Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ கால்கத்தழக்கம் மற்ற மருத்து श्री जिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फण्ड (सुरत ) ग्रन्थाङ्क-५३ ॥ अहम् ॥ श्री खरतरगच्छेश्वर यंगम युगप्रधान भट्टारक शासन प्रभावक दादा श्री जिनदत्तसूरीश्वर विरचित चर्चर्यादि ग्रंथ संग्रह भाषान्तर सह βαφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφα மலைக்கக் கல் மக்கதை மாத்தத்தில் கற்க மத்தித்த்த்த்து अनुवादक: आचार्य श्रीजिनहरिसागर सूरि जैनाचार्य श्रीमजिनकृपाचन्द्रसूरिजी के शिष्य उपाध्याय मुनि सुखसागरजी के उपदेश से जीयागञ्ज निवासी सुश्रावक बाबू गोविन्दचन्दजी भूरा के द्रव्य साहाय द्वारा प्रकाशित । प्रकाशक:श्री जिनदत्त सूरि ज्ञान भण्डार सूरत। प्र०५०० की सं० २००४ 1 भेंट όφφφφφφφφφφφφφφφφφφς Jair Education international Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ spch:hchoch श्री जिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फण्ड (सुरत) प्रन्थाङ्क - ५३ ॥ अर्हम् ॥ श्री खरतरगच्छेश्वर यंगम युगप्रधान भट्टारक शासन प्रभावक दादा श्री जिनदत्तसूरीश्वर विरचित सं० २००४ ] मा. श्री कैerners मुरि ज्ञान मंदिर श्री महाबीर जैन आराधना केन्द्र, कोवा चर्यादि ग्रंथ संग्रह नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. अनुवादक: आचार्य श्रीजिनहरिसागर सूरि जैनाचार्य श्रीमज्जिनकृपाचन्द्रसूरिजी के शिष्य उपाध्याय मुनि सुखसागरजी के उपदेश से जीयागञ्ज निवासी सुश्रावक बाबू गोविन्दचन्दजी भूरा के द्रव्य साहाय द्वारा प्रकाशित । प्रकाशक:-- श्री जिनदते सूरि ज्ञान भण्डार सूरत হ`:মান: Ósochche भेट 113 [ प्र० ५०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पता श्री जिनदत्त सरि ज्ञान भण्डार ठि० गोपीपुरा, सीतलवाड़ी, उपासरा । मु० सूरत (गुजरात) पता-- बाबू गोविन्दचन्दजी भूरा पो० जियागंज (मुर्शिदावाद ) एवं ६६, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता। मुद्रक :एन० एम० सुराना सुराना प्रिनटिङ्ग वर्क्स, कलकत्ता। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की ओर से - आज मैं अतीव हर्ष और आनन्दका अनुभव कर रहा हूं कि हमारी ग्रन्थमाला के साथ जो प्रातः स्मरण आचार्य महाराज श्री जिनदत्त सूरिजी का नाम सम्बद्ध है उन्हीं के द्वारा रच गये ग्रन्थोंका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने का महत्वपूर्ण सुअवसर प्राप्त हुआ है । इन सम्पूर्ण ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद आचार्य व श्री जिनहरिसागर सूरिजी के सश्रम पूर्वव किया है । इन ग्रन्थों को पढ़ने से मालूम हुए बिना न रहेगा कि आचार्य महाराजजी ने अपने बड़े आलोचक और समय की बुरी प्रथाओं पर पूर्ण संकोच प्रहार करने में पक्ष थे । उन दिनों चैत्यवासी समाज का आवष्य था, उनका समस्त आचरण जैन