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गर्भस्थ शिशु का आ निर्माण
जिस प्रकार भवन निर्माण के लिए अपदार्थों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार गर्भस्थ शिशु के मातज, पितृज, सात्म्यज, रसज और सत्वन आ होते हैं ।
मगवती सूत्र में गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा-- मंते ! गर्भस्थ जीव माता के कितने आ प्राप्त करता है? भावान् ने उत्तर दिया-- गौतम । जीव माता से तीन ग प्राप्त करता है-- मांस, शोणित और भेजा (मस्तिष्की य मज्जा) तथा पिता से भी तीन अंग ग्रहण करता है- अस्थि, अस्थि-पन्जा तथा बाल, (दादी, रोम, नख आदि) । २ शेष सभी अंग रज और वीर्य से बनते हैं ।३
चरक, सुश्रुत तथा अष्टांग हृदय में इसका विस्तृत विवेचन मिाता है । इनके अनुसार मांस , शोणित, मेद (मस्तिष्कीय पन्जा) नाभि, हृदय, यकृत, प्लीहा, गुर्दे, वस्ति, आंतें बादि मृदु भाग माता से उत्पन्न होते हैं । केश, दाढी, लोम, अस्थि, नख, दांत, स्नायु, धमनी बार शक आदि स्थिर भाग पुरुष से प्राप्त होते हैं । इसके अतिरिक वायुर्वेद के अनुसार इन्द्रियां, नाना योनियों में जन्म आदि चेतना से सम्बन्धित हैं । मायु, पारोग्य, उपोग, उत्साह, कांति, बल, सात्म्य ले प्रादुर्भूत होते हैं । शरा र निर्माण, वृद्धि, बल आदि रसज है । इसी प्रकार सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण से विभिन्न प्रकार को मानसिक अस्थाओं का निर्माण होता है । चरक में इसका बहुत विस्तृत वण न मिलता है ।
१- मटी, पृ० १३४-१३५ २- मावती, ११३५०-५२, तंदुलवचारिक प्रकाण क,सु०. ६ ३- वही ।
___५- अष्टांग, ३।५-८, सुश्रुत, ३।३१ ४- घरक, ३।१०-११, सुश्रुत, ३।३० ६- चरक, ३।१३-२०, पृ० १६२८-४०
अष्टांग हदय, ३।४-५