एकेन कम्मेना'ति ।
- कल्लो'सि भन्ते नागसेना'ति ।
10. कर्मज लोक वैचित्र्यं चेतना मानसं चतत् । - अभिधर्म कोष
11. भारतीय धर्मो मां कर्मवादः
मिलिन्द पञ्हो, पृष्ठ 68, बिमतिच्छेद पञ्हो:
'राजा आह-- मन्ते नागसेन केन कारणेन मनुस्सा न सब्वे समका,
अजे अप्पायुका, बजे दीपायुका,
अजे बव्हा बाधा, अज्जे अप्पाबाधा,
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अजे दुब्यण्णा, अञ्ज बण्णवन्तो, अजे अणेसक्खा, अजे महेसक्खा, अजे अप्पभोगा, अजै महाभोगा, अजे नीचकुलगना, अजे महाकुलीना, अजे अप्पञ्चा, अजे पञ्चवन्तो ति ।
थेगे आह-'किस्म पन महाराज रुक्खा न सव्ये समका, अज्जे अम्बिला, अज्जे लवणा; अ निनका, अज्जे कटका अग्ज कसावा, अज्जे मधुरा' ति।
गजा आह-मज्जामि भन्ते बीजाने नाना कारेणनाति, थेरो आह-एवमे' व खो महाराज कम्भानं नाना करणन मनस्सा न सम्वे समका-अज्जे अपायका, अज्जे दीघायुका, अज्जे बम्हाबाधा अज्जे अप्पाबाधा, अज्जे दुय्यण्णा, अज्जे वण्णवन्तो, अज्जे अप्पेसक्खा महेसक्खा, अज्जे, अपभोगा, अज्जे माहाभोगा, अज्जे नीचकुलीना, अज्जे महाकलीना अप्पज्जा अज्जे पज्जबन्तो।' 12. मनुस्मृति, अ. 12.3 :
___ शुभाशुभ फलं कर्म, मनोवाग-देहसम्भवम् ।
कर्मजा गतयो नणामुत्तमाधममध्यमाः ।। 13. मनुस्मति, अ. 12. 10 :
शुभैः प्रयोगर्दैवत्वं, व्यामिथैर्मानुषो भवेत् ।
अशुभं केवलश्चेव, तियंग्योनिपु जायते ।। 11. विष्णु पुराण, 2. 13. 97 :
पुमान देवो न नरो, न पशुर्न ज पादपः ।
शरीरकृति भेदास्तु, भपते कर्मयोनयः ।। 15. Human Anatomy and Physiology, P. 326, MIR--MOSCOW. (1982) 16. गोम्मटमार (कर्मकाण्ड) 12:नेमिचन्द्र
गदि आदि जीव भेदं देहादी पोग्गलाण भेदं च ।
गदियंतर परिणमनं करेदि गामं अणेयवि ।। 12. Thulaw of variation' भिवता का नियम, मनोविज्ञान और शिक्षा, सत्यप्रस
पृ. 160 (1960) 16. वही 19. मनोविज्ञान और शिक्षा, पृ. 161 20. वही 21. कर्मवाद- P. 236, . 1986-युवाचार्य महाप्रज्ञ 22. Human Anatomy and Physiology P. 188 Ed. 1982, DAVID MYSHNE
MIR -MOScow:
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-The union of an ovum and spermatozoon in a uterine tube results
in fertilization. 23. मनोविज्ञान और शिक्षा (1960) पृ. 161 21. कर्मवाद---पृष्ठ 237 25. जो तुल्नलाहणाण फले विसेसो ण सो विणा हे।
कम्जतणओ गोयमा ! घडोव्व हेऊय सो कम्म ।। -विशेषावश्यक भाष्य 26. कर्मवाद, 136 पृष्ठ 27. भगवती सूत्र 12/5 :
कम्मओणं भंते ! जीवे, नो-अकम्मओ विभक्ति भावं परिणमई।
कम्मओणं, जओ णो अकम ओ विर्भानभावं परिणमई । 2. कर्मवाद, पृ. 137 29. भगवती सूत्र 30. मनोविज्ञान और शिक्षा, पृष्ठ 161 (1960) 31. कर्मवाद, पृ. 164--- 32. (क) कर्मवाद, प्रतिक्रमण, युवाचार्य महाप्रज्ञ
(ख) भगवती सूत्र 33. कम्मुणा उवाही जायइ । आचारांग, 1. 3. 1. 3.). कर्मवाद',-अतीत को पढ़ो, भविष्य को देखो-महाप्रज्ञ.
(ोधकर्ता द्वारा प्रस्तुत नवीन दृष्टि के सन्दर्भ में कर्म सिद्धान्त के अधिकारी विद्वानों की प्रतिक्रियाये प्रकाशनार्थ सादर आमंत्रित है-सम्पादक)
")
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शरी र-संरचना-बाधुनिक शरीर-विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में
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शरीर का महत्त्व-
भावान् महावीर ने कहा है
शरीर माहु नावति जीवो वुच्चा नावियो ।
___ संसारो वण्णवो वुचो तरंति महेसिणो ।। - 'वायुष्मान् ! इस संसार •प सागर के दूसरे पार जाने के लिए यह शरीर नौका है, जिसमें बैठकर वात्मा पी नाविक समुद्र पार करता है।' संस्कृत-साहित्य की प्रसिद्ध सुफि है- 'शरा रमाथं खलु धर्म-साधनम्'- अर्थात् शरीर ही निश्चित रूप से धर्म का साधन है । शरीर का लाण- जो उत्पत्ति के समय से लेकर प्रतिमाण जीण-शोण होता. रहता है, जिसके द्वारा मोतिक सुख-दुःख का अनुभव होता रहता है तथा जो शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होता है, उसे शरीर कहते हैं। जिस कर्म के उदय से वाहार वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध तथा तेब्स और कार्मण वर्गणा के पुदालस्कन्ध शरीर-योग्य परिणामों के द्वारा परिणत होते हुए जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, उस कर्म-कन्ध की ‘शरीर' यह संशा है । जो विशेष नाप-कर्म के उदय से गलते हैं, वे शरीर है। अनन्तानन्त पुदगलों के समवाय का नाम शरीर
१- मोल-काश, धनमुनि । २- धवला, ६१, ६-१, २८१५२१६: - नम्स कम्मरस उदरण वाहार वग्गणार पोग्गल-संधा तेजा मय बग्गण
पोग्गलखंथा च सरी जोग्ग परिणामेहि परिणा संतापी वेण संति हा सस्स कम्मलंधस्स सरी रमिपि सण्णा ।। - माय सिदि, ।३६।१८१।४:। -विशिष्ट नामकर्मोदयापादि वृत्ती नि ASY शो मन्ते इति शरीराणि ।।
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है । शरार, शील, स्वभाव - ये सका है।
शरो र नाम कर्म- 'जिसके उदय से आत्मा के शरीर की रचना होती है, वह शरीर नामकर्म है । २ ‘जिस कर्म के उदय से वाहारवर्गणा के पुद्गल-स्कन्ध तथा तेजस और कामण वर्गणा के पुद्गल-स्कंध शरीर योग्य परिणामों के द्वारा परिणत होते हुए जीव के साथ सद्ध होते हैं, उस कर्म-स्कन्ध को 'शरीर' यह संशा है ।
शरीर नाम कर्म के भेद- जो शरीर नाम है, वह पांच प्रकार का है - (१) बौधारिक शरार नाम कर्म, (२) वकियिक शरीर नामकर्म, (३) वा हारक शरीर नामकर्म, (४) तस शरार नामकर्म और (५) कार्मण शरीर नाम-कर्म ।४
औदारिक शरीर- ‘जो शरीर गर्भ जन्म से और संमुच्छन जन्म से उत्पन्न होता है, वह सब बौदारिक शरीर है । "
१ - धवला.- १४।५, ६, ५१२॥ ४३४: अणंताणत पोग्गल समवाओं सरो । २- (क) सवधिसिद्धि, ८।११।३८६।६:
__-यदुदयात्मनः शरीरनितिस्तच्छरी नाम ।
(ख) राजवार्तिक, ८।११।३।५७६ ॥ १४ । ३ - धवला, ६।१, ६-१, २८१५२।६ । ४- (क) पट्खण्डागम, ६६१, ६-१।सु० ३१।६८: जं तं सरी रणामकर्म तं पंचविहं
धोराल्यि सरोरणाम, वेउव्वियसरारणाम, वाहार सरी रणामं तेयासरा रणाम कम्य सरोरणामं चेदि ।।३१।। (स)-तत्त्वार्थ सु०, बोदारिक वकियिकाहारक तजसका मणानि शरो राणि ।
।। २३६ ।। (ग) ठाण, ५२५ (घ) समवायो प्रकोणक, १५८ । ५ - सर्वार्थसिद्धि, २१४५। १६७।१: यद् गर्भनं यच्च संमुनि तत्सर्वमौदारिक दृष्टव्यम् ।
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'तिर्यंच और मनुष्यों के इस इन्द्रियगोचर स्थूल शरीर को बौदारिक शरी र कहते हैं । इसके निमिव से होने वाला आत्म-मृदेशों का परिस्पंदन बौदारिक काय -योग कहलाता है । शरार धारण के प्रथम तीन समयों में जब • तक इस शरीर का पर्याप्ति पुर्ण नहीं हो जाती, तब तक इसके साथ कार्मण शरीर की प्रधानता रहने के कारणशरीर व योग दोनों मिल कहलाते हैं । क्षियिक शरीर -- वणिमा, महिमा आदि वाठ गुणों के ऐश्वर्य के सम्बन्ध से रक, वने, छोटा, बड़ा वादि नाना प्रकार का शरीर करना विक्रिया है । वह विकिया जिस शरीर का प्रयोजन है, वह वैझियिक शरीर है । 'देवों बोर नारकियों के चा-गोचर शरो। विशेष को वैकियिक शरीर कहते हैं । यह छोटे-बड़े हल्के भारी वनेक प्रकार के रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है ।
बाहारक शरीर- 'जिसके द्वारा आत्मा सुक्ष्म पदार्थों का बाहरण करता है, उसको आहारक शरार कहते हैं ।" जीव हर अवस्था में निरन्तर नोकर्माहार ग्रहण करता रहता है, इसलिए भले ही वह कवलाहार करे अथवा न करे, वह बाहारक कहलाता है । जन्म धारण के प्रथम तण से ही वह वा हारक हो जाता है । ५
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१ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ४७० । २- (क) सर्वार्थसिद्धि, २०३६।१६१।६ -
अष्ट गुणेश्वर्ययोगादेकाकाणुमहरा र विविधकरण विकिया,
सा प्रयोजनमस्येति वकियकम् । (ख) धवला, ११४५६।२६११६ ३- जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ६०१ ४- घवला, १, १।५६२६२-३: ।
बाहरति वात्मसाकरोति सूक्ष्माननिति आहारः । ५- जैनेन्द्र सिद्धान्त कौश, भाग १, पृ० २६३ ।।
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'तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने को बाहार
कहते हैं । .१
तेजल शरोरस्थूल शरीर में दाप्ति विशेष का कारण भूत एक अत्यन्त सूक्ष्म शरीर प्रत्येक जोव को होता है, उसे तेजस शरीर कहते हैं । तप व ऋद्धि विशेष के कारण मी दायें या बायें कंधे से कोई विशेष प्रकार का प्रज्वलित पुतला - सरीखा उत्पन्न किया जाता है, उसे तेजस समुद्घात कहते हैं । २ 'जो दाप्ति का कारण है या तेज में उत्पन्न होता है, उसे तेजस शरीर कहते हैं । ३
कार्मण शरीर जीव के प्रदेशों के साथ बन्धे वष्ट कर्मों के सूक्ष्म पुद्गल -स्कन्ध के संग्रह का नाम कार्मण शरार है । ४ यद्यपि सर्व शरोर कर्म के निमित्त से होते हैं, तो मारूढ़ि से विशिष्ट शरीर की कार्मण शरीर कहा है । कर्मो का कार्य कार्मण शरार है। ५ 'सब कर्मों का प्ररोहण अर्थात् आधार, उत्पादक और सुख दुःख का बीज है, इसलिए कार्मण शरीर है । 'ज्ञानावरण आदि आठ
|
६
१- सर्वाधि - सिद्धि, २।३० | २८६ । ६ त्र्याणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तो नां
योग्यपुद्गल ग्रहण माहारः ।
२- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, माग २, पृ० ३६४ ।
३ - सवधि - सिद्धि, २। ३६ । १६१।८:
-यतेजोनिभितं तेजसि वा भवं सवजतम् ।
४- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, मागर, पृ० ७५ ।
५- सर्वार्थसिद्धि, २१३६ । १६१/६ : सर्वेषां कर्मनिमितत्वेपि ढिवशा विशिष्ट विषये
वृत्तिरवसेया, कर्मणां कार्य कार्मणम् ।
५ षट्संडागम, १४।५, ६० २४१।३२८:
सव्वकम्पार्ण पहणुप्पादयं सुहदुक्खाणं बीजमिदि कम्यं । २४१ |
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प्रकार के ही कर्म-स्कंध को काम शरीर कहते हैं अक्षा जो कार्मण शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होता है, उसे कार्मण शरीर कहते हैं ।
संस्थान नाम कर्म- संस्थान का अर्थ है -- शरीर के स्वयवों की रचना, आकृति । ये छह है-२ १- समचतुरख, २- न्यग्रोध-परिमंडल, ३ - सादि (स्वाति),
४ - कुब्ज, ५- वामन, ६. हुंडक स्वार्थ वार्तिक में इन- संस्था नों को व्याख्या इस प्रकार से की गई है
१- समचतुरस-- जिस शरीर-रचना में ऊ वं, अधः और मध्यमाग सम होता है, उसे समचतुरस संस्थान कहा जाता है । एक कुशल शिल्पो द्वारा निर्मित चक की सभी रेखार समान होती है । इसी प्रकार इस संस्थान में सभी भाग समान होते हैं । २- न्योगोध-परिमंडल-- जिस शरार-रचना में नामि के ऊपर का भाग बड़ा (विस्तृत) तथा नाचे फT माग छोटा होता है, उसे न्योगोध-परिमंडल कहा जाता है । इसका यह नाम इसी लिए दिया गया है कि इस संस्थान की तुलना न्योगोध (वट) वृक्ष के साथ होती है ।
३ - स्वाति-- इसमें नामि के ऊपर का भाग छोटा और नीचे का बड़ा होता है । इसका नाका र वत्मीक की तरह होता है ।
४ - कुब्ज -- जिस सरोर-रचना में पीठ पर पुद्गलों का अधिक संचय हो, उसे कुन संस्थान कहते हैं।
५ - वामन-- जिसमें सभी आ-उपांग छोटे हों, उसे वामन संस्थान कहते हैं।
१- (4) तत्वार्थ-वायिक, पृ० ५७६, ५७७
(ब) स्थानांगवृति, पत्र ३३६
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६ - हुड-- जिसमें सभी का-उपांग हुड़ की तरह संस्थित हों, उसे हुण्ड संस्थान कहते हैं ।
मनोवैज्ञानिकों द्वारा शरीर-रचना का वर्गीकरण-- लड्न महोदय ने शारीरिक रचना के आधार पर वो करण किया है । इस वर्गीकरण का आधार शेल्डन का शरार-विज्ञान तथा शरो र-विकास-विज्ञान है । उसने ४०० व्यक्तियों का अध्ययन किया है । वगा करण इस प्रकार है -१ (क) कोमल तथा गोलाकार (ENDOMUR PHIC) (ख) आयताकार (MESOMORPHIC) (ग) लम्बाकार (ECT OMOR PHIC)
(क) को मल तथा गोलाकार -- इस प्रकार के व्यकि अत्यन्त कोमल किन्तु देखने में मोटे लगते हैं । ( नका व्यवहार उनकी आन्तों के आन्तरिक शक्तिशाली पाचन पर निर्भर होता है ।
(ख) वायताकार --- ये लोग पू प से शक्तिशाली होते हैं । इनका शरीर मारी व मजबुत होता है, खाल पतला होतो है ।
(ग) लम्बाकार - इस श्रेणी के व्यकि शक्ति ही न होते हैं, किन्तु इनमें उत्तेजन - शीलता अधिक होतो है, जिसके कारण बाह्य जगत में वे अपनो क्रियाओं को शीघ्रता से करते हैं ।
शरीर के प्रकार -- वनर महोदय ने ४०० व्यक्तियों का अध्ययन किया । उनकी शारीरिक रूपरेखा के अनुसार उनको चार वर्गों में विमक किया है(क) सुडौल काय ( ATHLETIC) (ख) लंबकाय (AESTHEMIC) (ग) गोल काय (PYKNIC) (घ) डायसप्लास्टिक (DYSPLASTIC)
१.