संस्कृति के कलङ्क स्वरूप था। अतः युगकी जलती हुई समस्या आचार्य श्रीको सरन करनी ही पड़ी और इसमें रहकर अमृतमयी वाणीसे बझाई भी । अनुवादक महोदय को हम हार्दिक धन्यवाद देनेके साथ पाठकों से कर बद्ध प्रार्थना करते हैं कि वे इस अनुवादक ग्रन्थ समूह को हंसक्षीर न्याय से पढ़ो। प्रकाशक: Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनदत्तसूरि--प्राचीन-पुस्तकोद्धार--फण्डद्वारा मुद्रितपुस्तकें गणधरसार्धशतकां सामाचारीशतकम् तरगतप्रकरणम् कल्पसूत्र-कल्पलताव्याख्या जयतिहुअणवृत्तिः प्राकृतव्याकरण दिवालीकल्पः विधिमार्गप्रपा प्रश्नोत्तरसार्धशतकम् सप्तस्मरणटीका विशेषशतकः गाथासहस्री संदेहदोलावलीवृत्तिः अतिमुक्तकमुनिचरित्रम् पंचलिंगीप्रकरणम् गणधरसार्धशतकलघुवृत्तिः चैत्यवंदनकुलकवृत्तिः पुण्यसारकथानकम् अनुयोगद्वारसूत्र मूल युगप्रधानचतुष्पदिका कल्पद्रुमकलिका भाषांतर कल्पसूत्र-कल्पद्रुम कलिका टीका संवेगरंगशाला भा०-१ चर्चर्यादि ग्रन्थ संग्रहश्रीपालचरितप्राकृत-भाषांतर भाषांतर द्वादशपर्वव्याख्यान भाषा पंच प्रतिकमण जीवविचारादि प्रकरण भाषा, ( विधि सहित) कल्याणमंदिरस्तोत्रटीका राइ देवसि प्रति० भक्तामरस्तोत्रटीका (विधि सहित) द्वादशकुलकविवरणं जैन दर्शन पोथि षट्स्थानप्रकरणम् रत्नाकर पच्चीसी धन्यशालिभद्रचरित्रम् स्तवन संग्रह (मू) धन्यचरित्रम् गजल संग्रह ( भा० १) पुस्तकप्राप्तिस्थानम्श्री जिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार, गोपीपुरा, सीतलवाड़ी उपासरा, मु० सुरत । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ভएएए एए एए एए छाय जय eucation International द्रव्य सहायक : जीयागंज निवासी धर्मप्रेमी श्री मान बाबू गोविन्दचन्दजी भूरा कलकत्ता । १०ह एउ জजए, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फण्ड (सुरत ) ग्रन्थांक-५३ ॐ अहं नमः सुविहित शिरोमणि जङ्गम युगप्रधान भट्टारक श्री श्री श्री १००८ श्रीमज्जिनदत्तसूरीश्वर विरचिता सर्वतन्त्र स्वतन्त्र-सर्वज्ञकल्प-सुविहितविधिविधान प्रधान प्रचारक--महाकवि श्री श्री १००८ श्री मन्जिनवल्लवसूरीश्वर स्तुति रूपा चर्चरी अनुवादक-जैनाचार्य श्रीमज्जिनहरिसागरसूरिजी नमिवि जिणेसरधम्मह तिहुयणसामियह, पायकमलु ससिनिम्मलु सिवगयगामियह । करिमि जहट्ठियगुणथुइ सिरिजिणवल्लहह, जुगपवरागमसूरिहि गुणिगणदुल्लहह ॥ १ ॥ अर्थ-त्रिभुवनके स्वामी शिवगतिमें गये हुए जिनेश्वर श्रीधर्मनाथ स्वामीके चन्द्र के जैसे निर्मल चरण-कमलको नमस्कार करके, उस युगमें प्रधान ज्ञानवाले आचार्य देव गुणि समुदायमें दुर्लभ ऐसे श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराजके यथास्थित--सत्यगुणोंकी स्तुति को मैं करता हूं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चचरी सर्वविद्या प्रधान तर्कविद्या सम्बन्धिनी उनकी स्तुति विरोधालंकारसे बताते हैं जो अपमाणु पमाणइ छद्दरिसण तणइ, जाणइ जिव नियनामु न तिण जिवा कुवि घणइ । परपरिवाइगइंदवियारणपंचमुहु तसु गुणवन्नणु करण कु सक्कइ इक्कमुह ? ॥ २ ॥ अर्थ-जो अप्रमाण अर्थात् सर्वथा प्रमाण रहित होते हुए भी छह दर्शनों के प्रत्यक्षादि बहुत प्रमाणोंको अपने नामके जैसे जानते हैं। यहां विरोध रूप यह दीखता है कि जो जो स्वयं अप्रमाण है वह दूसरों के प्रमाणको किस तरह जान सकता है ? विरोध परिहार इस प्रकार है, कि-जो मान रहित होते हुए, अथवा अपरिमित गुणोंको धारण करनेसे अप्रमाण होते हुए षट् दर्शनोंके बहुत प्रमाणोंको निज नामके समान ऐसे जानते हैं, जैसे दूसरा कोई विद्वान नहीं जानता। जो परवादी रूप मदोन्मत्त हाथियोंको विदारण करनेमें पंचमुख-सिंहके समान है उन गुरुदेवके गुणवर्णनमें एक मुखवाला कौन समर्थ हो सकता ? अपितु कोई नहीं। जो वायरणु वियाणइ सुहलक्खानलउ, सद्दु असदु वियारइ सुवियक्खणतिलउ । सुच्छंदिण वक्खाणइ छंदु जु सुजइमउ, गुरु लहु लहि पइठावइ नरहिउ विजयमउ ॥ : अर्थ-जो सामुद्रिकोके शुभ लक्षणोंके स्थान भूत गुरु, व्याकरण शास्त्रको भली भांति जानते हैं। अच्छे विद्वानोंमें तिलक जैसे जो आचार्य महाराज वैयाकरण होनेसेशब्दोंको और अपशब्दों को भी अच्छी तरहसे शोचते हैं । जो अच्छे यति-विराम स्थानवाले नगण रगण सहित विशिष्ट जगण यगण आदि गणोंवाले छन्दोंके शोभन अभिप्रायसे होते हुए व्याख्यानमें गुरु लघु वर्गों को यथा स्थान प्रतिष्ठित करते हैं, अर्थात् श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज न्याय व्याकरण और छन्द : शास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान् थे। [इस श्लोक के तीसरे चौथे चरणोंका अर्थ ऐसे भी हो सकता है कि ]-सुयति मान्य जनहितकारी और और विजयी आचार्य महाराज स्वतन्त्रतापूर्वक छन्दोमय व्याख्यान फरमाते हैं, एवं गुणोंमें बड़े-छोटे मुनियोंको पाकर उनको यथा स्थान आचार्य उपाध्यायादि पदोंपर प्रतिष्ठित करते हैं । अर्थात् आप मधुर व्याख्यान करते हैं एवं सामर्थ्य संपन्न सूरि सम्राट् थे। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी सुहगुरुहु कव्बु अउब्बु जु वियरइ नवरसभरसहिउ लपसिद्धिर्हि सुकइहिं सायरु जो महिउ । सुकइ माहुति पसंसहि जे तसु साहुन मुहि अयाय मइजियसुरगुरुहु ॥ ४ ॥ अर्थ- जो नवरस पूर्ण अपूर्व काव्यों की रचना करते हैं, और जो ख्याति प्राप्त सुकवियों से सादर पूजित है । बुद्धि वैभवसे वृहष्पतिको मात देनेवाले उन शुभ गुरु महाराज को भलि प्रकार न जाननेवाले अनजान आदमी ही सुकवि रूप से माघ कवि की प्रशंसा करते हैं । कालियोसु कइ आसि जु लोइहिं वन्नियइ, ताव जाव जिणवल्लहु कइ ना अन्नियइ । अप्पु चित्तु परियाणहि तं पि विशुद्ध न य, ते वि चित्तकइराय भणिजहि मुनय ॥ ५ ॥ अर्थ — कालीदास नामक कवि था उसकी काव्यों में तबतक ही लोग तारीफ करते हैं जबतक उनने श्री जिनवल्लभरि महाराज रूप महाकविके स्वरूप को नहीं सुना है । जो थोड़े से चित्र काव्य को जानते हैं, और वह भी अशुद्ध, भोले भाले लोगों द्वारा माने हुए वैसे कवि आश्चर्य है कि कविराज रूप से गाये जाते हैं । यह बात गानेवालोंकी मुर्खता का यहि नाम मात्र है !! ' सुकइविसेसियवयणु जु प्पइराउकइ सु विजिणवल्लह पुरउ न पावइ कित्ति कइ | अवरि अणेयविणेयहिं सुकइ पसंसियहिं तक्कव्यामयलुद्धिहिं निच्चु अर्थ – सुकवियों द्वारा विशेषित वचन वाले गौड़वधादि रूप प्रबंन्धों के रचयिता - कवि श्री वाक्पतिराज एवं दूसरे सुकवि जो अनेक शिष्यों द्वारा प्रशंसित होते हैं, और उन काव्यामृत लुब्धपुरुषों द्वारा नमस्कृत होते हैं, वे भी श्रीमज्जिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज रूप महाकवि के सामने कुछ भी कीर्त्ति को नहीं पाते । इस श्लोक से पूज्येश्वर की प्रौढ कवित्व शक्ति की स्तुति की गई है । जिण कय नाणा चित्त तसु दंसणु विणु ३ नमं सियहिं ॥ ६ ॥ चित्तु हरंति लहु पुन्निहिं कउ लब्भइ दुलहु | Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चचरी सारई बहु थुइ थुत्तइ चित्तइं जेण कय, तसु पय कमलु जि पणमहि ते जण कयसुकय ॥७॥ अर्थ-जिनके बनाये हुए विचित्र चक्र-खड्ग आदि आकार बाले षट्चक्रिका सप्त चक्रिका गजबन्ध आदि चित्र काव्य झटपट चित्त को हरते हैं, उनका दुर्लभ दर्शन पुण्य के बिना कैसे प्राप्त हो सकता है । अपितु नहीं हो सकता, जिनके बनाये हुए गुप्त क्रिया-समसंस्कृत-प्राकृत अर्ध संस्कृत गोमूत्रिकादि चित्रमयसार भूत बहुत से स्तुति स्तोत्र प्रस्तुत हैं, उन कविसम्राट् श्रीमजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज के पद कमलों में जो प्रणाम करते हैं वे पुरुष कृतपुण्य माने जाते हैं। जो सिद्धतु वियाणइ जिणवयणुब्भविउ, तसु नामु वि सुणि तूसइ होइ जु इहु भविउ । पारतंतु जिणि पयडिउ विहिविसइहिं कलिउ, सहि ? जसु जसु पसरंतु न केणइ पडिखलिड ॥ ८ ॥ अर्थ-श्री जिनेश्वर देवके वदन-कमल द्वारा प्रवचन रूपसे पैदा होनेवाले सिद्धान्त को जो विशिष्टतया जानते हैं । जिनने जिनाज्ञा प्रवर्तन रूप विधि साधु श्रावकादि विषयसे संकलित श्री मद्गुरुपारतंत्र्यको प्रकट किया है। हे-सखे ? जिनका फैलता हुआ यश कहीं किसीसे भी स्खलित नहीं हुआ। ऐसे उन महा गीतार्थ गुरुदेवके दर्शनसे तो क्या नाममात्रसे भी सुनकर जो प्रसन्नचित्त हो जाता है, वह आत्मा भव्य-मोक्षका अधिकारी है। जो किर सुत्तु वियाणइ कहइ जु कोरवइ, करइ जिणोहिं जु भासिउ सिवपहु दक्खवइ । खवइ पावु पुवञ्जिउ पर अप्पह तणउं, तासु अदंसणि सगुणहिं झूरिजइ घणउं ॥ ९॥ अर्थ-गुरुगमसे सूत्रोंको विशिष्ट रूपसे जानकर जो उपदेश सबभव्यात्माओंको फरमाते हैं, और सम्यग् धर्मानुष्ठान उनसे करवाते हैं । स्वयं भी जिनाज्ञानुसारी आचारका पालन करते हैं । श्री जिनेश्वर देवोंने जिस ढंगसे मोक्ष मार्ग बताया वैसे ही वे दिखाते हैं । इस प्रकार भव्यात्माओंके पूर्वार्जित पापको खपा देते हैं। ऐसे महाज्ञानी श्री गुरुमहाराजके दर्शन वियोगमें गुणवान-भव्यात्मा अत्यन्त खिन्न चित्तवाले हो जाते हैं । