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________________ बन्ध के मूल कारण योग दर्शन में ... अस्मिता, राग, द्वेष सब बन्धनों और दुःखों के मूल कारण पांच क्लेश हैं" - अविद्या, और अभिनिवेश । ये पांचों बाधा रूप पीड़ा को पैदा करते हैं । ये चित्त में विद्यमान रहते हुए संस्कार रूप गुणों के परिणाम को दृढ़ करते हैं। इसलिए इनको क्लेश के नामों से पुकारा जाता है । 1 ir सांख्य दर्शन की भाषा में इन पांचों - अविद्या को तमस्, अस्मिता को मोह, राग को महामोह, द्वेष को तामत्र और अभिनिवेश को अन्धतामिस्र के नामों से अभिहित किया गया है।" आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है- 'मूढ़ अधिक कोई भयानक वस्तु नहीं । मूढ़ आत्मा वाली कोई वस्तु इस संसार में नहीं है । " भयंकर वस्तु में विश्वास करना और अभयदान करने वाली वस्तुओं से दूर भागना - यह उस समय होता है जब आत्मा मूढ़ हो, दृष्टिकोण मिथ्या हो, अविद्या, अज्ञान और मोह से व्यक्ति ग्रसित हो । मिथ्यात्व और अविद्या आत्मा जिसमें विश्वास करता है, उससे जिससे डरता है, उससे बढ़कर शरण देने मिथ्यात्व का अर्थ है मिथ्यादर्शन, जो कि सम्यग्दर्शन से उलटा होता है । जो बात जैसी हो, उसे वैसी न मानना या विपरीत मानना मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व - विपरीत तत्त्व श्रद्धा के दस रूप बनते हैं" -- १. अधर्म में धर्म संज्ञा । २. धर्म में अधर्म संज्ञा । ३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा । ६. जीव में अजीव संज्ञा । ७. असाधु में साधु संज्ञा । ८. साघु में असाधु संज्ञा । ६. अमुक्त में मुक्त संज्ञा । ४. मार्ग में अमार्ग संज्ञा । ५. अजीव में जीव संज्ञा । १०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा । t जिसमें जो धर्म नहीं है, उसमें उसका भान होना अविद्या का सामान्य लक्षण है। अविद्या के पाव योग-दर्शन के अनुसार पशु के तुल्य अविद्या के भी चार पाद हैं" १. अनित्य में नित्य का ज्ञान । २. अपवित्र में पवित्रता का ज्ञान । ३. दुःख में सुख का ज्ञान । ४. अनात्म (जड़) में आत्म-ज्ञान । ' अविरति - विरति का अभाव, व्रत या त्याग का अभाव, दोषों से विरत न होना, मौद्गलिक सुखों के लिये व्यक्त या अव्यक्त पिपासा । मनोविज्ञान ने मन के तीन विभाग किये हैं १. अस् मन ( Id ) २. अहं मन ( Ego ) " तुलसी प्रसा
SR No.010245
Book TitleJain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnalal Jain
PublisherRatnalal Jain
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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