.. Sheldon%3 The varieties of Human Physicque,
Harper, New York (1940).
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(क) सुडौलकाय-- वे व्यक्ति जो शक्तिवान होते हैं, वे अपनी इच्छानुसार समायोजन कर लेते हैं। कार्य में रुचि लेते हैं वोर इसरी वस्तुओं को चिन्ता बहुत कम करते हैं ।
(ख) लंबकाय-- इस प्रकार के व्यकि लम्बे और पतले होते हैं । इसरों को निन्दा करते हैं और सनी निन्दा के प्रति सजग रहते हैं। .
(ग) गोल काय -- इस प्रकार के लोग मनवृत और छोटे होते हैं, इसरे लोगों के साथ सरलता से मिल जाते हैं ।
(घ) डायस्पलास्टिक-- इस प्रकार के लोगों का शरीर साधारण होता है ।
इस प्रकार संस्थान नामकर्म तथा शलड़न बार बनर के वर्गीकरण में अद्भुत समानता दिखायी देती है। संहनन नाम-कर्म-- धवला में लिखा है कि हड्डियों के संचय को संहनन कहते हैं । संहनन नाम कर्म के छह मेद हैं -- १- वज्र कषमता राचसंहनन, (२) ऋषभनाराचसंहनन, (३) नारासंहनन, (४) अर्धनाराचसंहनन, (५) की लिकसंहनन बार (६) सेवासिंहनन (असंप्राप्तसपाटिका संहनन) । वज्र मना राचसंहनन -- जिसके उदय से वज्र के हाड़, कत्र के वेष्टन वोर वज्र की कीलें हों, उसे वाष भनाराचसंहनन नामकर्म कहते हैं ।
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१- धवला, ६१, ६-१, ३६१७३।८: संहननमस्थि संचय, कषमो वेष्टनम,
वजवद भेषत्वान कषमः । ववन्नाराच वजनाराच, तो दावपि यस्मिन् व शरीर संहनने तजष भवज शरोर संहननम् । जस्स कम्मस्स उदरण वजहड्डाछ वज्जवेटठेण वैट्ठियाई जणरण ला लियाई वहाँति तं वज्ज रिसहवरणारायण सरीर संघडण मिदि उ होदि ।
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35.
कष मना राचसंहनन-- जिसके उदय से वन के हाड़ बोर वन की कीलें हों परन्तु वेष्टन वन के ना होते उसे वजना राचसंहनन कहते हैं । नाराचसंहनन-- जिस कर्म के उदय से वज़रहित वेषटन बोर कीलों से सहित हाड़ हों उसे नाराचसंहनन नामकर्म कहते हैं । अर्द्धनारासंहनन-- जिस कर्म के उदय से हाड़ों की संथियां वाधी की लित हों, उसे नारासंहना कर्म कहते हैं।
को लकसंहनन -- जिस कर्म के उदय से हाड़ परस्पर की लित हों, उसे को लक संहनन कहते हैं ।
यसंपाप्तापाटिकासंहनन -- जिस कर्म के उदय से हाड़ नसों में बथे हों, कीलों से युक्त न हों उसे संप्राप्तसृपाटिकासंहनन कहते हैं ।
१ - रेसो चैव हड्डयो वजारिसह वज्जियो जस्स कम्मस्स उदरण होदितं कम्म (क) वजणारायणतरोर संघडण मिदि मण्णदे ।
'जरस कम्पस्स उदरण वन्जविससण रहिदणारायण खो लियासो हड्डसंधिवो हवंति तं पारायण सरोर संघहणं णाम । जस्स कम्मस्स उदरण हड्डसंधीबो णारारण अद्धविदावो ह्मति तं बद्ध णारायण सरोरसंघणं णाम । जस्स कम्मस्स उदरण बज्ज हड्डाई खा लियाई वंति तं सी लिय सरीर सपण णाम । जस्स कम्मस्स उदरण णोण्णमसं पत्ताई सरि सिव हड्डाई व
विरानद्धा हड्डाई इति तं वसं पत सेवट्ट सरीर संघडण पाम । (ख) ठाणे, ६.२०: वि संघयणे पण, तंबहा--
व रोसम-णाराय-संघयणे, उसभणाराय-संघयणे, णाराय-संघयणे, वणाराय - संघयणे, खो लिया संघयणे , विट्ट -संघयणे ।
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शरीर-मनोवैज्ञानिकों का मत -- शरीर-मनोवैज्ञानिकों ने हड्डी के जोड़ या संधियों के बारे में अनुसंधान किया है । सन्धियां (ART I CUL AT I ONS)- शरीर के कंकाल की रचना अनेक अस्थियों से मिलकर होती है । इसमें छोटी-बड़ी , लम्बी चौड़ी, चपटी गोल सभी प्रकार की अस्थियां होती हैं । ये वापस में विभिन्न स्थानों पर जुड़ती हैं जिससे शरीर का स्वाप तयार होता है । जहाँ कहाँ दो या दो से अधिक वस्थियां वापस में जूड़ती है, वहां जोड़ या सन्धि (20INT, JUNCT URE OR OSSIUM) बनती है।
-
-
छोटी --हा अस्थियों के इस प्रकार आपस में जुड़ने से शरीर को गति करने को पामता प्राप्त होतो है।
सन्धियों के भेद-- (K INDS OF 301 NTS)-- रचना के वाधार पर सन्धियाँ को तीन वर्षों में रखा गया है-- (१) सूत्रण-सन्धि (FIBR OUS POINTS) (२) उपास्थि -सन्धि (CART IL AG I NOUS JOINTS) (३) स्नेहक-सन्धि (SYNOVIAL JOINTS). सन्धियों के सात वर्ग-- अभिनव शब्दावली के अनुसार सन्धियों के सात वर्ग है(१) साधारण सन्धि (PLAIN DOINTS) (२) गोलाभ सन्धि (SPHER OID) (३) स्थुन काम सन्धि ( CONDYL AR JOINTS) (४) दीर्घ वृत्तीय सन्धि (ELLIPSOID POINTS), (५) चकक सन्धि (TROCHOID JOINTS) (६) पर्यणिका सन्धि (SELLER 20INTS) (७) कबा वर्षांत कोर सन्धि (1HI NGE- OR-G I NGLYMUS JOINTS) गति के आधार पर सन्धियों का वर्णोरण-- जिस स्थान पर स्थियां
१- शरीर-झ्यिा -विज्ञान, १९८४), पृ० १५६ :
. -डा0 प्रमिला वर्मा, डा० कान्ति पव्यि, -बिहार हिन्दी गन्थ कादमी, पटना ।
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आपस में सन्धि बनाती हैं, वहां पर वे गति के आधार पर संधियां तीन वर्ग की (१) अचल संधियां
(३) बबा धचल संधियां
थोड़ी बहुत गति करती हैं । इस प्रकार होती हैं :
·
(२) अल्प चल संधियां
अबाध चल संधियों के प्रकार -- अबाधचन संधियों के उदाहरण शरीर में सबसे अधिक है । उनके कई प्रकार हैं तथा रचना में भी थोड़ा बहुत अन्तर होता है । ये संधियां निम्न प्रकार की होती है- (१) कंदुक अलूखल संधि
(२) कौर संधि
(३) घुराग संधि
(४) संसपा संधि
इस प्रकार हनन नामकर्म तथा शरीर वैज्ञानिकों के संधियों के वर्गीकरण है ।
पर्याप्त नामकर्म योनि स्थान में प्रवेश करते ही जीव वहां अपने शरीर के योग्य कुछ पुद्गल वर्गणाओं का ग्रहण या आहार करता है । तत्पश्चात् उनके द्वारा क्रमश: शरीर, श्वास, इन्द्रिय, भाषा व मन का निर्माण करता है । यद्यपि स्थूल दृष्टि से देखने पर इस कार्य में बहुत काल लगता है पर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर इस कार्य में एक अन्तर्मुहूर्त पूरी कर लेता है। उन्हें ही उसकी छह पर्याप्तियां कहते हैं। चारों तरफ से प्राप्ति को पर्याप्त कहते हैं । 'जिसके उदय से आहार बादि पर्याप्तियों को रचना होती है, वह पर्याप्त
-3
1. Human Anatomy And Physiology- Page 49. MIR Publications, Moscow, (1982). २- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, माग ३, पृ० ३६
३- गोम्मटसार जी वकाण्ड, जीवतस्त्व प्रदीपिका, २२१६: मरिसमन्तात्, आाप्ति पर्याप्ति शक्ति निष्पतिरित्यर्थः ।
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नाम कर्म है । - - - जो छह प्रकार की पर्याप्तियों के भाव का हेतु है, वह वपर्याप्ति नाम कम है ।१
'बाहार, शरीर, इन्द्रिय वादि के व्यापारों में अर्थात् प्रवृत्तियों में परिणमन करने की जो शकियां हैं, उन शक्तियों के कारण जो पुद्गल स्कन्ध है, उन पुद्गल -स्कन्यों की निष्पति को पर्याप्ति कहते हैं । २ ‘आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन: पर्याप्ति-- ऐसे छह पयाप्ति कहां है ।
गर्म-विज्ञान-- 'स्त्रों के उदर में शुभ और शोणित के परस्पर गरण अर्थात् मित्रण को गर्म कहते हैं अथवा माता के द्वारा उपमुक्त बाहार के गरण होने को गर्म कहते हैं । ४ 'माता का रुधिर और पिता का वीर्यप पुद्गल का शरीर प गहण कर जाव का उपज ना तो गर्भ जन्म है । ५
१ - सवधि-सिसि, ८।११।३६२।२: यदुदयाहारादिपयाप्तिनिवृति: तत्पर्याप्ति -
नाम। - - - षविध पर्याप्त्यमावहतरपर्याप्तिनाम । २- कातिझ्यानुधाा, १३४-३५: बाहार सरीरी दिणि सासुम्सास - मास
मणसाणं । परिण: वावारेसु य जाओ छच्चेव सची को ।। १३४।। तस्सेव
कारणाण पुग्गल संधान बाहु णिप्पती ।। १३५ ।। ३ - मूल-आराधना, १०४५ : आहारे य सरारे ---- जिणमादा । ४- सर्वार्थसिद्धि- २।३१।१७।४: स्त्रिया उदरे शशोणितयोगरण मिश्रण गर्भः ।
मात्रुपभुक्ताहार गरणादा गर्मः । ५ - गोम्मटसार जी कांड जीवतत्व पदी पिका, ८३।२०५।१:
बायपान जावेन शोणितप पिण्डस्य गरण शरीरतया उपादनं गर्भः ।
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जोन का गर्भ-प्रवेश- श्रीमद् भागवत् में कहा है- 'जीव प्रारब्ध-कर्मवश देह-माप्ति के लिए पुरुष के वीर्य कण के बाश्रित होकर स्त्री के उदर में प्रविष्ट होता । १ आयुर्वेद के विभिन्न ग्रन्थों के वाधार पर जीव के पूर्व +मों के अनुसार गर्भ-मृवेश का वर्णन स प्रकार उपलब्ध होता है- 'यह आत्मा जैसे शुभ-अशुभ कर्म पूर्व जन्म में संचित करता है,उन्हों के वाधार पर इसका पुनर्जन्म होता है और पूर्व देह में संस्कारित गुणों का प्रादुर्भाव इस जन्म में होता है। गीता के ठे अध्याय में योगिराज कृष्ण ने इस बात की पुष्टि की है
__ तत्र तं बुद्धि संयोग लमते पौर्वदेहिकम् ।
इसी कारण इस संसार में हम किसी को सुन्दर, किसी को कु-प, किसी को लुला, किसी को लंगड़ा, किसी को अंधा, किसी को काना देखते हैं । इसी प्रकार को जाय किसी महापुरुष के पर जन्म लेता है तो कोई किसी अधम के घर उत्पन्न होता है । कोई ऐश्वर्यशाली के घर जन्मता है तो कोई अकिंचन कुटीर में पलता है । यह विविधता पूर्वकृत कर्म से होती है जिसे कि देव के नाम से कहा जाता है -
'पुर्वजन्मकृतं कर्म तवमिति कथ्यते ।'
वात्स्यायन के अनुसार पुर्वकृत कर्म के फल से नए शरीर का निर्माण होता न दर्शन में कनिमित्त शरार-निर्माण को प्रति-पति मान्य है । गौतम ने पुक्षा मंत । जो प्राणी भाले जन्म में उत्पन्न होने वाला है, क्या वह सायुष्क संक्रमण करता है या निरायुष्क?
१- श्री मद्भागवत, ३।३१।१: ग० पु० सा०, ६५: कर्मणा देवनेत्रण अन्तर्देहो
पच्ये । स्त्रियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेत: कणाश्रयः ।। २- सुतुत, शा० २।२५: कर्मणा चोदितो येन यदाप्नोति पुनवे ।
अभ्यस्ता: पूर्वदेहे ये तानेव पणते गुणान् । ३. न्याय दर्शन वात्स्यायन भाष्य ३॥रा५६-६०, पृ० २६३
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भगवान् गौतम ! यह सायुष्क संक्रमण करता है, निरायुष्क संक्रमण
नहीं करता ।
गौतम -- पंते । वह आयुष्य का बंध कहीं करता है?
भावान् -- वह वायुष्य का बंध पूर्वंभव में कर लेता है ।
जीव का गर्भवास -
"
गरुड पुराण सारोद्धार में तथा भागवत में जीव के गमावास का वर्णन इस प्रकार उपलब्ध है- माता द्वारा मुक्त बन्न यानादि से बढ़ा है रस, रक आदि धातु जिसका, ऐसा प्राणी असम्मत अर्थात् जिससे दुर्गंध जाती है जिसमें जीव का सम्भव है विष्ठा और मुत्र के गर्त में सोता है । सुकुमार होने के कारण गर्त में होने वाले भूखे कड़ों के काटे जाने पर प्रतिक्षण उस क्लेश से पीड़ित हो मूर्च्छित हो जाता है । माता से खाए हुए कहुवे, तीक्ष्ण, लवणीय ले और खट्टे बादि उल्बन पदार्थसे हुए जाने पर रंगों में वेदना होती है, तथा जरायु और आत के बंधन में पढ़ कर पीठ ग्रीवा के लचकने से कांख मँसिर करके पिंजरे के पक्षी के समान अंगों के चलाने में असमर्थ हो जाता है । वहां देव योग से सो जन्म की बात स्मरण कर दार्घ श्वास लेता है । अत: कुछ भी सुख नहीं । संतप्त और भयभीत जीव धातुरूप सांत बन्धनों में पड़कर तथा हाथ जोड़कर जिसने इस उदर में डाला है, उसकी दो न वचनों से स्तुति करता है । रे
१- भगवती, ५. ५६ ६० : जावे णं ते! जे भविर नरेइरस उववज्जितर, से
भते । किं साउर संकपाक ? निराराउर संकमक ?
