________________
शरीर में खरबों कोशिकाएं हैं, उन कोशिकाओं में गुण-सूत्र होते हैं । प्रत्येक गुण-सूत्र दस हजार जीन से बनता है । वे सारे संस्कार-सूत्र हैं । हमारे शरीर में 'छियालीस' क्रोमोसोम होते हैं । वे बनते हैं जीन से, संस्कार-सूत्रों से ।
संस्कार-सूत्रों से एक क्रोमोसोम बनता है । संस्कार-सूत्र सूक्ष्म है, जीन सूक्ष्म है । कर्म - परमाणु के संवाहक
कर्मबाद मनोविज्ञान से एक चरण और आगे है। कर्म परमाणु का संवहन करते व्यक्तिगत भेद का मूल कारण है, कर्म । सारे विभेद कर्मकृत हैं।
प्रत्येक जैविक विशेषता के लिए कर्म उत्तरदायी होता है । आनुवंशिकता, जोन, रासायनिक परिवर्तन -- कर्म के सिद्धान्त :
यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो आनुवंशिकता, जीन और रासायनिक परिवर्तन ये तीनों सिद्धान्त कर्म के ही सिद्धान्त हैं । जीन हमारे स्थूल शरीर का अवयब है और कर्म हमारे सूक्ष्मतर शरीर का अवयव है। दोनों शरीर से जुड़े हुए हैं—एक स्थूल शरीर से और दूसरा सूक्ष्मतर शरीर से । यह सूक्ष्मतरं शरीर कर्म शरीर है।
'फर्म बनाम जीन' पर अनुसन्धान का विषय
महाप्रज्ञ जी लिखते हैं" - 'एक दिन यह तथ्य भी अनुसन्धान में आ जाएगा कि जीन केवल माता-पिता के गुणों या संस्कारों का ही संवहन नहीं करते, किन्तु ये हमारे किए हुए कमों का भी प्रतिनिधित्व करते ''
अतः उपर्युक्त विवेचना का निष्कर्ष है कि अब 'जीन बनाम कर्म शोध का एक महत्वपूर्ण विषय है ।
सन्दर्भ स्थल
1. युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ, कर्मबाद पृ. 235, 2. महापुराण-आचार्य जिनसेन
विधि, सृष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् । free- ईवर चेति पर्याय कर्म वेधस् ।
3. नीतिशतक, 92, भर्तृहरिः
--ब्रह्मा येन कुलाल वनियमितो ब्रह्माण्ड भाण्डोदरे, विष्णुर्येन दणावतार गहने क्षिप्तो महासंकटे । रुद्रो येन कपालपाणि पुटके भिक्षाटनं सेवते । सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे ।। 4. कर्मग्रन्थ प्रथम, टीका देवेन्द्र सूरि :
।
- मा भृद्रकयोर्मनीषिजडयो: सद्रूप निरूपयोः, श्रीमद्-दुर्गतयोवंलाबलवतार्नीरोगरोगार्तयोः । सौभाग्याऽसुभगत्वसंगम जुषोस्तुल्येऽति नत्वेऽन्तरं, यत्तत्कर्म निबन्धनं तदपि नो जीव बिना युक्तिमत् ॥
अर्हतबचन इन्दौर