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________________ जैन-दर्शन और योग-दर्शन में कर्म-सिद्धान्त 0 रत्नलाल जैन (गतांक से आगे) चार कबायों के बावन नाम कपाय चार हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ । समवाओ में चार कषाय रूप मोह के ५२ नाम" कहे गए हैं, जिनमें क्रोध के दस, मान के ग्यारह, माया के सत्रह और लोभ के चौदह नाम बताए गए हैं क्रोध-१. क्रोध, २. कोप, ३. रोष, ४. दोष, ५. अक्षमा, ६. संज्वलन, ७. कलह, ८. चांडिक्य (चंडयन), ६. भंडण और १०. विवाद । मान-१. मान, २. मद, ३. दप, ४. स्तम्भ, ५ आत्मोत्कर्ष, ६. गर्व, ७. परपरिवाद, ८. आक्रोश, ६. अपकर्ष (परिभव), १०. उन्नत और ११. उन्नाम । माया-१. माया, २. उपधि, ३. निकृति, ४. वलय, ५. ग्रहण, ६. न्यवम, ७. कल्क ८. कुरूक, ६. दम्भ, १०. कूट, ११. वक्रता (जैहम), १२. किल्विष, १३. अनादरता, १४. गूहनता, १५. वंचनता, १६. परिकुंचनता, १७. सातियोग ।। लोभ. १. लोभ, २. इच्छा, ३. मूच्छी, ४. कांक्षा, ५. गति, ६. तृष्णा, ७. भिध्या, ८. अभिध्या, ६. कामाशा, १०. भोगाशा, ११. जीविताशा, १२. मरणाशा, १३. नन्दी और १४. राग। आस्रव भोर कर्माशय आस्रव---काय, वचन और मन की क्रिया योग है।" वही कर्म का सम्बन्ध कराने 'वाला होने के कारण आस्रव कहलाता है।" कपाग-राहित और कषाय-रहित आत्मा का : योग श्रमशः साम्परायिक और ईर्यापथ कर्म का बन्ध-हेतु-आस्रव होता है। जिन जीवों में क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों का उदय हो, वे कषायसहित और जिनमें इनका उदय न हो, वे कगायरहित हैं। पहले से दसवें गुणस्थान तक के जीव न्यूनाधिक मात्रा में पायसहित हैं और ग्यारहवें आदि आगे के गुणस्थानों वाले जीव कषायरहित कर्माशय-वलेशमूल । पांच क्लेश जिसकी जड़ है ऐसी कर्म की वासना वर्तमान और भविष्य में होने वाले दोनों जन्मों में भोगा जाने योग्य है ।" ये क्लिष्ट (तम प्रधान), अक्लिष्ट तुलसी पक्षा
SR No.010245
Book TitleJain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnalal Jain
PublisherRatnalal Jain
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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