!
गोयमा ! साउए संकमर, नो निराउर संकमध ।।५६ ।।
से णं ते! बाउ कहिं कडे? कहिं समाहणे ?
गोमा । पुरिमेवे कडे, पुरिमे वें समाहरणे | ||६||
२- (क) श्रीमद्भागवत, ३।३१, ५६९१ (ख) गुरुडपुराण सारोदार, ६ ६ . १६
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चरक संहिता में शरीर-रचना-- चक संहिता के शरीरस्थानक में शरीरसंरचना के विषय में लिखा है- 'सबसे पूर्व मन पी कारण के साथ संयुक्त हुवा वात्मा धातुगुण के ग्रहण करने के लिए अथवा महाभूतों के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है । वात्मा का जैसा कर्म होता है और जैसा मन उसके साथ होता है, वैसा ही शरीर बनता है, वैसे ही पृथिवी आदि मृत होते हैं तथा अपने कर्म दारा प्रेरित किये हुए मापी साधन के साथ स्थूल शरीर को उत्पन्न करने के लिए उपादानभुत भुतों को गहण करता है ।
यह आत्मा हेतु, कारण, निमिच, कना, मन्ता, बोधयिता, बोदा, दृष्टा, पाता, सा, विश्व कर्मा, विश्वरूप, पुरुष प्रभव, वव्यय, नित्यगुणी, भूतों को ग्रहण करने वाला प्रधान, अव्यक, जीवज्ञ, प्रफुल, चेतनावान, प्रभु, भूतात्मा, न्य, ना वोर अन्तरात्मा कहलाता है ।
यह जी व गमाशय में अनुपविष्ट होकर + बोर शोणित से मिलकर अपने से, अपने को गर्भ .प में उत्पन्न करता है, अतएव गर्भ में इसकी बात्मसंज्ञा होती
------------- १- चरक शा० ४।४:
तत्र पूर्व चेतनाधातुः सत्वकरणो गुणगुणाय पुनः प्रवर्तते । स हि हेतुः कारण निमितमतारं कर्ता मन्ता बोधयिता बोधा दृष्टा, धाता बला विश्वकर्मा विश्वरूप: पुरुष: प्रभवो बव्ययों नित्यो गुणी गर्जा प्राधान्यमव्यक्तं जीवो ज्ञ: प्रकुलश्चेतनावान् प्रभुश्च मृतात्मा चेन्द्रियात्मा बान्तरात्मा
चेति । २- चरक शा०, ३।१२: स (आत्मा) गर्भाशयमनुपविश्य शक शोणिता म्यां
संयोगमैत्व गर्भत्वेन जनवत्वात्मनात्मानम् आत्मसंज्ञा हि गर्ने ।
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जन्म
प्राण ग्रहण करने को जन्म कहते हैं । १ जन्म तीन प्रकार का होता है -- सम्पूच्छेन, गर्भज और उपपात । २ स्त्री पुरुष के संयोग से होने वाले जन्म को गर्म कहते हैं । ३ संयोग निरोप तथा बाहरी वातावरण से योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर अनियत स्थान में उत्पन्न होने वाले सम्पृच्छन कहलाते हैं । ४ देवता और नारकी के जन्म को उपपात कहते हैं । वे अन्तर्मुहर्त में युवा हो जाते हैं । मनुस्मृति के अनुसार राक्षसों का जरायुज जन्म होता है । ६
चर प्राणियों के माठ भेद होते हैं -७ (१) गण्डन, (२) पोतज (३) जरायुज, (४) रसन, (५) संस्वेदज, (६) सम्मूर्च्छिम, (७) उद्भिज्ञ (८) उपपात ।
८
यद्यपि गर्मव्युत्कान्ति के समय ही जन्म हो जाता है लेकिन वह प्रच्छन्न होता है । केवल जरायुज, अण्डज और पोतज जीव के ही गर्म होता है । मनुस्मृति में केवल जरायुज को गर्भज माना है । गर्भज जोव मनुष्य और संगी तिच
पंचेन्द्रिय हा होते हैं ।
१०
१- भगवती आराधना, २५। ८४ । १४
२- तत्वार्थ सूत्र, २।३१
सम्पदा जन्म, तवार्थसिद्धि,
ས
३ - स्वार्थ सिद्धि, २।३१।१८७।४ ।
42.
४- स्थानांग टीका |
५- सूत्रपाहु, जैन सिद्धान्त दो पिका, ३।१६
६ - मनुस्मृति, १1४३
७ - स्थानांग, ८।१ बट्ठ विधे जाणिसंग हे पण्णचे, तं जहा- अंडगा, पीतगा, जर उजा, रजा, संसेयगा, संमुच्छिमा उभिगा, उव्यातिया । जरायुजाण्डजपतानां गर्भः ।
८- तत्वार्थ सूत्र, २।३३
६- मनुस्मृति, १।४३
१०- ठाणं २२५३
,
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गर्भ शब्द का जी-
गर्म शब्द ओक अर्थों में प्रयुक्त होता है-- भ्रूण, शरीर का जन्म, शुक्र और शोणित का अनुबंध, मांसपिंड, शिशु, कुति, नाटक की संधि, फल, आहार, घर के अन्दर का भाग, कटहल का कांटेदार छिलका, कमल का कोश इत्यादि । टीकाकार अभ्यदेव तुरि कहते हैं-- सजी व पुद्गल पिण्ड का नाम ग है । वैदिक मान्यता के अनुसार जीव के संचित कर्म के फलदाता ईश्वर के आदेशानुसार प्रकृति द्वारा माता के जटर गह्वर में पुरुष के शुक्र का स्थापन गर्भं है ।
गर्भाधान-
43
वैदिक धर्म के अनुसार धार्मिक क्रिया के साथ पुरुष स्त्री की योनि में वीर्य स्थापित करता है, वह गर्भाधान कहा जाता है । इसी प्रकार जब रज पुरुष के संयोग से मिश्रित होकर स्त्री की कोशाकार योनि में प्रवेश करता है तब गर्भाधान होता है । दिगम्बर ग्रंथों में ५३ क्रियाओं में गर्भान्विय- गर्भाधान कौ पहला संस्कार कर्म ५
स्त्री और पुरुष का सहवास होने पर भी गर्भधारण नहीं हो सकता, इसका बहुत विस्तृत विवेचन स्थानांग सूत्र में मिलता है-
१- पूर्ण युवती होने से,
२- विगत यौवना होने से,
३- जन्म से ही बच्चा होने से,
४- रोग से स्पृष्ट होने से,
१- मट्टी, ५. टोका ।
२- हिन्दू धर्मकोश, पृ० २२८ ४- तंदुलवैचारिक प्रकार्णांक, ११
५- महापुराण, ३८।५१-६८
३- वही, पृ०२८८
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५- शोकास्त होने से,
६- सदा तुमती रहने से, ७- कभी ऋतुगली न होने से, - गर्भाशय नष्ट हो जाने से, ६- गर्भाशय की शकिपीण हो जाने से, १०- उप्राकृतिक कामको डा तथा अधिक पशुन सेवन करने से । २ ११- ऋतुपाल की निश्चित सीमा तक पुरुष सहवान न रहने से, १२- समागत शु पुद्गलों के विध्वंस्त हो जाने से, १३- पित्तप्रधान शोणित के उदोण हो जाने से, १४- देवपयोग
१५ - पुति कर्मों के उदय से । ३
पा गट ने आयुर्वेदिक दृष्टि से विषय में विस्तृत विवेचन किया है ।
१- ठTrip . १८४: पंचा ठाणे हि त्था पुरिलैण सद्धिं संवसमाणा वि गर्भ
णो धारेजा, तं नहा- (१) अप्पयोधणा, (२) अतिक्तजोव्वणा, (३) जातिपंझा, (४) गेलण्णपुट्ठा, (५) दाममण सिया-- इच्चेतेहिं पंचा ठाणे हिं
इत्थो पुरिण- सद्धिं तव समाणा विगम णो धारेज्जा । २- ठाणांग , ५ . १८५ : पृ० ५७७ : -- पंचाह ठाणे हि इत्थी पुरिलैण उद्धि समसंवाणीव णो गव्म धारेज्जा
तं जा-- १- णिच्चोउमा २- अणोउया (३) पाणणतोया ४- वाविसोया, ५- अगंगपविणी । ___ -- [च्चता पंचहि ठाणे हि त्या पुरिसेण सद्धि
संवसमावि गभं णो धारेज्जा । ३- ठाणांग, .. १०६ ४- अष्टांग दव, १।८-११, २२
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गर्म प्रवेश के समय जीव को स्थिति के बारे में पत्त करते हुए गौतम ने पृथा-- भगवान् । णा व गर्भ में आते समय न्द्रिय रहित होता है या न्द्रिय सहित? मावान ने कहा- इन्द्रिय सहित भी आता है और इन्द्रिय रहित भो । इसका कारण बताते हुर महावीर ने कहा कि गभाधान के समय जीव के द्रव्येन्द्रियां नहीं होती, भावेन्द्रियां होती है।' व्यन्द्रिया बिना आहार के निर्मित नहीं हो सकतों । इसी प्रकार शरीर के बारे में उपर देते हुए कहा कि औदारिक, वकिय और आहारक शरीर नहीं होता किन्तु तेजस और कामण शरीर होता है । गर्भस्थ जीव के बारे में इतना सुक्ष्म और सैद्धान्तिक विवेचन और कहीं नहीं मिलता ।
इस विषय में आधुनिक शरीरशास्त्रियों की खोज एवं प्रयोग बहुत महत्वपृण है । स्त्री का f/ तथा पुरुष का मिला र २ को शिका बन जातो ६ जिसमें वंशानुगत सभा गुण रहते हैं । उस को शिका के आधार पर ही व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। गर्भ के बालों का रंग, आंखें, त्वचा, लम्बाई, ठिगनापन, मोटापन या दुबलापन, मुर्तता या बुद्धिमा, आयुष्य, आ-उपांगों की रचना आदि सभी तत्व उसमें निहित रहते हैं । इस प्रकार वैज्ञानिकों के अनुसार यह प्रथम तण बहुत महत्वपूर्ण होता है ।
१- भगवती, १।३४०-४१
गौयमा । सिय सई दिर वक्फम । सिथ ऑण दिर पक्कमह ।।३४०।। गोयमा । दविंदियाईपहुच्च अणिंदिर वक्कम । मा विदियाई पडुच्च सइंदिर वकामह । तै तेणढेणं गोयमा । एवं वच्चर - सिय सई दिर वकमा । जिय अणि दिर वक्कम ।। ३४१ ।। २- भगवती, ११३४२-४३ गोयमा । सिय ससरोरी वकमा सिय रीरी
वक्कम ।।३४२।। गोयमा । ओरालिय-वेउव्विय-माहारयाई पडुच्च असरी रो वयम । तेया+म्मा पहच्च सररोरी वामा । से तेणढेणं गोयमा ।
एवं पुच्चए-सिय ससरीरी व | सिय अरोरी वम ||३४३।। 3. Mind Alive, P. 37.