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चचरो परिहरि लायपबाहु पट्टिउ विहिविसर पारतंति सहु जेण निहोडिं कुमग्गसउ । दंसिउ जेण दुसंघ-सुसंघह अंतरउ, वद्धमाणजिणतित्थह कियउ निरंतरउ ॥ १० ॥ अर्थ-अविधि प्रवृत्त चैत्य - - साधु भक्ति आदि लोक प्रवाहका त्याग करके सुगुरु पारतन्त्र्य' के साथ विधि और विषय प्रवर्तित करके जिनने सैकड़ों कुमार्गों का निराकरण करके दुःसंघ ओर सुसंघके अन्तरको जिनने दिखाया। इस प्रकार जिनने श्री वर्द्ध मान स्वामीके पुनीत शासनको अविच्छिन्न बनाया । जे उस्सुत्त पयंपहि दृरि ति परिहरइ, जोउ सुनाण-सुदंसण किरिय वि आयरइ | गडरिगामपवाहपवित्ति वि संवरिय जिण गीयत्थायरियइ सव्वइ संभरिय || ११ ॥ अर्थ- जो लोग उत्सूत्र बोलते हैं उनको जो दूरसे ही त्याग देते हैं । एवं जो सम्यग ज्ञान सम्यग् दर्शन और जिनाज्ञा विधिरूप सुक्रियाका आचरण करते हैं । गडरिया प्रवाह में पड़े हुए लोगों की प्रवृत्तिका संवरण करके जिनने पूर्व में होनेवाले समस्त गीतार्थों को याद किया है । ५ १ सुगुरु पारतंत्र - संविग्न गीतार्थ गुरुकी आग्या का पालन ( त्यागिगुरुओं की सेवा ) ( चै० कु० ) २ विषय -- तीर्थकरादिकोंकि आसातना विर्जके भक्ति करना । चेइहरि अणुचियई जि गीयइं वाइयइ तह पिच्छण थुइ थुत्तइं खिड्डइ कोउयइ | विरहंकिण किर तित्थु ति सव्वि निवारियर, तेहिं कहिं आसायण तेण न कारियइ ॥१२॥ अर्थ - देव मन्दिर में जिन अनुचित गाने बजाने प्रोक्षणक (नाटक) स्तुति और कौतुकादिकोंको, विरहांक श्रीहरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजने निश्चय करके निषिद्ध कर दिये थे, क्यों कि उनके करनेसे वहाँ - श्री वीतराग मन्दिर में अशातना लगती है । शिथिलाचारियों द्वारा फिरसे प्रवर्तित उन्हीं गाने बजाने प्रमोदजनक आदिकोंको उन श्रीजिनवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज द्वारा भी नहीं करने दिये जाते हैं । श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराज द्वारा निषिद्ध कार्य क्यों किये जाते थे ? Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी लोय - पवाह-- पयट्टहि कीरंतइ फुडदोसइ ताई वि समइनिसिद्धइ समइ कयत्थियहि, धम्मत्थीहि विकीरहिं बहुजणपत्थियहि ॥ १३॥ अर्थ - लोक प्रवाह में प्रवृत्तिवाले कुतूहलप्रिय पूर्व महागीतार्थों की आज्ञा में शंका न रखनेवाले, कुमार्गानुगामिनी कुमति द्वारा कदर्थना पाये हुए, और धर्मको चाहनेवाले लोग भी सिद्धान्त आगमोंमें निषेध किये हुए स्फुट दोषवाले मनुष्यस्वभाव कुतूहल प्रिय होने से बहुत से आदमी जिनको करना चाहते हैं ऐसे अनुचित कर्तव्यों को कर लेते हैं । जुगपवरागमु मन्निउ सिरिहरिभद्दपहु, पडिहयकुमयसमुहु कोहल पिइहि, संसयविरहियहि । प्रसंग विधि प्रकाशको बताते हैं । पयासियमुत्तिपहु | सिरिजिणवल्लहिण जुग पहाणसिद्धंतिण पयडिउ पयडपयाविण विहिपहु दुल्ल हिण ॥ १४॥ अर्थ - श्रीजिन चैत्य में शिथिलाचारियों द्वारा प्रवर्तित उन अनुचित गाने बजाने प्रेक्षक आदिका निषेध करते हुए युगप्रधान सिद्धान्त वाले प्रकट प्रतापवाले, पापियोंके लिये दुर्लभ ऐसे श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजीने- युग प्रधान बोधवाले कुमत समूहका प्रतिकार करनेवाले मुक्तिपथका प्रकाश करनेवाले भगवान् श्रीहरिभद्र सूरीश्वरजीको उपलक्षणसे समस्त प्रवचन प्रभावक आचार्य पुंगवोंको माना । एवं ऐसा करते हुए जिनने विधि मार्ग को प्रकाशित किया | विहि चेईहरु कारिउ कहिउ तमाययणु, तमिह अणिरसाचें उ कय निव्वुइनयणु । विहि पुण तत्थ निवेइय मिवपावणपउण, जं निसुणेविणु रंजिय जिणपवयणनिउण ||१५|| अर्थ - जिनने आगम देशना द्वारा प्रतिबोधित श्रावकोंसे विधि प्रधान जिन मंदिर बनवाया । ऐसे चैत्य ही । ज्ञानादि लाभको बढ़ानेवाले - आयतन होते हैं, ऐसा जिनने करवाया । वही साधु आदिकी मालिकीके विनाका -अनिश्राकृत चैत्य इस संसार में अपुनरागमनभाव रूप निवृति-मुक्तिको करनेवाला और लानेवाला होता है । तथोक्त जिन चैत्य Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी में मोक्ष पहुंचाने में तत्पर जिनाज्ञा पालन रूप विधि निश्चित रूपसे भव्यात्माओंको जिनने सुनाया, जिसको सुनकर श्री जिनप्रवचनसे चतुर लोक प्रसन्न हो गये । विधिको ही बताते हैं। जहि उम्सतु जणकमुकु वि किर लोयणिहिं, कीरंतउ नवि दीसइ सुविहिपलोयणिहिं निसि न हाणु न पइठ न साहु साहुणिहि, निसि जुवइहिं न पवेसु न नहुँ विलासिणिहिं ॥१६॥ अर्थ- जहाँ-विधि चैत्योंमें उत्सूत्र भाषण करनेवालोंका नन्दि-व्याख्यान आदि कोई भी आचारक्रम कराता हुआ सुविधि देखनेवाले-दीर्घदृष्टि लोगोंको नहीं दिखाई देता है। रात्रीमें स्नात्र भी नहीं होता है, न प्रतिष्ठा ही होती है । जहाँ रात्रीमें साधु-साध्वी या-स्त्रियोंका प्रवेश भी नहीं होता, न विलासिनी वेश्याओंका नृत्य ही । जाइ नाइ नं कयग्गहु मन्नइ जिणवयणु, कुणइ न निंदियकमु न पीडइ धम्मियणु । विहिजिणहरि अहिगारिइ सो किर सलहियइ, सुडइ धम्मु सुनिम्मलि जसु निवसइ हियइ ॥१७॥ अर्थ-जहाँ जाती-ज्ञातीका स्नात्र-पूजा आदिमें इसी जातीवाले या इसी ज्ञानीवाले करा सकते हैं-ऐसा कदाग्रह नहीं होता। इस प्रकारके पुनीत विधि चैत्यके लिये वही अधिकारी प्रशंसनीय होते हैं जो जिन वचनोंको मानते हैं । जो निन्दित आचरण नहीं करते । जो धार्मिक जनोंको पीड़ा नहीं पहुंचाते । जिनके हृदयमें शुद्ध सुनिर्मल धर्म निवास करता है जित्थुति-चउर सुसावय ट्ठिउदव्ववउ, निसिहिं न नंदि करावि कुवि किर लेइ वउ । बलि दिणयरि अत्यमियइ जहि न हु जिण पुरउ दीसइ धरिउ न सुत्तइ जाहि जणि तूररउ ॥१८॥ अर्थ-जहाँ विधिचैत्यमें तीन-चार सुयोग्य श्रावकोंकी देख रेखमें देव द्रव्य खर्च किया जाता है। कोई भी रात्रोमें नन्दी स्थापन कराकर व्रत नहीं लेता है। सूर्यके अस्त हुए Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी बाद श्री जिनेश्वर देव सन्मुख धरा हुआ नैवेद्य-बलि-जहाँ नहीं दीखता है। अर्थात् रातमें नैवेद्य भी नहीं चढाया जाता, और न लोगीके सो जानेपर बाजोंका अवाज ही होता हैबाजे रातमें नहीं बजाये जाते। जहिं रणिहि रहभमणु कयाइ न कारियइ, लउडारसु जहिं पुरिमु वि दितउ वारियइ । जहि जलकीडंदोलण हुति न देवयह, माहमाल न निसिद्धी कय अठ्ठाहियह ॥१९॥ अर्थ- जहाँ विधिजिन चैत्योंमें रात्रीमें कभी भी रथ यात्रा नहीं कराई जाती । जहाँ दांडिया रास देते हुए पुरुषोंको भी रोका जाता है। जहाँ जल क्रोडा देवताओंके हिंडोले आदि भी नहीं होते । अष्टाह्निक पूजा करने वालोंको माघमालाका निषेध नहीं है। यद्यपि उपदेश रसायनमें 'माघमाला' करनेका निषेध है। यहाँ जो “निषेध नहीं है"लिखा है यह दिगम्बर भक्त नये प्रतिबोध पाये पेल्हक श्रावक आदिके उपरोधसे प्रभूततर दूषणके अभावसे कहा है। उपदेश रसायनोक्त निषेध सर्वदेशीय है यहाँ 'एक देशीय विधि' है। जहि सावय जिणपडिमह करिहि पइ न य इच्छाच्छंद न दीसहि जहि मुद्धंगिनय । जहि उस्सुत्तपयट्टह वयणु न निसुणियइ जहि अज्जुत्तु जिण-गुरुहु वि गेउ न गोइयइ ॥२०॥ अर्थ-जहाँ विधिचैत्योंमें श्री जिन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा श्रावक नहीं कराते हैं। जहाँ भोले जी वो द्वारा बंदन कराते हुए स्वेच्छाचारी उत्सूत्र भाषी साध्वाभास व्याख्याननाहि देते हुए न तो देखे जाते हैं न सुने जाते हैं। जहाँ जिनेश्वर देवोंके या गुरुओंके अयोग्य भजन-गीत गहूँली-जिनसे श्री संसारिक वासनाओंकी वृद्धि हो ऐसे–नहीं गाये जाते । जहि सावय तबोलु न भक्खहि लिंति न य जहि पाणहि य धरंति न सावय सुद्धनय । जहि भोयणु न य सयणु न अणुचिउ बइसणउ, सह पहरणि न पवेसु न दु[उ बुल्लणउ ॥२१॥ देते हुए न तो देखे जाते हैं । | Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी अर्थ-जहाँ विधिचैत्यों में श्रावक न ताम्बूल खाते हैं और न लाते हैं । जहाँ शुद्धनीति संपन्न श्रावक लोग पैरोंमें जूतेनहीं धारण करते । जहाँ न भोजन होता है, न सोना होता है, न अनुचित बैठना होता है न शस्त्रों के साथ प्रवेश होता है और न गाली गलोज आदि दुष्ट बोलना ही होता है ॥२१॥ जहिं न हासु न वि हुड्डु न खिड्ड न रूसणउ, कित्तिनिमित्तु न दिज्जइ जहिं धणु अपणउ । करहि जि बहु आसायण जहिं ति न मेलियहि, मिलिय ति केलि करंति समाणु महेलियहिं ॥२२॥ अर्थ-जहाँ विधिचैत्योंमें न हँसी मजाक की जाती और न होड ही बदी जाती हैं । न जुए आदि खेले जाते हैं और न रोष ही किया जाता है । जहाँ कीर्तिके लिये न अपना धन ही दिया जाता है, जो बहुत आसातना करते हैं, उन नटविरोंको न इकट्ठा ही किया जाता है। क्यों कि वैसे लोग कुचेष्टाओंसे स्त्रियोंके साथ क्रीडा कुतूहल करने लगजाते हैं ॥२२॥ जहिं संकंति न गहण न माहि न मंडलउ जहिं सावयसिरि दीसइ कियउ न विंटलउ । ण्हवणयार जण मिल्लिवि जहि न विभूसणउ सावयजगिहि न कीरइ जहि गिहचिंतणउ ॥