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"मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो कुछ किया जाता है वही कर्म कहलाता है।'
जब प्राणी अपने मन, वचन अथवा तन से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से कर्म-योग्य पुद्गल-परमाणओं का आकर्षण होता है।'
"आत्मा की राग-दृपात्मक क्रिया से आकाश-प्रदेशों में विद्यमान अनन्तानन्त कर्म के सूक्ष्म पुद्गल चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्म-प्रदेशों से संश्लिष्ट हो जाते हैं उन्हें कर्म कहते हैं।
'जैन लक्षणावली' के अनुसार-"अंजनचर्ण से परिपूर्ण डिब्बे के समान सूक्ष्म व स्थूल आदि अनन्त पुद्गलों से परिपूर्ण, लोक में कर्मरूप में परिणत होने योग्य नियत पुदगल जीव-परिणाम के अनुसार बन्ध को प्राप्त होकर ज्ञान-दर्शन के घातक (शानावरण व दर्शनावरण तथा सुख-दुःख, शुभ-अशुभ, आयु, नाम, उच्च व नीच गोत्र और अन्तसय रूप) पुद्गलों को कर्म कहा जाता है।" जातंजल योगदर्शन में कर्माशय . महर्षि पतंजलि लिखते हैं
'क्लेशमूलक कर्माशय-कर्म-संस्कारों का समुदय वर्तमान और भविष्य-दोनों ही जन्मों में भोगा जाने वाला है।"
कर्मों के संस्कारों की जड़... अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश-ये पांच क्लेश हैं । यह क्लेगमूलक कर्माशय जिस प्रकार इस जन्म में दुःख देता है, उसी प्रकार भविष्य में होने वाले जन्मों में भी दु:खदायक है।
जब चित्त में क्लेशों के संस्कार जमे होते हैं, तब उनसे सकाम कर्म उत्पन्न होते हैं । विना रजोगुण के कोई क्रिया नहीं हो सकती । इन रजोगुण का जब सत्त्व गुण के साथ मेल होता है, तब ज्ञान, धर्म, वैराग्य और ऐश्वर्य के कर्मों में प्रवृत्ति होती है। इस रजोगुण का जब तमोगुण से मेल होता है तब उसके उल्टे अज्ञान, अधर्म, अवैराग्य और अनश्वर्य के कर्मों में प्रवृत्ति होती है। यही दोनों प्रकार के कर्म शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य या शुक्ल-कृष्ण कहलाते हैं। आठ कर्म प्रकृतियां (जैन दर्शन)
जिस रूप में कर्म-परमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते है, और आत्मा का शरीर से सम्बन्ध स्थापित करते हैं, तथा जिन कार्यों से बन जीव संसार भ्रमण करते हैं, वे आठ हैं:
१. ज्ञानावरणीय- यह कर्म जीव की अनन्त ज्ञान-शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकता
२. वर्शनावरणीय-यह कर्म जीव की अनन्त दर्शन-शक्ति को प्रकट नहीं होने
देता।
पण १४, बंक ३ (दिसम्बर, ८८)