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इस प्रकार समाधा-1 का तुलना पाप्तियों से तथा फर्म पत्तियों से का जा सकता है । ५५ वर्षो बाद स्त्री की योनि गर्भाधान के योग्य नहीं रहता तथा ७५ वर्ष बाद पुरुष का वो ये भो ही न हो जाता है ।
गर्भाधान की पूरी प्रझ्यिा आयुर्वेदिक गंधों - अष्टांगहृदय, २ चरकरे और सुदुत में दी गयी है । गर्भाधान के बारे में सुश्रुत का मत है कि दो स्त्रियां भी यदि आपस में मथुन .. तो उनको रज संयोग से गर्भधारण हो सकता है । इसके अतिरिक्त यदि कोई ऋतुस्नाता स्त्रो स्वप्न में मथुन करती है तो मी उसके जार्तव को वायु पार गरिन में गर्म पैदा कर देता है । दोनों गर्मों में पिता के गुण अर्थात् हड्डा, मुं, दाड़ी, नस आदि नहीं होते ।
गर्म के प्रकार
गर्भ चार रूपों में निष्पन्न होता है- स्त्री , पुरुष, नपुंसक तथा पि (मांसपिण्ड)।७ को अपिता से पुत्र, रज या ओज की अधिकता से पुत्री, ----------------- १- तंदुविचारिक काh, १३॥ १४ २- अष्टांग हृदय, १।३२-३६ ३- चरक, १२३ ४- सुश्रुत, ३।१३
५- वही, २।५० ६- सुश्रुत, २०५१ ७- ठाणं, ४. ६४२, जैन विश्व भारतो, लाडनूं (राजस्थान)
चचारि मणुस्सी गव्मा पण्णचा, तं जहा
इत्थितार, पुरिसचार, णपुंसगतार, पितार । ८- वही, ४.६४२।१-२ :
अप्पं सुक बहुं ओयं, त्या तत्थ पजायति । बप्पं ओर्य बहुं सुकं पुरिसो तत्थ जायति ।। दोईपि रचतुक्काण, तुलभावे णपुंसओ । इत्थी-बोय समायोगे बिष तत्थ पजायति ।।
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दोनों की मात्रा समान होने से नपुंसक तथा वायु विकार से औज के जम जाने पर विम्ब (मांसपिण्ड) पैदा होता है । जैसे- मालोढ़ा । मनुस्मृति,२ चरकसंहिता, २ अष्टा इ. गहृदय तथा सुश्रुत में भी इसी मत की पुष्टि की गयी है। मनुस्मृति में इसका एक कारण और बताया है कि स्त्री के मासिक धर्म के बाद समरात्रियों में सम्भोग होने से पुत्र तथा विषम में पुत्री पैदा होती है। । मोज ने इसका वैज्ञानिक कारण बताते हुए कहा है कि मासिक धर्म के सम दिनों में रज काम होता तथा विषम दिनों में उसकी वृद्धि हो जाती है इसलिए सम दिनों में संयोग से पुत्र तथा विषम दिनों में कन्या को उत्पचि होती है ।
संदुलवैचारिक प्रकोण में स्थान के आधार पर भी इस विषय में विचार किया है । दाहिनी क्षि में उत्पन्न होने वाला गर्भ पुरुषप में, बायो में बसने वाला जीव स्त्री तथा कुक्षि के मध्य भाग में रहने वाला नपुंसक होता है । इसी बात का सुश्रुत में विस्तार से पणन मिलता । पाश्चात्य विनों ने मा कहा है कि स्त्री के जोश के दाहिने माग में ऐसे पदाधों की स्थिति रहती :: जिसमें पुत्र उत्पन्न करने का शक्ति होता है तथा बारंभाग में केन्या उत्पन्न करने का शॉक वाला पदार्थ रहता है । १० आधुनिका वैज्ञानिकों के आधार पर भी मृण के लिंग का निर्माण पिता के शक पर आधारित है | Y को मोसोम से पुत्र तथा x को मोसोन से लड़की पैदा होती है। माता के रण में केवल x को मोसोम होता है तथा पिता के शुभ में x और Y दोनों होते हैं । जब माता के x तथा पिता
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१- तंदुलवचारिक प्रकी णक- २२-२३ २- मनु०, ३।४६ ३- चरकसंहिता, २।११ ४- अष्टाइगहृदय, ११५-६ ५- सुश्रुत, ३।१० ----
६- मनुस्मृति, ३।८ ७- सुभुत, ३।१०, पृ० २१ ८- तंदुलवचारिक प्रकोणक, १६ ६- सुश्रुत, ३।३२, पृ०२७ . १०- हिन्दी शब्दसागर, पृ० १२४४
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का संयोग होता है तब पुत्र तथा दोनों के x x संयुक्त होने पर पुत्री पदा होती
एक जापानी वैज्ञानिक के अभिमत से गर्भवती स्त्री अने संकल्प-पल से गर्भ के मृण को पुत्र या कन्या में परिणत कर सकती है । गर्भधारण के दो महीने के मी तर रात को जब तक नींद न आर, तब तक सोचती रहे कि “मुझे लझा होगा" “मुझे लफ़ा होगा - ऐसा करने से उसे पुत्र उत्पन्न हो सकता है । इस प्रयोग से २००० स्त्रियों में से १६५० स्त्रियों के पुत्र उत्पन्न हुए । इसी प्रकार लिंग भेद के बारे में एक पाश्चात्य विधान ने अनेक प्रयोग छोटे प्राणियों पर किये कि पुष्टिकर भोजन करने से स्त्री तथा मुष्टिकर भोजन से पुरुष पैदा होता है। उनका अभिमत है कि यह प्रयोग स्त्रियों पर भी सफल हो सकता है ।३
प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु के अनुसार उचरी हवा चलते समय गर्भाधान हो जार तो वह बच्चा पुत्र “प में पैदा होता है । इसके अतिरिक और भी अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं लेकिन वे तक की कसोटा पर सही नहीं उतरतों : उनको यहां प्रस्तुत नहीं किया गया ।
स्त्री के गर्भ की भांति उपग के मा चार प्रकार के गर्मों का उल्लेख मिलता है-- १- ओस, २- मिहिका-सुहासा, ३- अतिशो त, ४- अतिउष्ण । दूसरे प्रकार से भी, चार मेद किये गये हैं-- १- हिमपात, २- आकाश का बादलों से ढके रहना, ३अतिशी तोष्ण, ४- गर्जन, विद्युत्, जल, वात का संयुक्त योग । ये चारों गर्भ क्रमशः माघ, फागुन, चत्र तथा वैशाख के महीने में होते हैं ।
........... १- Mind Alive, P. 37. २- होमियोपैथिक पारिवारिक चिकित्सा, पृ० ६६६ ३-The Ascent of Man, P. 114-115. ४- ठाण, ४।६४०-६४१ गा० १
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गर्भ का उत्पति स्थान- योनि--
गर्भ के उत्पत्ति-स्थान को योनि कहते हैं । ठाणे सूत्र में योनि तो न प्रकार की बतलाई है-१
१- कूर्मोन्न. -- कार के समान उन्नत । इसमें अर्हत् चश्वतों जैसे उत्तम पुरुष उत्पन्न होते हैं ।
२- शंखावत-- शंख के समान आवर्त वाली । इस योनि में अन जो व उत्पन्न होते हैं लेकिन निष्पन्न नहीं होते । अर्थात् एसयोनि में बच्चा पैदा करने की योग्यता नहीं होती।
३- वंशी पत्रिका-- बांस को जाली के पत्रों के आकार वाली । यह प्राय : सामान्य स्त्रियों के होती है तथा इसमें सामान्य व्यक्ति जन्म लेते हैं ।
इसके अतिरिक्त सभी प्राणियों की अपेक्षा से भी योनि के नौ भेद किये गये है ।२ ओता भेद से अण्डन, पोतज, जरायुज, संस्वेदज, सम्मुछिम और उद्भिज आदि बाठ योनियां होती हैं। इनमें गर्भस्थ जीव के बल अण्डा, पोतज और जरायुज । न ता न योनियों में हो जन्म लेते है ।४ ।
तंदुलपचार प्रकाण में योनि की रचना का उल्लेख मिलता है । स्त्री की नाभि के नीचे फूल की ईडी के समान आकार वाली दो नाझ्यिा होती हैं । उन दोनों नाटियों के निचले भाग में योनि होती है । योनि का मुख नोचे होता है तथा वाकार तलवार को स्यान के समान होता है । ५
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१- ठाण, ३११०३, प्रज्ञापना : २- ठाण, ३।१००-१०२ ३- वही, ८३
४- तत्वार्थ सुत्र, २६ ५- तंदुलवैचारिक प्रकीणक, गा० ६.
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आयुर्वेद के शब्दों में जैसे रोह मङ्लो का शिरा भो तर की तरफ विस्तृत तथा मुख की तरफ सकुंचित होता है, वैसे ही गर्भाशय का आकार होता है । १ सुश्रुत के अनुसार पिताशय और पक्वाशय के बीच गर्भाशय होता है । आधुनिक । वैज्ञानिकों के अनुसार गर्भाशय मुत्राशय बौर मलाशय के बीच में होता है । गभाशय के चारों ओर ती न आवरण होते हैं । यह आवरण रस और त्वचा से बनता है; इत्तरा स्नायुमंडल से तथा तोतरा बलामी त्वचा से बनता है । वैज्ञानिक जिस रूप में गर्भाशय की रचना का उल्लेख करते हैं वह तंदुलबचारिक से मिाता है ।
जीवोत्पत्ति की संख्या
___एक बार संभोग से स्त्री योनि में १, २ यावत् ६ लास जीवों की उत्पति होती । ।३ उनमें एक, दो या तीन निष्पन्न होते हैं । शेष समाप्त हो जाते हैं । वज्ञा निक खोजों के अनुसार वी य जन्तु एक इंच के ६००३ भाग के बराबर होता है । एक बार के संभोग से निकलने वाले वीर्य में इनकी संख्या करोड़ों तक की होती है । लेकिन स्त्री की डिम्-गन्थियों से एक मास में एक ही हि नि:सत होता है । उसके संयोग से ही गर्म की रचना होती है ।
गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की -- इतने जी व एक साथ उत्पन्न कैसे हो जाते हैं? महावीर ने कहा--'संभोग करने से रज संयुक्त पुरुष-वीर्य से स्त्री योनि में लाखों जीवों की उत्पत्ति हो जाती है । " भावता जोड़ में भी जथचार्य ने एक प्रश्न उठाया है कि मरत के सवा करोड़ पुत्र कसे हुर? स्वयं ही उत्तर देते हुर
१- गर्म विज्ञान, पृ० ३ २- नया स्वास्थ्य और दो घायु, पृ० ८४ ३- पावती २।८७, तंदुलवैचारिक प्रफी ण फ १२ ४- Mind ave, P. 17. ५- मग वती, शक
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जयाचार्य कहते हैं कि रु घिर बोर शुभ दोनों के मिलने से उत्कृष्ट नौ लाख गर्मज जो व उत्पन्न होते हैं । अन्त में उन्होंने कहा कि बहुश्रुत कहे वह सत्य है ।'
मछली आदि की योनि में र भार संभोग से ही २ लाख से लेकर ६ लाख तक जो व निष्पन्न हो जाते है तथा मछली एक ही भव में नौ लाख जो वों को उत्पन्न कर सती है । इतने जो व उत्पन्न होने पर भी निष्पन्न न होने का कारण बताते हैं हुए महावीर कहते हैं कि जैसे कई भरी नलिका में कोई तप्त शलाका डाले तो वह नष्ट हो जाती है, वसे ही संभोग से योनित जीव नष्ट हो जाते है ।
गौतम महावीर से जिज्ञासा करते हैं कि रक हो भव में एक पुत्र के कितने पिता हो सकते हैं? महावीर ने कहा-- एक ही पुत्र एक, दो, ती न यावत् नौ सौ पिताओं का पुत्र हो सता है । इसका स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार कहते है कि मानुषी या गाय बादि की योनि १२ मुह तक सचित रहती है । कोई दृढ़ संहनन वाला कामातुर स्त्री या गाय १२ मुह के भीतर ६०० पुरुषों से संयोग , करें, तो उसके गर्म से जो पुत्रउत्पन्न होगा, वह नौ सौ पिताबों का पुत्र होगा।
देवतावों के शक तो होता है लेकिन वकिय शरार होने के कारण वह गर्माधान का हेतु नहीं बनता । श्रुति परम्परा से सुना जाता है कि मानवी और देवता का संयोग होने से गर्भ केवल सात मास तक रहता है, उसके बाद नष्ट हो जाता है, किन्तु पदिक साहित्य में कf RT जन्म सूर्य के संयोग से माना जाता है तथा देवाग नामों की गर्मधारण का उल्लेख मिलता है । जैसे- मेनका से शकुन्तला की उत्पचि हुई । ऐसे बोर मी अने+उदाहरण मिलते हैं। ...
४
१- मावती जोड़, पृ०२५४ २- मावती, शE 1- वही, शर
- तंदुलवैचारिक प्रकी णक, १५ .
व भगवती, ५- मटी, पृ० १३४-१३५
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गांधान की कृत्रिम प्रकिया--
गमाधान की पद्धति दो प्रकार का है- स्वाभाविक और कृत्रिम । कृत्रिम पद्धति से बिना स्त्री-पुरुष के संयोग के भी गभाधान हो सकता है । स्थानांग में इसके पाच कारणों का उल्लेख मिलता है ।१
१- पुरुष का वी ये जहां पड़ा हो वहां अनावृत गुह्य प्रदेश से बैठी हुई स्त्री की योनि में यदि शुक पुद्गलों का प्रवेश हो जाय तो गर्भधारण हो सकता है।
२- पुरुष के वस्त्र जिसमें उसका वीय संसृष्ट हो, उस वस्त्र को पहनने से * पुदगल यदि योनि में प्रविष्ट हो जाये तो गर्भाधान हो सकता है ।
३- सन्तानोत्पति की इच्छा से स्वयं सने हाथों से स्त्री शक पुद्गलों को योनि देश में प्रविष्ट कराये तो गर्भ धारण हो सकता है ।
४. इसरों के द्वारा शुक पुगलों को योनि प्रदेश में प्रविष्ट कराने पर । विदेशों में आजकल यह प्रयोग बहुत चल रहा है । वैज्ञानिक लोगों ने तो यहां तक प्रयोग कर लिया है कि दम्पत्ति के शुभ और वो ये को किती तीसरी स्त्री को योनि में प्रक्षेप कर दिया जाता है, जिससे ६ मास का कष्ट न उठाना पड़े। पशु-पतियों पर मी कृत्रिम गर्भाधान के अनेक प्रयोग हुए हैं।
५- नदी, तालाब आदि जहां स्त्री और पुरुष स्नान कर रहे हों, वहाँ बनावृत स्नान करते हुए स्त्री की योनि में शुक्र पुद्गलों का प्रवेश होने से गर्म धारण हो सकता है।
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१- ठाण, ५।१०३
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इसके अतिरिक्त बिना स्त्री की योनि के हो वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक को थली में बच्चे को जन्म दिया ।यह प्रयोग १६ फरवरी सन १६४५ को कनाडा के । फांसीसी डाक्टर प्रोफेसर गेग ना न ने मनी प्रयोगशाला में किया । उन्होने स्त्री के रज तथा पुरुष वीर्य के जो वित परमाणुओं को एकत्रित किया । स्त्रो के खून में बच्चा बनने के योग्य कीटाणु मास में एक बार ही बनते हैं । उन्होंने इसका पता लगाने के लिये किलो का यंत्र बनाकर अनी स्त्री की कमर में बांध दिया । खुन में कीटाणु पैदा होते ही खून का रंग बदल गया । डा० मेगना न ने फारन यंत्र के माध्यम से उसे निकाल कर फिर अने वो य-कीटाणु के साथ उसे प्लास्टिक की थैली में रख दिया । रखते ही वे दोनों कीटाणु एकाकार होकर घली से चिपक गर । थली का आकार बतख के अंडे जसा था तथा लचकी ली होने से उसमें वृद्धि हो सकती था । उसके दोनों ओर दो छिद्र थे जिनमें दो नलियां लगाकर उनका सम्बन्ध दांयी बोर पाया तरफ विधमान थर्मोस जसो बोतलों से तथा बिजली के यंत्र से जोड़ दिया । उस थली को एक कांच की पेटी में सुरक्षित रख दिया । थर्मोस की शो शो को भांति पेटी में भी दुहरी दीवारें थी । उन दीवारों के बीच एक खास प्रकार का तेल भरकर उस पेटी के साथ बिजली का हीटर लगा दिया जिससे तल हर समय गर्म रह सके । बच्चे की खुराक के लिए मनो स्त्री का एक पौंड खून लेकर पाक्वता एक बोतल में मर दिया तथा दूसरी में चुने आदि आवश्य पदार्थ रख दिये, जो खुन के साध मिश्रित होकर बच्चे को खुराक बन सके । हर तीन चार सप्ताह के बाद वैज्ञानिक एक पौंड खून उस बोतल में भर देता । यह कम नौ मास तक चालू रखा । बच्चे की वृद्धि होने पर सुन की मात्रा भी बढ़ाई गई नौ मास पूर्ण होने पर बच्चे को थली से बाहर निकाला । उसका नाला काटा तथा स्त्री के स्तन में मी इंजेक्शन दारा दुध की उत्पति कर दी । वह बच्चा बड़ा होने पर जिन्दा रहा । यह वैज्ञानिक जगत की एक आश्चर्यजनक घटना थी लेकिन आज तो इस दिशा में विज्ञान बहुत आगे बढ़ गया है ।
