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________________ - 'गौतम ! संसार के जीवों के कर्मवीज भिन्न-भिन्न होने के कारण उनकी अवस्था या स्थिति में भेद है, अन्तर है। यह अकर्म के कारण नहीं है।' कमरूपी बीज के कारण हो संसारी जीवों में अनेक उपाधियां, विभिन्न अवस्थाएँ दिखायी देती हैं। आत्मा को मणि की उपमा देते हुए यह सत्य प्रकट किया गया है 'जिस प्रकार मल से आवृत्त मणि की अभिव्यक्ति विभिन्न रूपों में होती है, उसी प्रकार कामरूपी मल से आवृत्त आत्मा की, विविध-विभिन्न अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होतो हैं।" कर्म के कारण ही जीव संसार में पृथक-पृथक गोत्रों में, जातियों में या गतियों में उत्पन्न हो जाता है-- "इस संसार में विभिन्न प्रकार के कर्म-बन्धन के कारण प्राणी भिन्न-भिन्न गोत्रों में, जातियों में उत्पन्न होते हैं। 'पूर्व जन्म-समय में किए कर्मों के अनुसार ही कितने ही जीव देवलोक में जाते हैं, अनेक नरक गति म और बहुत से असुर-निकाय में चले जाते हैं।' कितने ही जीव क्षत्रिय बन जाते हैं, अनेक जीव चांडाल के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं। बहत-मे कीड़ों-पतंगों का जन्म ग्रहण कर लेते हैं तथा अनेक कुंधु रूप में चींटी की तरह जन्म लग प्रकार इस कर्म के संयोग से मृढ बना एवं भारी वेदना और दु:ख पाता हुआ यह जीव मनप्य गति को छोड़कर अन्य (नरक-तियंच-आदि) योनियों में दुःख-कष्ट भोगता रहता है।' बौद्ध दर्शन में-- राजा मिलिन्द ने पूछा भगवन नागसन ! ये जो पाँच आयतन-आंख, कान, नाक, जीभ और चमड़ी हैं, क्या ये अलग-अलग कर्मों के फल हैं, या एक ही कर्म के फल हैं ? ---राजन ! अलग-अलग कर्मों के फल हैं, एक ही कर्म के फल नहीं। -कृपा करके उपमा द्वारा समझाइए। --राजन ! यदि कोई मनुप्य एक खेत में पृथक-पथक जाति के बीज बोये तो क्या अनेक प्रकार के योजों का फल अनेक जाति का न होगा? -हाँ भगवन् ! अनेक प्रकार के बीजों का फल अनेक जाति का होगा।' -राजन् ! इसी प्रकार ये पांच आयतन है-ये पृथक-पृथक कर्मों के फल है। एक कर्म का फल नहीं। -भंते ! आपने ठीक फरमाया! महत्वाचन, इन्दौर
SR No.010245
Book TitleJain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnalal Jain
PublisherRatnalal Jain
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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