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होता है तब माता का बोज तथा पिता के वीर्य का संयुक वाहार ग्रहण करता है । गर्भस्थ होने के बाद माता जो भी बाहार ग्रहण करती है, उसका बोजप बाहार शिशु गहण करता है । गर्भगत जी व मुख से बाहार गहण नहीं करता । वह सभी ओर से प्रतिताण आहार गहण करता है, परिण मन करता है, तथा उच्वास औरनिःश्वास लेता है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार मी योनि में नमक और शकरा का द्रव मरा होता है जिससे गर्भ आचुषण किया दारा अपना पोषण करता है । यह किया चार सप्ताह तक चलती है, उसके बाद रकवाहिनियों वार नाल का निर्माण होता है ।
__ भगवती वाराधना के अनुसार दांत से चबाया तथा कफ से गीला माता के द्वारा मुक्त वाहार उदर में पिच मिलने से कड़वा हो जाता है । वह कड़वा अन्न एक-एक बूंद करके गथ बालक पर गिरता है । वह उसे सर्वांग से ग्रहण करता है । आधुनिक भाषा में इसे रालड़ी कहा जाता है । शिशु के पोषण के लिए दो नाल होती है-- नाता की रसहरण। अथात नाभिका नाल तथा पुत्र रसहरणी । माता की नाल दारा रस-गहण तथा परिण मन किया जाता है, वह नाल माता के शरीर के साथ प्रतिबद्ध होती है और गर्भस्थ शिशु से स्पृष्ट रहती है । दूसरी गर्भस्थ शिशु की नाल या नाही शिशु के शरीर के साथ प्रतिबद्ध तथा माता के शरीर से स्पृष्ट रहती है । इस नाड़ी से शिशु शरीर की पुष्टि करता है । इस नाड़ी. का वर्णन वायुर्वेदिक ग्रन्थों में मी मिलता है । दिगम्बर गंथों के अनुसार यह सातवें महीने में पैदा होती है जिससे शिशु आहार ग्रहण कर मना पोषण करता
१- भगवती, ११३४४ २- वही, १२३४५ ३- वही, ११३४८ ४- वही, ११३८ ५- Mind Alive,
६- भगवतो आराधना, १०११-२०१६ ७- माक्ती , १।३४६ ८- सुश्रुत, ३।२६, चरक ६।२३
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