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गर्भस्थ शिशु का आ निर्माण
जिस प्रकार भवन निर्माण के लिए अपदार्थों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार गर्भस्थ शिशु के मातज, पितृज, सात्म्यज, रसज और सत्वन आ होते हैं ।
मगवती सूत्र में गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा-- मंते ! गर्भस्थ जीव माता के कितने आ प्राप्त करता है? भावान् ने उत्तर दिया-- गौतम । जीव माता से तीन ग प्राप्त करता है-- मांस, शोणित और भेजा (मस्तिष्की य मज्जा) तथा पिता से भी तीन अंग ग्रहण करता है- अस्थि, अस्थि-पन्जा तथा बाल, (दादी, रोम, नख आदि) । २ शेष सभी अंग रज और वीर्य से बनते हैं ।३
चरक, सुश्रुत तथा अष्टांग हृदय में इसका विस्तृत विवेचन मिाता है । इनके अनुसार मांस , शोणित, मेद (मस्तिष्कीय पन्जा) नाभि, हृदय, यकृत, प्लीहा, गुर्दे, वस्ति, आंतें बादि मृदु भाग माता से उत्पन्न होते हैं । केश, दाढी, लोम, अस्थि, नख, दांत, स्नायु, धमनी बार शक आदि स्थिर भाग पुरुष से प्राप्त होते हैं । इसके अतिरिक वायुर्वेद के अनुसार इन्द्रियां, नाना योनियों में जन्म आदि चेतना से सम्बन्धित हैं । मायु, पारोग्य, उपोग, उत्साह, कांति, बल, सात्म्य ले प्रादुर्भूत होते हैं । शरा र निर्माण, वृद्धि, बल आदि रसज है । इसी प्रकार सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण से विभिन्न प्रकार को मानसिक अस्थाओं का निर्माण होता है । चरक में इसका बहुत विस्तृत वण न मिलता है ।
१- मटी, पृ० १३४-१३५ २- मावती, ११३५०-५२, तंदुलवचारिक प्रकाण क,सु०. ६ ३- वही ।
___५- अष्टांग, ३।५-८, सुश्रुत, ३।३१ ४- घरक, ३।१०-११, सुश्रुत, ३।३० ६- चरक, ३।१३-२०, पृ० १६२८-४०
अष्टांग हदय, ३।४-५
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आधुनिक शरी रशास्त्रियों के अनुसार गर्भरचना में ४६ को मोसोम (गुणसूत्र) की आवश्यकता होती है । इसमें जो व २३ गुणसूत्र माता से तथा २३ गुणसूत्र पिता से ग्रहण करता है | विज्ञान भी वहां तक नहीं पहुंचा है कि कौनसा वा माता से बौर कौनसा ा पिता से ग्रहण करता है ।
गर्भावस्था की स्थिति--
सामान्यत: गर्म की स्थिति २७७ दिन की बताई गई है । किन्तु वात, पिच, कफ आदि के दोष से कम या अधिक दिन भी लग सकते हैं । २ आगमों में जहां भी गर्भवती स्त्री का वणन है, वहां महीने पूर्ण तथा साढे ७ दिन व्यतो त होने पर बा के जन्म का उल्लेख मिलता है ।
मावती सूत्र के अनुसार तिच को गर्म-स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त तथा उत्कृष्ट वाठ वष की बतायी गयी है। मनुष्य को गर्भ स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट बारह वष को है ।" काय भवस्थ की गर्भ स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्व तथा उत्कृष्ट चौबीस वर्ष की है। इसका स्पष्टीकरण करते हुये टीकाकार कहते है कि कोई जी व गर्भ में बारह वष बिताकर मर जाता है, फिर जन्म लेकर बारह वर्ष और रहता है, वह कायभवस्थ वधिक से अधिक चौबीस वर्ष तक गर्भ में रह जाता है । टीकाकार ने कायमवस्थ के बारे में एक बोर मत का उल्लेख करते हुए कहा है कि कोई जीव बारह वर्ष तक गर्म में निवास करता है, फिर मर कर किसी अन्य पुरुष के संयोग से उसी माता के शरीर में १२ वर्ष और रहता है
8- Human Anatomy and Physiology- MIR, MOSCOW. २- तदुलवचारिक प्रकीण क-- ४ ५- वही , २२८३, ३- मावती, १९६१४६, ज्ञाता० १।१।७३ तदुल वैचारिक प्रकीर्णक गा० १५ ४- माक्ती, २२
६- भगवती, श८४
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वह मी कायमवस्थ कहलाता है । इसी प्रसंग में उदक-पानी के गर्भ की स्थिति मो जघन्य एक समय बोर उत्कृष्ट ६ मास बतायी गयी है । २ शरीर विज्ञान के अनुसार गर्म की सामान्य स्थिति २८० दिन की मानी जाती है । योनिभूत वो ये की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त तथा उत्कृष्ट बारह मुहूर्त होती है। विज्ञान के परीक्षणों के अनुसार वीय कीटाणु योनि में २४ घंटे तक जो वित रह सकते हैं तथा गमाशय ग्रीवा पर ७२ पटे तक चलते हुए देखे गये हैं। दिगम्बर आचार्य के अनुसार संभोग के सात दिन बाद भी गर्भ की स्थिति रह सकती है तथा स्वयं व्यक्ति मर कर भी सनी पत्नी के गर्भ में उत्पन्न हो सकता है । यह बात तक संगत प्रतीत नहीं होती ।६
गर्मस्थ जीव का आसन-- गर्भस्थ जीव गभाशय में उत्तानपाद, पार्श्वशायी या वामृकुटज बासन की स्वस्था में सस्थित रहता है । वह माता के सोने पर सोता है, तथा जागने पर जागता है । प्रसवण के समय कुछ जीव सिर की ओर से तथा कुछ पर के बल पर जन्म लेते हैं तथा जो तिर्यक् स्थिति में बाहर निकलते हैं, वे प्राय: मर जाते हैं। जीव जब स्त्री की योनि से बाहर निकलता है तब रुदन करता है तथा माता को अत्यन्त वेदना होतो है ।
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गर्भस्थ शिशु का वाहार और नो हार-- आहार और जीवन का पनिष्ठ सम्बन्ध है। बिना बाहार के प्राणी विकसित नहीं होता, जीव जब गर्भ में व्युत्तांत
१- मटी, पृ० १३३ २- पावती, श८१ ३- Mind Alive, P. 40. ४- भगवती, श५ ५- गर्भविज्ञान, पृ० २५
६- यशोधराचरित्र, पृ० १०६ ७- मावती, १।३५७, तंदुल गा० १६ ८- मगवती, १।३५७ ६ - तंदुलव चारिक प्रकीर्णक,गा० २६
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होता है तब माता का बोज तथा पिता के वीर्य का संयुक वाहार ग्रहण करता है । गर्भस्थ होने के बाद माता जो भी बाहार ग्रहण करती है, उसका बोजप बाहार शिशु गहण करता है । गर्भगत जी व मुख से बाहार गहण नहीं करता । वह सभी ओर से प्रतिताण आहार गहण करता है, परिण मन करता है, तथा उच्वास औरनिःश्वास लेता है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार मी योनि में नमक और शकरा का द्रव मरा होता है जिससे गर्भ आचुषण किया दारा अपना पोषण करता है । यह किया चार सप्ताह तक चलती है, उसके बाद रकवाहिनियों वार नाल का निर्माण होता है ।
__ भगवती वाराधना के अनुसार दांत से चबाया तथा कफ से गीला माता के द्वारा मुक्त वाहार उदर में पिच मिलने से कड़वा हो जाता है । वह कड़वा अन्न एक-एक बूंद करके गथ बालक पर गिरता है । वह उसे सर्वांग से ग्रहण करता है । आधुनिक भाषा में इसे रालड़ी कहा जाता है । शिशु के पोषण के लिए दो नाल होती है-- नाता की रसहरण। अथात नाभिका नाल तथा पुत्र रसहरणी । माता की नाल दारा रस-गहण तथा परिण मन किया जाता है, वह नाल माता के शरीर के साथ प्रतिबद्ध होती है और गर्भस्थ शिशु से स्पृष्ट रहती है । दूसरी गर्भस्थ शिशु की नाल या नाही शिशु के शरीर के साथ प्रतिबद्ध तथा माता के शरीर से स्पृष्ट रहती है । इस नाड़ी से शिशु शरीर की पुष्टि करता है । इस नाड़ी. का वर्णन वायुर्वेदिक ग्रन्थों में मी मिलता है । दिगम्बर गंथों के अनुसार यह सातवें महीने में पैदा होती है जिससे शिशु आहार ग्रहण कर मना पोषण करता
१- भगवती, ११३४४ २- वही, १२३४५ ३- वही, ११३४८ ४- वही, ११३८ ५- Mind Alive,
६- भगवतो आराधना, १०११-२०१६ ७- माक्ती , १।३४६ ८- सुश्रुत, ३।२६, चरक ६।२३
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है ।१ वशानिकों के अनुसार भी बच्चे और माता के बीच खून का संचार नाभिनाल बारा ही होता है, लेकिन यह नाल प्रथम मास के अन्त में बनती है। इसी नाल के सहारे भृण गर्भाशय की दीवार से लटका रहता है तथा इसी से माता और गम के हृदयों का सम्बन्ध स्थापित होता है ।
आधुनिक शरीरशास्त्रियों ने गर्भनाल के निम्न कार्य तार हैं:
१- माता का रक तथा आक्सीजन पृण तक पहुंचाता है, तथा पोषण का काम करता है।
२- भृण के शरीर में उत्पन्न हुई कार्बनडाइआक्साइड तथा चयापचय से उत्पन्न त्याज्य पदार्थ माता के रक्त में वापस लौटता है ज्यात उत्सर्जन का कार्य करता है।
३- बरोधक का काम करता है, माता के रक्त का विष भृण के शरीर में नहीं जाने देता ।
४- गर्मनाल में एक अंत:सावी रस या हारमोन बनता है, जो धूण की वृद्धि करता है ।
मावान् महावीर से पूछा गया कि क्या गर्भस्थ शिशु उच्चार प्रस्रवण अर्थात् नी हार करता है? महावीर ने उत्तर दिया-- गर्मशत जी व उच्चार प्रसवण श्लेष्म आदि का त्याग नहीं करता, क्योंकि वह जो भी आहार ग्रहण करता है वह उसके शरीर, इंद्रिय, अस्थि, वस्थिमज्जा, रोम, नस आदि के +प में परिणत हो जाता है ।५
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१- पावती वाराधना, १०१६ २- mind Alive, P. 39. ३- गम-विज्ञान, पृ० १६५-१६६
४- हिन्दी विश्व कोश, ३६८ ५- मा वती, ११३४७
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59.
मथुन का सेवन करने वाले व्यक्ति
तीन प्रकार के व्यक्ति मथुन का सेवन करते हैं:१- स्त्री २- पुरुष और ३- नपुंसक
वृतिकार ने स्त्री, पुरुष और नर्मुसक के लक्षणों का संकलन किया है, उसके अनुसार स्त्री के सात लक्षण है-- १- योनि, मृदुता, ३- अस्थिरता, ४- मुग्धता, ५- क्ली वता, ६- स्तन, ७- पुरुष के प्रति अमिलाषा ।
पुरुष के सात लक्षण है--३ १- लिंग, कठोरता, दृढ़ता, ४-पराम, ५- दाढ़ी और मुंडा, ६- धृष्टता, ७- स्त्री के प्रति अभिलाषा । नपुंसक के ये लपाण है:-४ १- स्तन और दाढ़ी-मूंछ कुछ अंशों में होते हैं, परन्तु पूर्ण विकसित नहीं होते । २- प्रज्वलित कामाग्नि ।
५- ठाणग, ३-१२, मथुन-पदः पृ० १५६ : -- तेवो मेहुण सेवंति, तं जहा--
त्थी, पुरिसा, णपुंसगा । २- स्थानांगचि, पत्र १००: -- योनि प्रदुत्वमस्थर्य, मुग्घत्वं क्लोक्ता स्तनों ।
पुस्कामितेति लिड्. गानि, सप्त स्त्री त्वे प्रचाते ।। ३- वही, पत्र १००:
मेहनं खरता दाढय शाण्डीय श्मश्रुधष्टता ।
स्त्री कामितति लिड्. गानि सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ।। ४- वही, पत्र १००
-- स्तनादिश्मनुकेशादि मावामावसमन्वितम् । ___ नपुंसक बुधाः प्राहर्मोहानलसुदी पितम् ।।
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चौरासी लाख योनि--
प्राणियों के उत्पति-स्थान ८४ (चौरासी) लाख है और उनके कुल एक करोड़ सचानवे लाख पचास हजार (१६७५००००) है । एक उत्पत्ति-स्थान में अनेक कुल होते हैं, जैसे- गोबर एक ही योनि है, उसमें कृमि-कुल, कोट-कुल, वृश्चिक-कुल वादि नेक कूल है । जैसेस्थान उत्पत्ति-स्थान
कुल-कोटि
G
१२ लाख
G
G
७ लाख
G
८ लाख
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<
१- पृथ्वी काय
७ लाख २- स्काय ७ लाख
७ लाख ३- तेज्सकाय
७ लाख ४- वायु काय ७ लाख
७ लाख ५- वनस्पति काय २४ लाख
२८ लाख ६- दीन्द्रिय २ लाख
७ लाख ७- त्रीन्द्रिय
२ लाख ८- चतुरिन्द्रिय २ लाख
६ लाख ६ - तिर्यंच पंचेन्द्रिय ४ लाख
जलचर- १२।। लाख खेचर- १२ लाख स्थलचर- १० लाख उर-परिस- ६ लाख
मुज-परिसर्प- ६ लाख १०- मनुष्य १४ लाख
१२ लाख ११- नारक
४ लाख
२५ लाख १२- देव ४ लाख
२५ लाख उत्पचि-स्थान एवं कुल कोटि के अध्ययन से जाना जाता है कि प्राणियों की विविधता एवं विभिन्नता का होना काम्भव नहीं ।
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शरीर-इन्द्रिय रचना एवं मानसशान--
प्रस्तुत आलाप में शरार-रचना और इन्द्रिय तथा मानस-ज्ञान के विकास का सम्वन्ध प्रदर्शित ह-१ जीव
बाल्य (स्थूल) शरीर इन्द्रिय-ज्ञान १- केन्द्रियऔदारिक
स्पर्शन ज्ञान (पृथ्वी, अ तेजस् वायु, वनस्पति) २- दीन्द्रिय औदारिक (अस्थि, मांस रसन, स्पर्शन ज्ञान ।
शोणित युक्त) ३- त्रीन्द्रिय
औदारिक (वस्थिमांस, पाण, रसन, स्पर्शन ज्ञान शोणित युक्त),
४- चतुरिन्द्रिय
औदारिक (अस्थिमांस, शोणित युक्त)
चतु, प्राण, रसन, स्पर्शन ज्ञान
५- पंचन्द्रिय
(तियंच)
श्रोत्र, चतु, प्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान
बोदारिक (अस्थिमांस, शोणित, स्नायु, शिरायुक्त)
औदारिक (अस्थि मांस . शोणित स्नायु शिरायुक्त)
६- पचेन्द्रिय
(मनुष्य)
श्रोत्र, चा, प्राण, रसन, स्पर्शन ज्ञान ।
... जीवों के शारीरिक इन्द्रियों की वृद्धि के साथ-साथ उनका मानस-ज्ञान भी बढ़ता जाता है।
१- ठाण टिप्पण, पृ०१२५ ।
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गर्भस्थ शिशु के विकास का कम--
गर्मगत जीव के विकास का कम अद्भुत है । आज तो विज्ञान ने टू-डी - अल्ट्रासाउंड यंत्र का विकास कर लिया है जिसके सहारे वी रियोस्की न पर गर्भस्थ बच्चे के विकास को पूरी प्रक्यिा देखी जा सकती है । इस यंत्र का आधार वति सुक्ष्म ध्वनि-तरंगें हैं जिनके आधार पर शि के प्रत्येक स्पंदन, स्थिति आदि फिल्म की भांति प्रत्यक्ष देखी जा सकती है । इस सारी प्रकिया को अब वीडियो कैसेट में स्थायी रूप से रिकार्ड किया जा सकता है । इसके आधार पर यदि १२ या १३ सप्ताह के गर्भ में कोई विकृति दिखाई देती है, तो उस स्थिति में निवारक कदम उठाए जा सकते हैं । लेकिन प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने बिना यंत्रों की सहायता के आने तीन्द्रिय ज्ञान से जो गर्भस्थ शिशु के विकास का वर्णन किया, वह आने काप में विलक्षण है ।
पकी ण क के अनुसार विकास का कम इस प्रकार है-- गर्भस्थ जीव प्रथम सप्ताह में कलल रूप में रहता है । दूसरे सप्ताह में अर्बुद रूप में, तोसरे में पेशी तथा चौथे सप्ताह में चतुष्कोण मांसपिंड के रूप में प्रक्ट हो जाता है।'
उसके पश्चात् दुसरे मास में वह मांसपिण्ड बढ़कर समचतुरल हो जाता है। वैज्ञानिक परीक्षणों के अनुसार तो दो मास के बच्चे का हृदय घलने लगता है । इस मास में मस्तिष्क तथा सुषुना तेजी से बढ़ती है, तथा उसके अवयवों की रचना आरम्म हो जाती है । इसी मास में लिंग के चिह्न प्रक्ट होते हैं ।२ तीसरे मास में माता को दोहद उत्पन्न होता है । शरीरशास्त्रियों के अनुसार तीसरे मास में मांसपेशियां तथा नाड़ी संस्थान का तेजी से विकास होता है । प्राय: समी अयवों की रचना पूर्ण हो जाती है । चौथे मास में माता के आ
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१- तदुलवचारिक प्रकोणक- गा० १७ सु० २ p- Mind Alive, p. 38.
