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________________ (सस्व प्रधान) दो रूप में हैं। जिन महान् योगियों ने क्लेशों को निर्बीज समाधि द्वारा उखाड़ दिया है, उनके कर्म निष्काम अर्थात् बासनारहित केवल कर्त्तव्यमात्र रहते हैं, इसलिए उनको इनका फल भोग्य नहीं है। जब क्लेशों के संस्कार चित्त में जमे होते हैं, तब उनने सकाम कर्म उत्पन्न होते हैं । शुभ-अशुभ आस्रव-पुण्य-पाप कर्म शुभ योग पुण्य का बन्ध-हेतु है" और अशुभ योग पाप का बन्ध-हेतु है" । पुण्य का अर्थ है, जो आत्मा को पवित्र" करे। अशुभ -पाप कर्मों से मलिन हुई आत्मा क्रमशः शुभ कर्मों का-पुण्य कर्मों का अर्जन करती हुई पवित्र होती है, स्वच्छ होती है। ____ आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं-- "जिसके मोह-राग-द्वेष होते हैं उसके अशुभ परिणाम होते है, जिसका चित्त प्रसाद-निर्मल चित्त होता है, उसके शुभ परिणाम होते हैं । जीव के शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभ परिणाम पाप हैं। शुभ-अशुभ परिणामों से जीव के जो कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है, वह क्रमशः द्रव्य-पुण्य और द्रव्य-पाप योगदर्शन के अनुसार "वे जन्म, आयु और भोग- सुख-दुःख फल के देने वाले होते हैं, क्योंकि उनके पुण्य कर्म और पाप कर्म -- दोनों ही कारण हैं ।"१२ आठ कर्मों में पुण्य-पाप प्रकृतियां प्रत्येक आत्मा में सत्तारूप से आठ गुण विद्यमान हैं१. अनन्त ज्ञान ५. आत्मिक सुख २. अनन्त दर्शन ६. अटल अवगाहन ३. क्षायक सम्यक्त्व ७. अमूर्तिकत्व ४. अनन्त वीर्य ८. अगुरुलघु भाव कर्मावरण के कारण ये गुण प्रकट नहीं हो पाते । जीव द्वारा बांधे जाने वाले आठ कर्म हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-ये ही क्रमशः आत्मा के आठ गुणों को प्रकट होने नहीं देते। कोकी मूल प्रकृतियों, उत्तर प्रकृतियों में पुण्य-पाप का विवेचन निम्न प्रकार मिलता हैमूल प्रकृतियां उत्तर प्रकृतियां पाप" प्रकृतियां पुण्य प्रकृतियां" १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३.वेदनीय १ (असात) १ (सात) ४. मोहनीय ५. आयुष्य ६. नाम ७.गोत्र ८. अन्तराय (नरक) (देव, मनुष्य, तिर्यंच) १ (नीच) |* - - २ प, अंक ४ (मार्च, ८५)
SR No.010245
Book TitleJain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnalal Jain
PublisherRatnalal Jain
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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