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पुष्य शुभ कर्म है, अतः अकाम्य-हय है ही योगीन्दु कहते हैं-"पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पाप होता है, अतः हमें वह नहीं चाहिए।"५
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-"अशुभ कर्म कुशील है-बुरा है और शुभ कर्म सुशील है---अच्छा है, ऐसा जगत् मानता है। परन्तु जो प्राणी को संसार में प्रवेश कराता है, वह शुभ कर्म सुशील-अच्छा कैसे हो सकता है। जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बांधती है और सुवर्ण की भी बांधती हैं, उसी तरह शुभ और अशुभ कृत कर्म जीव को बांधते हैं। अतः जीव ! तू दोनों कुशीलों से प्रीति अथवा संसर्ग मत कर । कुशील के साथ संसर्ग और गग से जीव की स्वाधीनता का विनाश होता है। जो जीव परमार्थ से दूर हैं, वे अज्ञान से पुण्य को अच्छा मानकर उसकी कामना करते हैं। पर पुण्य संसार-गमन का हेतु है अत: तू पुण्य कर्म में प्रीति मत कर।""
पुण्य काम्य नहीं है । पुण्य की कामना पर-समय है ।
योगीन्दु कहते हैं-"वे पुण्य किस काम के जो राज्य देकर जीव को दुःख-परम्परा की ओर ढकेल दें । आत्मदर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति मर जाए--यह अच्छा है, किन्तु आत्म-दर्शन से विमुख होकर पुण्य चाहे - - यह अच्छा नहीं है ।"२७ सुखप्रद कर्माशय भी दुःख है
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-"परिणाम दु:ख, ताप दुःख और संस्कार दुःख-ये तीन प्रकार के दु:ख सबमें विद्यमान रहने के कारण और तीनों गुणों की वृत्तियों में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी पुरुष के लिए सब-के-सब कर्मफल दुःख रूप ही हैं।" परिणाम दुःख, जो कर्म विपाक भोगकाल में स्थल दृष्टि से सुखद प्रतीत होता है, उसका परिणाम दुःख ही है। जैसे स्त्री-प्रसंग के समय मनुष्य को सुख भासता है, परंतु उसका परिणाम-बल, वीर्य, तेज, स्मृति आदि का ह्रास प्रत्यक्ष देखने में आता है। इसी प्रकार दूसरे भोगों में भी समझ लेना चाहिए।
- गीता में भी कहा है --"जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह यद्यपि भोगकाल में अमृत के सदृश भासता है, परन्तु परिणाम में विष के तुल्य है, इसलिए वह मुख राजस कहा गया है ।"".
विवेकी पुरुष परिणाम-दुःख, ताप-दुःख, संस्कार-दुःख तथा गुणवृत्तियों के विरोध से होने वाले दुःख को विवेक के द्वारा समझता है, उसकी दृष्टि में सभी कर्म-विपाक दुःख .. रूप हैं । साधारण जन-समुदाय जिन मांगों को सुखरूप समझता है, विवेकी के लिए वे भी दुःख ही हैं। । गीता में लिखा है-"इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले जितने
भी भोग हैं, वे सब के सब दुःख के ही कारण हैं।""शानी कहते हैं-कामभोग शल्यरूप हैं, विषरूप है, जहर के सदृश है ।" . .
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