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पुष्ट होते हैं। पांचवें में पांच अं (दो हाथ, दो पैर तथा सिर) उत्पन्न होते है। छठे मास में पिच और रक पुष्ट होता है । आधुनिक विज्ञान की खोज के अनुसार बेटे मास में बच्चा सवांगं पूर्ण हो जाता है । यदि इसी मास में जन्म हो जायें, उचित पोषण और वातावरण मिले तो वह जीवित रह सकता है । १
सातवें मास में ६०० नरों, ५०० पेशियां तथा धर्मानियां उत्पन्न होती हैं तथा सिर के बाल, दाढ़ी, मुंग आदि रोमकूपों को छोड़कर ६६००००० रोमकूप उत्पन्न हो जाते हैं । यदि सिर के बाल व दाढ़ी मुरों को गिनें तो साढ़े तीन करोड़ रोमकूप उत्पन्न होते हैं | आठवें मास में गर्भ प्राय: पूर्ण हो जाता है ।
भगवती आराधना के अनुसार प्रथम मास में गर्भ कलल, द्वितीय में अर्बुद, तासरे में सघन तथा चाध में मांसपेशी का रूप धारण कर लेता है। पांचवे मास में पांच मुख्य जपयन तथा टे में उपांग प्रकट होते हैं । सातवें मास में अवयवों पर धर्म रोम तथा आठवें में हिलना खुलना प्रारम्भ हो जाता है तथा दसवें मास में बच्चा बाहर आ जाता है।
आयुर्वेदिक शास्त्रों में एस विषय पर विस्तार से चर्चा की गई है । उनके अनुसार प्रथम मास में कलल तथा दूसरे मास में मांसपिंड के तीन आकार बनते है-- १- पिण्ड स्पेशा, ३- હનુમ पिंडकार से पुरुष, पेशी से स्त्री तथा अर्बुद से नपुंसक गर्म बनता है । ४ तासरे मास में पांच अवयव व्यक्त होते हैं तथा उपांग जव्यक्त रहते हैं । एस मास में भ्रूण को सुख दुःख का अनुभव होने लगता है । च मास में अंग प्रत्यंगों का विभाग व्यक्त होने लगता है। पंचम मास में चेतना को अभिव्यक्ति होती है। छठे मास में स्नायु, शिरा, रोम, नख, त्वचा आदि बनते है | सातवें मास में सर्वागि पूर्ण हो जाता है। आठवें और नवें मास में शरीर की पुष्टि होती है ।
63
- Mind Alive, P. 38-39.
२- तंदुलवैचारिक प्रका, सू० २ ३- भगवती आराधना, १००७-१०१०
४- अष्टांग, १।४६-५३, सुश्रुत ३।१५ ५- अष्टांग, १।५४-६८
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64.
गर्भस्थ जीव पर बाह्य वातावरण का प्रभाव--
गर्भस्थ जोव पर बास्य वातावरण का बहुत प्रभाव पद्धता है । यदि गर्भ में ही जी व मृत्यु अस्था को प्राप्त कर ले तो वाह्य वातावरण के अनुसार उत्पन्न विचारों के आधार पर ही स्वर्ग और नरक की प्राप्ति करता है । भगवती सुत्र में यह प्रसंग पंत रोचक और मननो य है । कोई गर्भवासी जीव जो संशी और पर्याप्त हो जाता है, उस समय किसी शत्रु की सेना का शब्द सुनकर वह पकिय शरीर को विसुर्वणा करके अने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकालता है और चतुरंगिणी सेना बनाकर शत्रु की सेना के साथ संगाम करता है । उस समय उसमें
राज्य: मोग तथा धन की इच्छा जागृत हो जाती है । उन परिणामों में वह वायुष्य पूर्ण करे तो नरक में जाता है । १
यह केवल कात्पनिक तथ्य नहीं है । महाभारत में भी एक प्रश्न मिलता है कि अभिमन्यु ने गर्भ में हा चक्रव्यूह भेदन की विथा सीख ली थी । माता को नाद आने से वह विधा अधूरी हो सो खो गया । इसी प्रकार संशी पचेन्द्रिय और पर्याप्तियां पूर्ण करने के पश्चात् वैक्यि-लव्धि और अवधिज्ञान के दारा किसी श्रमण से धार्मिक प्रवचन सुनकर वह उस पर श्रद्धा कर लेता है, तथा गर्भ में ही उसके स्वर्ग और मोत की इच्छा जागृत हो जाती है । कल्पसूत्र में भी महावो र के जीवन-प्रसंग में वर्ण, वाता है कि महावा र माता के कष्ट की कल्पना करके गमावस्था में निश्चल, निस्पन्द, शांत और स्थिर हो गए । ३
गर्म का हलन-चलन न देखकर त्रिशला दुःखा होकर आध्यान करने लगी । यह देखकर महावीर ने पुनः हलन-चलन प्रारम्भ कर दिया और उसी समय संकल्प लिया कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक प्रवृज्या गहण नहीं करूंगा ।
१- मावती सूत्र, ३५३-५४ २- वही , २५५-५६ ३-. कल्पसूत्र, ८७, तर ण समणे भगवं महावी रे मा उवणुकंपणट्ठाए निच्चले
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प्राचीन आगमों में ही नहीं बल्कि आज तो पज्ञानिकों ने भी इस पत्र में अनेक प्रयोग किये हैं। आज गर्भावस्था में ही टेप दारा शिशु को पढ़ाया जाता है।
... कलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मनो विज्ञान के प्रोफेसर डाक्टर नोवेल जांस ने लास एंजिल्स मेंर लाख २७ हजार से अधिक नवशिशुवों पर परीक्षण किया । उससे पता चला कि शान्त स्थानों पर और शान्त रहने वालो स्त्रियों की अपेक्षाा अन्तराष्ट्रिीय हवाई उड्डे तथा तेज स्वभाव वाली स्त्रियों के बच्चों में अधिक विकृतियां पाई गयी । नाई के चिकित्सक डा. वाई० टी० बी० के० का कहना है कि अत्यधिक शोर गर्भस्थ बच्चे में शारीरिक, मानसिक बोर व्यावहारिक गड़बड़ियां पैदा करता है तथा बच्चा बहरा पैदा होता है । नाड़ी की गति और रक्त चाप भी बढ़ जाता है ।
गर्भवती के मनोभावों का प्रभाव--
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.. माता के मनोभावों से गर्भ बहुत अधिक प्रभावित होता है । आगमों में गर्मिणी स्त्री के प्रसंग में अनेक स्थलों पर ले मिलता है कि इस समय चिन्ता, शोक, दो नता, मोह, भय बोर त्रास का अनुभव नहीं करना चाहिर ।। शोफ, रोग, मोह, भय और वास आदि न करने से गर्भ सुखपूर्वक बढ़ता है ।२ वैज्ञानिक यन्त्रों के मारा देखा गया है कि जब गर्भिणो को मुख, प्यास , भय या चिन्ता होती है, उस समय गर्म का फरमान बढ़ जातो है ।३।
मापुत्र के गर्भ का यदि वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो यह प्रतीत होगा कि उसे जात्यंध, पुक, बधिर, पंगु तथा विकलांग जन्मने का कारण उसकी माता के मनोमाव थे । मादेवी की कुति में जब सापुत्र का जीव आता है,
३- गर्मविज्ञान, पृ० १३४-३५
१- ज्ञाता, १।१।७२, कल्पसूत्र, ६२ २- मगवती, ११।१४५, सुश्रुत, २०५२
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तब माता के शरार में विपुल वेदना उत्पन्न हो जाती है तथा उसका पति 'विजय' उससे बात करना तो दूर, देखना भी नहीं चाहता । उसके मन में चिन्तन जाता है कि यह सब स्थिति गर्भस्थ जोव के कारण ही हुई है । इसी लिए वह गर्म के प्रति अनिष्ट की भावना से गर्भपात करना चाहती है, उसे मारना चाहतो है तथा भीतर ही मी तर गर्भ को गलाना चाहती है । इसके लिए अनेक खारे, कडवे, तिक्त पदार्थ खाती है, लेकिन गर्भपात नहीं होता । आखिर दुःखी मन से गर्भ का वहन करती है । सम्भव लाता है इसी कारण गर्भ में प्रयापुत्र के शरीर के अन स्थलों से खुन और मवाद हने लाा तथा अग्निक नामक व्याधि
हो गई ।
___ हाल ही में अमेरिका में सा लेण्ट स्कीन नाम फि ल्म तैयार की गयी । उसमें सा० नेथनसन ने परीक्षण किया है कि ता न महीने के भृr का यदि गर्भपात करने का प्रयत्न किया जाता है तो वह मुत-शिद से चीखता है, रोता है तथा हथियार को देखकर बचने की कोशिश करता है । सुश्रुत के अनुसार संभोग के समय भी जसा मानसिक माव और चेष्टा होती है, उसका प्रभाव होने वाले बच्चे पर पड़ता है । इस प्रकार गर्भिणा के प्रत्येक विचार को या गर्भ पर पडतो है ।४ चरक ने इस बारे में विस्तार से चर्चा की है कि किस भाव वालो स्त्री के कैसा बच्चा होता है ।५
स्वस्थ शरीर की संरचना तथा प्राप्ति के लिए गर्म सम्बन्धी अनेक प्रकार की जानकारी मनुष्य के लिए परम हितकर है । परन्तु इसमें और भी अनुसंधान की वावश्यकता है । पाश्चात्य विद्वान् पोटर का चिन्तन है कि जिस धारणा या थ्योरी का खण्डन या विवेचन न किया जा सके , वह ज्ञान नहीं होता ।
१- विपाक सूत्र,१११।५६-६३ २- श्रमण-मासिक पत्रिका, बनारस. ५- चरक, ८।१६, पृ० २०८५-८७ ३- सुश्रुत संहिता, २४
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मनोविज्ञान के सन्दर्भ में
भाग्य को बदलने का सिद्धांत-संक्रमकरण
. रत्नलाल जैन
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विश्व का कोई भी तत्व ऐसा नहीं जो पतिवर्तनशील न हो। जो नित्य है बह अनित्य भी है, और जो अनित्य है वह नित्य भी है । सब परिवर्तनशील है।
भगवान् महावीर ने कर्म सिद्धांत के विषय में कुछ नई धारणाएं दी जो अन्यत्र दुर्लभ है । उन्होंने कहा'-"उद्वर्तन (उत्कर्ष), अपवर्तन. (अपकर्ष), उदीरणा और संक्रमण से 'कर्म को बदला जा सकता है"-दूसरे शब्दों में भाग्य को बदला जा सकता
____माज का विज्ञान जहाँ अब इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि पारे से सोना बनाया जा सकता है। प्राचीन रसायन शास्त्रियों ने पारे से सोना बनाने की अनेकों विधियो बताई हैं। जैन ग्रन्थों में भी उनका यत्र-तत्र वर्णन प्राप्त होता है। पारे से सोना कसे?
वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि पारे के अणु का भार २०० होता है। उसे प्रोटोन के द्वारा तोडा जाता है। प्रोटोन का भार १ (एक) होता है। प्रोटोन से विस्फोटित करने पर वह प्रोटीन पारे में घुल-मिल गया और पारेका मार २०१ हो गया। २०१ होते ही अल्फा का कण निकल जाता है, उसका भार चार है, जो कम हो गया। शेष १९७ भार का मण रह गया। सोने के अणु का भार १६७और पारे के अणु का मार भी १९७, सो पारा सोना हो गया । वैज्ञानिकों ने इसे सिद्ध कर दिखा दिया है। इस पद्धति से बनाया गया सोना महंगा पड़ता है, किन्तु यह बात प्रामाणिक हो गई है कि पारे से सोना बनता है। चांदी से सोना
नागार्जुन ने अपने 'रस-'रत्नाकर' में लिखा है कि गन्धकशुद्धि के प्रयोग द्वारा चांदी को सोने में परिवर्तित किया जा सकता है
इसमें आश्वयं ही क्या, यदि पीला गन्धक पलास-निर्याम-रस से शोधित होने पर तीन बार गोबर के कण्डों पर गरम करने पर चांदी को सोने में परिवर्तित कर
तांबे से सोना
रस-रत्नाकर' में ही आगे लिखा है-'इसमें आश्चर्य ही बया पदि तांबेको रसक रस द्वारा तीन बार तपाएं तो वह सोने में परिणत हो जाए।' अतः भनेक खण्ड १८. अंक ३, (अक्टू-दिस०, ९२)
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क्रियाओं द्वारा तत्त्वों में परिवर्तन हो जाता है।
ऐसा संक्रमण से होता है। संक्रमण का अर्थ कोशकारों ने इस प्रकार किया है१. जाना या चलना। २. एक अवस्था से धीरे-धीरे बदलते हुए दूसरी अवस्था में पहंचना । ३. सूर्य का एक राशि से निकलकर दूसरी में प्रवेश करना-४, धूमना, पर्यटन । जनेन्द्र सिद्धांत कोश के अनुसार। 'जीव के परिणामों के वश से कर्म प्रकृति का बदलकर अन्य प्रकृति रूप हो जाना संक्रमण है।" 'जो प्रकृति पूर्व में बन्धी थी उसका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जामा संक्रमण है।" "जिस अध्यवसाय से जीव कम प्रकृति का बन्ध करता है, उसकी तीव्रता के कारण वह पूवबद सजातीय प्रकृति के दलिकों को बध्यमान दलकों के साथ सक्रांत कर देता है, पारणत या पारतित कर देता है-यह सक्रमण है।"
'वर्तमान काल में वनस्पति-विशेषज्ञ अपने प्रयत्न विशेष से खट्टे फल देने वाले पौधे को मीठे फल देने वाले पौधे के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। निम्र जाति के बीजों को उच्च जाति के बीजों में बदल देते हैं। इसी प्रक्रिया से गुलाब की सैकड़ों जातियां पैदा की गई है। इसी संक्रमण प्रक्रिया को संकर प्रक्रिया कहा जाता है, जिसका अर्थ संक्रमण करना है। इसी सक्रमणीकरण की प्रक्रिया से संकर ममका, संकर बाजरा संकर गेहूं के बीज पैदा किए गए है।"
चिकित्सा के द्वारा शरीर के विकारग्रस्त अंग-हृदय, नेत्र आदि को हटाकर उनके स्थान पर स्वस्थ हृदय, नेत्र आदि स्थापित कर अन्धे व्यक्ति को सूझता कर देते है। रुग्ण हृदय को स्वस्थ हृदय बना देते है तथा अपच या मंदाग्नि का रोग, सिरदर्द, ज्वर. निर्बलता माद रोगों को स्वस्थ बनाकर नीरोगी बना दिया जाता है। इससे दुहरा लाभ होता है-(१) रोग के कष्ट से बचना एवं (२) स्वस्प अंग से शाक्त की प्राप्ति । इसी प्रकार पूर्व बन्धी हुई अशुभ कर्म प्रकृति को अपनी सजातीय शुभ कर्म प्रकृति में बदला जाता है और उसके दुःखद फल से बचा जा सकता है।" संक्रमण के भेद
संक्रमण के चार प्रकार हैं"- (१) प्रकृति संक्रम, (२) स्थिति संक्रम, (३) अनुभाव सप्रम और (४) प्रदेश संक्रम ।
प्रकृति सक्रम में पहले बन्धी हुई प्रकृति वर्तमान में बन्धने वाली प्रकृति के रूप में बदल जाती है । इसी प्रकार स्थिति, अनुभाव और प्रदेश का परिवर्तन होता
है। किन्तु 'मूल प्रकृतियां फलानुमव में परस्पर अपरिवर्तनशील है।' 'मूल प्रकृतियों : का परस्पर संक्रमण नहीं होता।" अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं
होती। सारांश यह हमा कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है। अर्थात् एक कर्म को उत्तर प्रकृति उसी कर्म की मन्य उत्तर प्रकृति रूप में परिणति कर सकती है।"
दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का संक्रम नहीं होता। इसी प्रकार सम्यक वेदनीय और मिथ्यात्व वेदनीय उत्तर प्रकृतियों का भी संक्रम नहीं होता।
मायुष्य की उत्तर प्रकृतियों का भी परस्पर संक्रम नहीं होता। उदाहरण स्वरूप
तुलसी प्रज्ञा
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नारक आयुष्य, तिथंच आयुष्य रूप में संक्रम नहीं करता। इसी तरह अन्य आयुष्य भी परस्पर असं क्रमशील हैं ।'
एक बार गौतम ने पूछा " -
'भगवन् ! किए हुए पाप कर्मों का फल भोगे बिना उनसे मुक्ति नहीं होती, क्या यह सच है ?"
