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________________ पानह में तदाकार हो जाना प्रत्याहार है। धारणा-किसी एक देश में चित्त को ठहराना धारणा है । ध्यान-चित्त में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। समाधि-जब ध्यान में केवल ध्येयमात्र की प्रतीति होती है, और चित्त का निज स्वरूप शून्य-सा हो जाता है, तब वही ध्यान समाधि हो जाता है। . केवलज्ञान वाचक उमास्वाति लिखते हैं---"मोह कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण,दर्शनावरण और अन्तराय कमों के भय से केवलज्ञान प्रकट होता है।"प्रतिबन्धक कर्म चार हैं, इन में से प्रथम मोहनीय कर्म क्षीण होताहै, तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त बाद ही ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अन्तराय... इन तीन का का क्षय होता है। इस प्रकार मोक्ष प्राप्त होने से पहले केवल उपयोग-सामान्य और विशेष दोनों प्रकार का सम्पूर्ण बोध प्राप्त होता है। यही स्थिति सर्वज्ञत्व और सर्वदशित्व की है। विवेकजन्य तारक ज्ञान महर्षि पतंजलि लिखते हैं---"जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सब विषयों को, सब प्रकार से जानने वाला है, और विना क्रम के जानने वाला है, वह विवेकजनित ज्ञान है।" बुद्धि और पुरुष- इन दोनों की जव समभाव से शुद्धि हो जाती है, तब कैवल्य होता है। इस प्रकार बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होता है । सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होना ही मोक्ष है। संदर्भ: १३. समवाओ, ५२: मोइणिज्जस्सणं कम्मरस बावन्नं नामज्जा पन्नता, तं जहा पोहे १, फोवे २, रोसे ३, दोसे ४, अखमा ५, संजणे ६, कलहे ७, चंडिपके ८, मंडणे , विवाए १०, माणे ११, मदे १२, दप्पे १३, थंभे १४, अत्तुक्कोसे १५, गवे १६, परपरिवाए १७, अक्कोसे १८, अवककोले (परिभवे) १६, उन्नए २०, उन्नामे २१. माया २२, उवही २३, नियडी २४, वलए २५, गहणे २६, णूमे २७, कक्के २८, कुरूए २६, दमे ३०, कडे ३१, जिम्हे ३२, फिबिसिए ३३, अणायरणया ३४, ग्रहणया ३५, वंचणया ३६, पलिकंचणया ३७, सातिजोगे ३८, लोभे ३९, इच्छा ४०, मुच्छा ४१, कंखा ४२, गेही ४३, तिण्हा ४४, भिज्जा ४५, अभिज्जा ४६, कामासा ४७, भोगासा ४८, जीवियासा ४६, मरणासा ५०, नन्दी ५१, रागे ५२ १४. कायवाङ्मनःकम योगः। तस्वार्थ सूत्र, ६१ १५. स आत्रयः । तत्वार्य सूत्र, ६२ १६. सकपायाफपाययोः साम्प्ररायिकर्यापथयोः। तस्वार्थ सूत्र, ६५ १७.क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । पातंजल योगवर्शन, २.१२ १८. तस्वार्थ सूत्र -शुमः पुण्यस्य, ६२, अशुभ पापस्प, ६.३ २०. पुण्यं नाम पुनाति आत्मानं पवित्रीकरोति पुग्यम् । सण १४, अंक ४ (मार्च, ८९)
SR No.010245
Book TitleJain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnalal Jain
PublisherRatnalal Jain
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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