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________________ मनोविज्ञान और कर्मशास्त्र-वैषम्य शारीरिक विलक्षणता पर आनवंशिकता का प्रभाव प्रत्यक्ष ज्ञात होता है, पर मानसिक विलक्षणताओं के सम्बन्ध में आज भी अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं। ___ क्या वृद्धि आनुवंशिक है ? अथवा वातावरण का परिणाम है ? क्या बौद्धिक स्तर का विकास किया जा सकता है ? इन प्रश्नों का उत्तर प्रायोगिकता के आधार पर नहीं दिया जा सकता । वंग-परंपरा और वातावरण से सम्बद्ध प्रयोगात्मक अध्ययन केवल निम्न कोटि के जवा पर ही किया गया है । बौद्धिक विलक्षणता का सम्बन्ध मनुप्य से है। इस विषय में मनप्य अभी भी एक पहेली बना हुआ है। जीवन और जीव--मनोविज्ञान और कर्म मनोविज्ञान के क्षेत्र में जीवन और जीव का भेद अभी तक स्पष्ट नहीं है । कर्म सिद्धान्त के अध्ययन में जीव और जीवन का भेद बहत ही स्पष्ट है । आनबंशिकता का सम्बन्ध जीवन में है, ब में ही कर्म का सम्बन्ध जीव मे है । उममें अनेकः जन्मों के कर्म या प्रतिक्रियाएँ संचित होती । इमलिए वैयक्तिक योग्यता या विलक्षणता का आधार केवल जीवन के आदि-बिन्दु में ही नहीं बोजा जा सकता । उससे परे भी खोजा जाता है, जीव के साथ प्रवाहमान कर्म संचय . (कर्म शरीर) में भी खोजा जाता है । शारीरिक मनोविज्ञान का मत-एक जोन में साठ लाख आदेश आज के शरीर विज्ञान की मान्यता है कि शरीर का महत्त्वपूर्ण घटक है-जीन । यह म्कार मुत्र है, यह अत्यन्त सूक्ष्म है । प्रत्येक जीन में माट-साठ लाख आदेश लिखे हुए होते है । हम गूमता की तो मात्र कल्पना ही की जा सकती है। मनष्य की शक्ति, चेतना, पुरपार्थ कृतल्ब वितना है ? एक-एक जीन में साठ-साठ लाख आदेश लिखे हुए हैं। प्रश्न होता है कि हमारा पुरुपार्थ, हमारा कर्तत्य, हमारी चेतना कहाँ है ? क्या यह 'श्रामामाम' और जीन में नहीं है? इसलिए तो इतनी तरतमता एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति म । मब का पुरुषार्थ ममान नहीं होता । सब को तना गमान नहीं होती । इस असमानता का कारण--प्राचीन भाषा में, कर्म-शास्त्र की भाषा में कम है। जंसा कर्म, वसा व्यक्ति एक बार गणधर गौतम ने भगवान महावीर मे पूछा"-"भंते ! विश्व में सर्वत्र तरतमता दिवाई देती है, किसी में ज्ञान कम है, किसी में अधिक इसका क्या कारण है ?' भगवान बोले-'गौतम! इस तरतमता का कारण है कर्म'. यदि आज के जीव-विज्ञानी से पूछा जाए कि विश्व की विषमता या तरतमता का कारण क्या है तो वह कहेगा कि सारी विषमता-तरतमता का एक मात्र कारण है 'जीन'। अईत्वचन, इन्दौर
SR No.010245
Book TitleJain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnalal Jain
PublisherRatnalal Jain
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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