भगवान् ने उत्तर दिया- "गौतम ! यह सच है । नैरयिक, तियंच, मनुष्य और देव - सब जीव किए पाप कर्मों का फल भोगे बिना उनसे मुक्त नहीं होते ।"
भगवान् महावीर ने आगे कहा" - "गौतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाए हैं - ( १ ) प्रदेश" कर्म और (२) अनुभाग " कर्म । जो प्रदेश कर्म है वे नियमतः मांगे जाते हैं और जो अनुभाग कर्म हैं वे कुछ भोगे जाते हैं और कुछ नहीं भोगे जाते ।
गीतम ने पुनः पूछा- भगवान् ! अन्य यूथिक कहते हैं— सब जीव एवं भूत-वेदना (जैसा कर्म बांधा है वैसे ही) भोगते हैं, यह कैसे है ? 1
भगवान्
बोले - गौतम ! अन्य यूधिक जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। मैं तो ऐसे कहता हूं कई जीव एवं भूत वेदना भोगते हैं और कई अन्-एवं भूत वेदना भी भोगते है | जो जीब किए हुए कर्मों के अनुसार ही वेदना भोगते हैं। जो जीव किए हुए कर्मों से अन्यथा भी वेदना वेदना भोगते हैं ।"
भोगते हैं वे एवं भूत बेदना
भोगते हैं, वे अन्-एवं भूत
इसी प्रकार स्थानांग सूत्र की निम्न गाया में भगवान् महावीर ने मनुष्य को अपने पुरुषार्थ को जागृत करने का सन्देश दिया है
विहे कम्मे पण ते तं जहासुभ नाम मेगे सुभ बिबागे,
सुमे नाम मेने असुभविबागे ।
असुभे नाम मेगे सुभ बिवागे,
असुने जाम मेगे असुभ बिवागे ।"
--कुछ कर्म
शुभ होते हैं, उनका विपाक भी शुभ होता है । कुछ कर्म शुभ होते हैं, पर उनका विपाक अशुभ होता है । कुछ कम अशुभ होते हैं, पर उनका विपाक शुभ होता है । कुछ कर्म. अशुभ होते हैं, और उनका विपाक भी अशुभ होता है ।
'दूसरे शब्दों में, बन्धा हुआ है हुआ है पापकर्म, पर उसका विपाक सारा संक्रमण का सिद्धांत है ।' :
जो शुभ रूप में बन्धा है. उसका विपाक शुभ होता है। यह एक विकल्प है ।
खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू० - दिस०, ९२ )
पुण्य कर्म पर उसका विपाक होता है पाप, बम्धा होता है पुण्य । कितनी विचित्र बात है-मह
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और जो अशुभ रूप में बंधा है, उसका विपाक अशुभ होता है। यह दूसरा विकल्प है-इन दोनों विकल्पों में कोई विमर्शणीय तत्व नहीं है, किन्तु दूसरा मौर तीसरा-ये दोनों विकल्प महत्त्वपूर्ण है, और ये संक्रमण सिद्धांत के प्ररूपक हैं।
__ संक्रमण का सिद्धांत पुरुषार्थ का सिद्धांत होता है। ऐसा पुरुषार्थ होता है कि अशुम-शुम में और शुभ अशुभ में बदल जाता है।
___ हम पुरुषार्थ का मूल्यांकन करें, हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि सारा दायित्व कर्तृत्व का है, पुरुषार्थ का है।" मूल वृत्तियों में परिवर्तन ___ व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास मूक वृत्तियों के परिवर्तन पर ही निर्भर होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यह परिवर्तन चार" पद्धतियों द्वारा सम्भव है
... १. अबदमन (Repression) २. विलयन (Inhibition) ३. मार्गान्तरीकरण (Redirection) और ४. शोधन (Sublimation) ।
अवदमन-मूल प्रवृत्तियों का दमन करना जल-प्रवाह पर बांध बांधने के समान होता है । इससे अनेक मावना-प्रन्थियां उत्पन्न हो जाती हैं।
विलयन-इसके दो अंग है
(१) निरोध और (२) बिरोध । निरोध का तात्पर्य वृत्ति को उत्तेजित होने के लिए मवसर ही न देने से है। विरोध-में दो पारस्परिक विरोधी प्रवृत्तियों को एक साथ उत्तेजित कर देने से मूल वृत्तियों में परिवर्तन होता है । संग्रह-वृत्ति, त्याग-भावना से शांत की जा सकती है। स्नेह, सहानुभूति और खेल की प्रवृत्ति उत्पन्न कर देने से युयुत्सा प्रवृत्ति में परिवर्तन लाया जा सकता है।
यही बात पातंजल योग, में कही गयी है-वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनम्"। अर्थात् अशुभ भावना को तोड़ना है तो शुभ भावना पैदा करो । 'दशवकालिक' सूत्र में चार आवेगों की प्रतिपक्षी भावना का सुन्दर निरूपण किया गया है
उवसमेण हणे कोहं, माणं महबया जिणे ।
मापामज्जव भावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥" -'यदि क्रोध के भाव को नष्ट करना तो उपशम-क्षमा के संस्कार को पृष्ट करना होगा। उपशम का भाव जितना अधिक पुष्ट होगा, क्रोध का पावेग उतना ही क्षीण होता चला जाएगा। मभिमान के भावेग-भाव को विनम्रता से जीता जा सकता है। माया के मावेग को नष्ट करने के लिए ऋजुता-माव-सरलता के संस्कार को पुष्ट करना होगा। लोभ की प्रवृत्ति संतोष के भाव से नष्ट था कम की जा सकती है। अतः भोग की प्रवृत्ति के शमन के लिए त्याग की उदात्त भावना को जीवन का अंग बनाना पड़ेगा ।यही भाग्य को बदलने का सिद्धांत है।
'तुलसी प्रमा
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संदर्भ१. कर्मवाद, पृ० १०२-युवाचार्य महाप्रज्ञ । २. वही। ३. 'वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा', पृ० १५९ ।
-डा० सत्य प्रकाश डी० एस-सी. -किमत्र चित्रं यदि पीत गंधकः पलाश निर्यास रसेन शोधितः ।
आरण्यक मत्पलकस्तु पाचितः करोति तारं त्रिपुटेन काञ्चनम् ।। ४. वहीकिमत्र चित्रं रसको रसेन........"
क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रञ्जितः करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम् ।। ५. नालन्दा विशाल शब्द-सागर, पृ० १३७२-७३ । । ६. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश (भाग ४) पृ० ८२ । ७. (क) 'जैन कर्म सिद्धांत और मनोविज्ञान' पृ० १६३ । (ख) गोम्मटसार कर्मकांड, जीव तत्त्व प्रदीपिका ४६८१५९१।१४
-पर प्रकृति रूप परिणमनं संक्रमणम् । ८. (क) जैन कर्म सिद्धांत भोर मनोविज्ञान पृ० १६३ । (ख) नव पदार्थ-आचार्य भीखणजी।
सटिप्पण अनुवादक - श्री चन्द रामपुरिया, पृ० ७२६ । (ग) जैन धर्म और दर्शन, पृ० ३०७ । (घ) संकमकरणम् (भाग १)१०२ : कमप्रकृती
'सो संकमो त्ति वच्च बन्धन परिणी पमोगेण ।
पगयन्तरत्यं दलियं, परिणमय तयण भावे जं' ॥१॥ ९. जिनवाणी-कर्म सिद्धांत विशेषांक, अक्टूबर-दिसंबर '८४' -करण सिद्धांत-माग्य निर्माण की प्रक्रिया पृ० ८१ ।
-श्री कन्हैयालाल लोढ़ा १०. वही, पृ० ८२। ११. ठाणं, ४.२-९७ : चउम्बिह संकमे पण्णत्ते, तं जहा
पगति संकमे, ठिति संकमे, अणुभाव संकमे, पएस संकमे । १२. गोम्मटसार कर्म कांड, मूल ब जीव तत्व प्रदीपिका-४१०।।
णस्थि मूलपयडीणं ।"""संकमणं ॥४१॥ मूल प्रकृतीनां परस्पर संक्रमणं नास्ति,..."
स्ति १३. (क) तत्त्वाचं ८.२२ भाष्य : उत्तर प्रकृतिसु सर्वासु-मूल प्रक्रत्यभिन्नासुनहु मूल
प्रकृतिषु संक्रमो विद्यते,..."उत्तर प्रकृतिषु च दर्शन चारित्रमोहनीययोः
सम्यग्मिध्यात्व-वेदनीयस्यायुष्कस्य च""। (ख) तत्त्वार्थ ८.२२, सर्वार्थसिद्धि :
-अनुमवो विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च। सर्वासा मूलप्रकृतीनां . खंड १८, अंक ३ (अक्टू.-दिस०, ९२)
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स्वमुखेनवानुमनः । उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमुखेनापि भवति आयुदर्शन चारित्रमोहवर्णानाम् न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुमनुष्यायुवा विपच्यते । नापि दर्शनमोहरुचारित्रमोहमुखेनन, चारित्रमोहो दर्शन
मोहमुखेन । १४. मगवती १,४ : हंता गोयमा! नेरेयस्स वा तिरिक्खमणदेवस्स वा जे करे पाये
कम्मे नरिथ तस्स अवे इत्ता मोक्खो......"एवं खलु मए गोयमा! दुबिहे कम्मे
पन्नते। १५. भगवती १,४: दुविहे कम्मे पन्नते,तं जहा
पएस कम्मे य, अणमाग कम्मे य । तत्थ णं तं पएसकम्मं तं नियमा वे एइ, तरथ
णं जंतं अणुभाग कम्मं तं मत्थे गइयं णो वेएछ । १६. भगवती, १.४ वृत्ति : प्रदेशा कर्मपुद्गला ।
जीवप्रदेशेष्वोतप्रोता: तद्रपं कर्म प्रदेश कर्म । १७. भगवती पत्ति, १.४ : अनुमाग : तेषामेव कर्म प्रदेशानां संवेद्यमानताविषयो रसः
तद्रूपं कर्मोऽनुभाग-कर्म । १८. भगवती ५.५ । १९. ठाणं, ४.६.३ । २०. कर्म और पुरुषार्थ-महाप्रज्ञ, जिनवाणी 'कर्म विशेषांक' पृ० १०५ । २१. मनोविज्ञान और शिक्षा, पृ० १८३-डॉ० सरयू प्रसाद चौबे । २२. पातंजल योग सूत्र, २,३३ । २३. (क) दशवकालिक ८.३९ :
(ख) शांत सुधारस, संवर भावना ८.३ ।
तुलसी प्रसा.
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वर्ष-३,अंक-४,अक्टूबर-९१,५१-६०
अर्हत् वचन
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दार
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कर्मवादकामनोवैज्ञानिकपहल
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. रत्नलाल जैन
कर्मवाद भारतीय दर्शन का एक प्रतिष्ठित सिद्धांत है। उस पर लगभग सभी पुनर्जन्मवादी दर्शनों ने विमर्श प्रस्तुत किया है।
पूरी तटस्थता के साथ कहा जा सकता है कि इस विषय का सर्वाधिक विकास जैन दर्शन में हुआ है। '. कर्मवाद मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। अतः कर्मशास्त्रा को कर्म मनोविज्ञान ही कहना चाहिए। कर्मवाद में
कर्मशास्त्र में शरीर-रचना से लेकर आत्मा के अस्तित्व तक, बन्धन से लेकर मुक्ति तक-सभी विषयों पर गहन चिंतन और दर्शन मिलता है। यद्यपि कर्मशास्त्र के बड़े-बड़े ग्रन्थ उपलब्ध हैं, फिर भी हजारों वर्ष पुरानी पारिभाषिक शब्दावली को समझना स्वयं एक समस्या है। मनोविज्ञान में
आज के मनोवैज्ञानिक मन की हर समस्या पर अध्ययन और विचार कर रहे हैं, जिन समस्याओं पर कौशास्त्रियों ने अध्ययन और विचार किया, उन्हीं समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन और विचार कर रहे
समन्वय की भाषापदि मनोविज्ञान के सन्दर्भ में कर्मशास्त्र को पढ़ा जाए तो उसकी अनेक गुत्थियां सुलझ सकती हैं, अस्पष्टताएं स्पष्ट हो सकती हैं। यदि कर्मशास्त्र के संदर्भ में मनोविज्ञान को पढ़ा जाए तो उसकी अपूर्णता को समझा जा सकता है और अब तक अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजे जा सकते हैं।'
*गली आर्य समाज , हांसी (हरियाणा) १२५ ०३३
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कर्म के बीज-राग और देख भगवान् महावीर ने कहा है'राग और रेप-ये दोनों कर्म के बीज कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण से दुख होता है। प्रीति और अप्रीति-राग और द्वेष दो ही प्रकार की अनुभूतियां हैं, एक है प्रीत्यात्मक अनुभूति और दूसरी । अप्रीत्यात्मक अनुभूति। प्रोत्यात्मक अनु पूति या संवेदना को राग कहते है और अप्रीत्यात्मक अनुभूति या संवेदना को देव कहते
पातंजल, योग दर्शन में कहा गया है'मुखानुशयी रागः " सुख भोगने की इच्छा यग है। दुःखानुशयो रेषः . दुःख के अनुभव के पीछे जो घृणा की वासना चित्त में रहती है, उसे देष कहते ।
राग का स्वरूप
"इष्ट पदार्थों के प्रति रतिपाव को राग कहते हैं।
धवला में कहा है
- माया--लोप-वेदत्रय हास्य रतयो रागः ..
