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तदा तानि विपक्षाणि, नेतणणि महामते।।
-महामति शिष्य इन्द्रियां जब राग-द्वेष के प्रभाव से आविष्ट होती । तभी रानु कालावी राग-च मुक्त इन्दियां शत्रु नहीं है।
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'जब गंगा के निर्मल पानी में फैक्ट्रियों का दृषित कचरा मिलता है तो वह पानी भी जय इषित हो जाता है। इन्दिय-शान की निर्मल-धारा में राग और रेप का कवरा मिल जाता है, उस भवस्था में वे शत्र बन जाती है। यह बात अध्यात्म की भूमिका पर कही जा सकती है। इन्टियां एक साधक के लिए अहितकर भी है और शत्रुता का काम भी करती है। जब इनमें मूळ का मिश्रण हो जाता है, तब अध्यात्म विकास में बाधक उत्पन्न हो जाती है। जब मोह की गंदी नाली इन्टियों के साथ जुड़ जाती है, इन्दियां इस से आविष्ट हो जाती है, तब वे चित्त की निर्मल धारा को कलुषित कर देती है। राग-द्वेष- क्रोध-मान-माया-लोभ पर विजय भगवान् महावीर ने क्रोध, मान, माया, लोप पर विजय पाने का एक सूत्र दिया है
उपशम (क्षमा) भाव से क्रोध की जीतना चाहिए। मार्दव विनम्रता से अपिमान को जीतना चाहिए। आर्जवसरलता के भाव से माया को जीतो और संतोष से लोग पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।
महर्षि पतंजलि ने कहा है" 'वितर्क बाधने प्रतिप मावनम् -एक पक्ष को तोड़ना है तो प्रतिपक्षी भावना को उत्पन्न करो।
कोप की प्रतिपक्षी भावना है-क्षमा अतः क्रोध-मान- माया-लोम के मार्यों को इनके प्रतिपक्षी समा, विनम्रता, ऋजुता तथा सन्तोष के पावों से शान्त किया जा सकता है। परिवर्तन का मनोवैज्ञानिक सिद्धांत
मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मूल प्रवृत्तियों में परिवर्तन से व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है। चार परितयों पारा यह परिवर्तन संभव है-"
१. अवदमन (REPRESSION)
२. विलयन (INHIBITION) ३. मार्गान्तरीकरण (REDIRECTION) ४. शोधन (SUBLIMATION) विलयन पद्धति के अन्तर्गत दो साधन है
१. निरोप और २. विरोष
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