-माया, लोभ, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नंपुसकवेद (काम भाव), हास्य और रति-इनका नाम राग है।
वाचकवर्य उमास्वाति ने लिखा है
इच्छा, मूर्छा, काम, सेह, गृद्धता, ममता, अभिनन्दन, प्रसन्नता और अभिलाषा आदि अनेक राग माव के पर्यायवाची है। चार कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ में माया और लोम को राग की संज्ञा दी गई है।
माया के पर्यायवाची शब्द माया के निम्नलिखित नाम :
१. माया- कपटाचार. .
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२. उपाधि- ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति के पास जाना
३. निवृत्ति- ठगने के लिए अधिक सम्मान देख ४. बलय- वक्रतापूर्ण वचन । ५. गहन- ठगने के उद्देश्य से अत्यंत गढ़ मान करना ६. नूम- ठगने के हेतु निकृष्ट कार्य करना।
७. कल्क- दूसरों को हिंसा के लिए उपारना
८. कुरुक- निन्दित व्यवहार करना। ९. दंभ- कपट ।
१०. कुट- नाप-तौल में कम-ज्यादा देना।
११. जैहा- कपट का काम ।
१२. किल्विपिक- पांडों के समान चेष्टा करना
१३. अनाचरण- अनिच्छित कार्य भी अपनाना
१४. गहन- अपनी करतूत को छिपाने की करतूत करना
१५. वंचन- ठगी। १६. प्रतिकुंचनता- किसी के सरल रूप से को हुए वचनों का खंडन करना। १७. साचियोग- उत्तम वस्तु में होन वस्तु की मिलावट करना।
ये सब माया की ही विभिन्न अवस्थाएं है। लोभ लोप के पर्यायवाची नाम इस प्रकार :१. लोभ- संग्रह करने की वृत्ति । २. इच्छा- अभिलाषा । ३. मूर्छा- तीन संग्रहवृत्ति । ४. कांक्षा- प्राप्त करने की आशा।
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५. गद्धि- आसक्ति । ६. तृष्णा- जोड़ने की इच्छा, वितरण की विरोधी वृत्ति ।
७. मिथ्या-विषयों का ध्यान । .
८. अभिध्या- निश्चय में डिग जाना या चंचलता ।
९. कामाशा- काम की इच्छा।
१०. भोगाशा- भोग्य पदार्थों की इच्छा ।
११. जीविताशा- जीवन की कामना ।
१२. मरणाश- मरने की कामना ।
१३. नंदी- प्राप्त संपत्ति में अनुराग ।
१४. राग- इष्ट वस्तु प्राप्ति की इच्छा। द्वेष का स्वरूप 'अनिष्ट विषयों में अप्रीति रखना ही मोह का एक भेद है, उसे देष कहते
'असंहाजनों में तथा असह्य पदार्थों के समूह में बैर के परिणाम रखना देष कहलाता है।". धवला में बताया गया है
कोष, मान, अरति, शोक, भय व जुगप्सा- ये छह कषाय देषरूप है।
.
वाचकवर्य उमास्वाति ने देष के निम्नलिखित नाम बताए
"ईर्ष्या, रोष, दोष, द्वेष, परिवाद, मत्सर, असूया, वैर एवं प्रवंडन आदि देष भाव के पर्यायवाची है।" चार कषायों क्रोध, मान, माया और लोप में क्रोध और मान को रेप की संज्ञा दी गई है। .. क्रोध
समवायांग में क्रोध के निम्नलिखित नाम दिए गए -"
१. क्रोध- आवेग की उत्तेजनात्मक अवस्था ।
२. कोप-क्रोध से उत्पन्न स्वभाव की चंचलता।
३. रोष- क्रोध का परिमट रूप।
४. भक्षमा- अपराय समा न करना ।
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५. संज्वलन- जलन या ईर्ष्या की भावना।
६. कलह- अनुचित भाषण करना।
७. चांडिक्य- उग्र रूप धारण करना।
८. भंडन- हाथापाई करने पर उतारू होना
९. विवाद- आक्षेपात्मक भाषण करना
दोष- स्वयं या दूसरे पर दोष थोपना। मान जैन-जगत् में मान के अष्ठ भेद है-इन्हें आठ मर भी कहा जाता है-
..
१. जाति, २. कुल, ३. बल (शक्ति), ४.ऐश्वर्य, ५. बुद्धि, ६. शान (सूत्रों का ज्ञान), ७. सौन्दर्य व८.. अधिकार
मान के निम्नलिखित पर्यायवाची है-८
१. मान- अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति।
२. मद- अहंभाव में तनमयता ।
३. दर्प- उत्तेजनापूर्ण अहं भाव । ४. स्तंभ- अविनग्रता । ५. आत्मोकर्ष- अपने को दूसरे से श्रेष्ठ मानना ।
६. गर्व- अहंकार ।
७. परपरिवाद - परनिन्दा । ८. उत्कर्ष- अपना ऐश्वर्य प्रकट करना। ९. अपकर्ष- दूसरों को तुच्छ समझना । १०. उन्नत- दूसरों को छोटा मानना । ११. उन्नाम- गुणों के सामने न झुकना । १२. पुनाम- यथोवित रूप से न झुकना
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संवेगों-भावों का मनोवैज्ञानिक वर्गीकरण मनोवैज्ञानिक राबर्ट बुडवर्थ ने कहा -" "यह एक महत्वपूर्ण बात कि विभिन्न भावों और भावधाराओं के लिए मनेक शब्दों का प्रयोग होता है। एक ही शब्द के सैकड़ो पर्यायवाची-समानार्थक शब्दों की खोज करना कोई बड़ा कार्य व म....मनुभव करता हूं इस वाक्य को पूरा करने वाले ये शब्द - सुख- आनन्द, हर्ष, प्रसन्नता, गर्व, उल्लास, दुःख- असंतुष्टि, शोक, उदासी, अप्रसन्नता, खिन्न, प्रमोद- मनोविनोद, आमोद, उत्तेजना- हलवल, शान्त- संतुष्टि, स्तन्यता, रुचि शून्यता, परिश्रान्त, आशा- उत्कंठा, मनोरथ, आश्वासन, उत्साह, संशय- लज्जा, व्याकुलता, आकुलता, चिन्ता, . भय- त्रास, उद्वेग, भयंकर, पयातुर, विस्मय- आश्चर्य, अछुत, अनोखा, अचंभा, इच्छा- अभिलाषा, लालसा, कामना, प्रेम (राग), पराउ.मुखता- अरुचि, पणा, अनिच्छुकता, क्रोध- देष, कोप, उदिग्न, रोष, कला, उपर्युक्त सूची में प्रत्येक वर्ग का पहला शन्द उस वर्ग के सारांश को व्यक्त करता है। इनसे बड़े या छोटे अन्य वर्गीकरण भी किए जा सकते "दो मुख्य वर्गों- राग और देर में सभी भावों का समावेश हो जाता है। शत्रुता का कारण- राग-देष शिष्य बोला- गुरुदेव। एक मोर तो आप इन्द्रियों को परम उपयोगी बता से और दूसरी तरफ उनें शत्रु कहा जा रहा है।
आचार्य ने कहा- . .. - -आविष्टानि यदा तानि, गदेव प्रभावतः।
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तदा तानि विपक्षाणि, नेतणणि महामते।।
-महामति शिष्य इन्द्रियां जब राग-द्वेष के प्रभाव से आविष्ट होती । तभी रानु कालावी राग-च मुक्त इन्दियां शत्रु नहीं है।
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'जब गंगा के निर्मल पानी में फैक्ट्रियों का दृषित कचरा मिलता है तो वह पानी भी जय इषित हो जाता है। इन्दिय-शान की निर्मल-धारा में राग और रेप का कवरा मिल जाता है, उस भवस्था में वे शत्र बन जाती है। यह बात अध्यात्म की भूमिका पर कही जा सकती है। इन्टियां एक साधक के लिए अहितकर भी है और शत्रुता का काम भी करती है। जब इनमें मूळ का मिश्रण हो जाता है, तब अध्यात्म विकास में बाधक उत्पन्न हो जाती है। जब मोह की गंदी नाली इन्टियों के साथ जुड़ जाती है, इन्दियां इस से आविष्ट हो जाती है, तब वे चित्त की निर्मल धारा को कलुषित कर देती है। राग-द्वेष- क्रोध-मान-माया-लोभ पर विजय भगवान् महावीर ने क्रोध, मान, माया, लोप पर विजय पाने का एक सूत्र दिया है
उपशम (क्षमा) भाव से क्रोध की जीतना चाहिए। मार्दव विनम्रता से अपिमान को जीतना चाहिए। आर्जवसरलता के भाव से माया को जीतो और संतोष से लोग पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।
महर्षि पतंजलि ने कहा है" 'वितर्क बाधने प्रतिप मावनम् -एक पक्ष को तोड़ना है तो प्रतिपक्षी भावना को उत्पन्न करो।
कोप की प्रतिपक्षी भावना है-क्षमा अतः क्रोध-मान- माया-लोम के मार्यों को इनके प्रतिपक्षी समा, विनम्रता, ऋजुता तथा सन्तोष के पावों से शान्त किया जा सकता है। परिवर्तन का मनोवैज्ञानिक सिद्धांत
मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मूल प्रवृत्तियों में परिवर्तन से व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है। चार परितयों पारा यह परिवर्तन संभव है-"
१. अवदमन (REPRESSION)
२. विलयन (INHIBITION) ३. मार्गान्तरीकरण (REDIRECTION) ४. शोधन (SUBLIMATION) विलयन पद्धति के अन्तर्गत दो साधन है
१. निरोप और २. विरोष
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“दो पारस्परिक विरोधी प्रवृत्तियों को साथ ही उत्तेजित कर देने से मूलप्रवृत्तियों में परिवर्तन लाया जा सकता है। काम प्रवृत्ति के उत्तेजित होने के समय यदि भय अथवा क्रोध उत्पन्न कर दिया जाए तो कामभावना ठंडी पड़ जाएगी।
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संग्रह - प्रवृत्ति त्याग भावना से शान्त की जा सकती है।
अतः पातंजल योग दर्शन की प्रतिपक्ष की भावना, जैनागम के क्रोधादि भावों को उपशम (क्षमा) आदि से शांत करना तथा मनोवैज्ञानिक का विलयन (विरोधन) के सिद्धांत में आश्चर्यकारी साम्य-समानता है।
अतः यह समन्वयात्मक ज्ञान आत्म-विकास के लिए परम हितकर है। जिसका अध्ययन अपेक्षित है ।
सन्दर्भ
१. कर्मवाद, युवाचार्य महाप्रज्ञ, पृष्ठ- २३५॥
२. कर्मवाद, कर्मशास्त्र मनोविज्ञान की भाषा में।
+
३. उत्तराध्ययन, ३२.७१
रागो या दोसो निय कम्मवीथं, कम्मंच मोहप्पभवं वयंति।
कम्मं च जाई मरणस्स मूलं दुक्खं च जाई मरणं कयंति ।
४-५ पातंजल योग दर्शन ।।२.७.८ ।।
६. प्रवचन सार/त.प्र./८५-अभीष्ट विषयप्रसङ्गेन रागम् ||
७. धवला १२/४, २,८, ८/२८३/८ - भाया लोभविदे-त्रय -
हास्यरतयो रागः
८. प्रशमराति १८ इच्छा मूछ काम स्नेही गाधय ममत्वमाभिनन्दः । अभिलाषं इत्यनेकानि राग पर्यायवचनानि
९. ठाणांग २.४.९६ माया लोभ कषायश्वेत्येद् राग संज्ञि त्वं । क्रोधोमानश्च पुनद्वेषं समासनिर्दिष्टः
१०. समवाओं, ५२: जैन विश्व भारती, लाडनूं:
- माया, उवही नियडी वलए गहणे, णूमेकक्के कुरुए दंगे जिम्हे किब्बिसिए आणायरणया गृहगया वणया पलिकुंचण या सातिजोगे ।
११. समवाओं, ५२ ।
-लोपे इच्छा मुच्छा करवा गेही तिण्डा भिज्जा अभिज्जा, कामसा, मोगासा, जीवियासा, मरणासा नंदी रागे ।
१२. (क) प्रवचनसार/त-१/८५०
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-मोहम्- अनभिष्ट विषयाप्रीत्यादेष मिति।
(ख) सर्वाससिरि/I/५१: -अप्रीतिरूपो रेषः १३. नियमसार, तात्पर्य वृत्ति/६६:-असहयजनेषु वापि चासहय पदार्थ सार्थेषु वा वरस्य परिणामो देषः १४. धवला १२/१, २, ८, ८४२८३४८ १५. प्रशमरति, १९, उमास्वाति--ईर्ष्या, रोषो, दोषः, देष परिवाद मत्सरासूयाः।
वैर प्रचंडनाडा के द्वेषस्य पर्यायाः ॥१९॥
१६. ठाणांग- २.४.९६ १७. समवायांग, ५२ः - कोई, कोये, रोसे, दोसे अखमा, संजलणे, कलहे, चंडिक्के, मंडणे विवाए। १८. समवाओ, ५२ः - माणे, मदे, दप्पे, थंघे, अत्तुक्कोसे, गव्वे, परपरिवाए, उक्कोसे, अवक्कोसे, उन्नए उन्नामे। 19. Psychology : A study of Mental life Feeling and Emotion- P.334. Robert S. Woodworth & Donald G. Marquis-Methuen & Co. London: It is remarkable how many words there are in common use for various feelings and shades of feeling. It would be no great task to find a hund red words, same of them, no doubt, synonymous to complete the sentence, I feel........... Here are a few names of feelings and emotions, roughly grouped into classes. Pleasure- happiness, joy, delight, elation, raptoore . Displeasure-discontent, grief, sadness, sorrow, dejection.
Mirth-amuserment, hilarity. Excitement-Agitation. Calm-contentment, munbress, apathy, weariness. Expectancy-eugerness, hopen, assurance, courage. Doubt-shyness, embarrasment, anxiety, worry. Dread-fear, fright, terror, horror. Surprise-amazement, wonder, relief, disappointment. Desire-disgust, longing, yearning love. Aversion-disgust, Roathing, hate. Anger-resentment indignation, sullenness, rage, fray.
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30. The first word in each class is intended to give the keynote of the class. Other classification could be made broader or narrower. Two broad classes pleasant and unpleasant would incloude most of the feelings.
२१. अभ्युदय, पृष्ठ ९३ - युवाचार्य महाप्रज्ञ
२२. (क) दशवैकालिक ८.३९
उवसमेण हणे कोहं, माणं मदवया जिणे ।
माया मज्जव भावेण, लोभं संतीसओ जिणे ।।
(ख) शान्त सुधारस ८.३, संवर भावना।
- क्रोधंक्षान्त्या मार्दवेनाभिमानं हन्यामार्जवेनोज्जवलेन
लोमं वारां राशिदं निरुन्ध्याः, संतोषेण, प्रासुन सेतुनेव ॥
२३. पातंजल योगदर्शन, २.३३
२४. मनोविज्ञान और शिक्षा, पृष्ठ २५. वही, पृष्ठ १८६
१८५: - डॉ. सरयूप्रसाद चौबे ।
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