२३॥ - अर्थ-जहाँ न संक्रांतिमें न ग्रहण' में स्नान दान ही होता है न माध मासमें मंडल आदि की रचना हो की जाती है । जहाँ श्रावकोंके सिरमें पगड़ो फेटा आदि भी नहीं होता है । स्नान कराने वाले मनुष्योंको छोड़कर दूसरे लोग जहाँ विशेष-भूषण नहीं रखते हैं। जहाँ श्रावक लोग गृहव्यापारकी चिंता भी नहीं करते ॥२३॥ जहिं मलिणचेलंगिहिं जिणवरु पूइयइ मूलपडिम सुइभूइ वि छिवइ न सावियइ । आरत्तिउ उत्तारिउ जं किर जिणवरह तंपि न उत्तारिज्जइ बीयजिणेसरह ॥२४॥ अर्थ---जहाँ विधिचैत्योंमें मलिन वस्त्र एवं मलिन शरीरसे जिनेश्वरदेव नहीं पूजे जाते। पवित्र हुई भी श्राविका आकस्मिक स्त्री शरीर धर्मके हो जानेसे महान अनर्थकी संभावनासे मूल नायकजीकी प्रतिमाको स्पर्श नहीं करती हैं। क्योंकि कहा भी है-आउहिया बरा १ ग्रहणमें स्नान और दान करने से मिथ्यात्व लगता है। २ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० चचरी सन्निहिया न खमरा जहाँ पडिमा - किये हुए अपराधको सन्निहित देवता नहीं सहहन करते जैसे प्रतिमा । मूल नायकजी सबके आब्मुदय हेतु होते हैं अतः मूलनायकजीका स्पर्श स्त्रियाँ नहीं करती हैं । जो आरती एक स्थान पर जिनेश्वर देवके उतार दी जाती है, उसीको दूसरे स्थान पर जिनेश्वर देवके सन्मुख जहाँ नहीं उतारी जाती निर्माल्य रूप हो जाने से ||२४|| जहिं फुल्लई निम्मलु न अक्खय-वणहलइ मणिमंडणभूसणइ न चेलइ निम्मलइ | जित्थु न जइहि ममत्तु न जित्थु वि तव्वसणु, जहि न अत्थि गुरुदंसियनी इहि म्हसणु ॥ २५ ॥ अर्थ - जहाँ फूल निर्माल्य होते हैं न कि अक्षत – वनफल; और न मणि मण्डित अलंकार या निर्मल वस्त्र ही । जहां साधु यह मेरा मन्दिर है ऐसी ममता नहीं रखते हैं । न जहां उनका - साधुओंका रहना ही होता है। जहां गुरु-दर्शित नीतिको भुलाई नहीं जाती । २५ । जहिं पुच्छिय सुसावय सुहगुरुलक्खणइ, भणिहि गुणन्नुय सच्चय पच्चक्खह तणइ । जहिं इक्कुतु विकीरइ निच्छइ सगुणउ, समयजुत्तिविहडन्तु न बहुलोयह तणउ ॥ २६॥ अर्थ -- जहां पूछनेपर गुणज्ञ सुश्रावक सच्चे आत्म प्रत्यक्ष श्रीसद्गुरुमहाराज के शुभ लक्षणों को बताते हैं। जहां एक भी सुश्रावकका कहा हुआ गुण सम्पन्न कार्य निश्चयपूर्वक किया जाता है, और सिद्धान्त युक्तिसे मेल न रखने वाला बहुतसे लोगों का कहा हुआ कार्य नहीं किया जाता | २६ | जहि न अप्पु वन्निज्जइ परु वि न दुसियइ, जहिं सग्गुणु वन्निज्जइ विगुणु उवेहियइ । जहि किर वत्थु वियारणि कसु वि न बीहियइ जहि जिणवयणुत्तिन्नु न कह वि पर्यंपियइ ||२७|| अर्थ- जहां न अपनी स्तुति की जाती है न दूसरेको दूषित-निन्दित ही किया जाता है। जहां गुणवानकी तारीफ की जाती है एवं निर्गुणकी उपेक्षा। जहां वस्तु विचारणमेंयथार्थ बात कहने में किसीका भी भय नहीं माना जाता है । जहाँ कभी भी जिन वचनोंसे उनका हुआ - उत्सूत्र वचन - अविधि रूप नहीं बोला जाता है । २७ । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी इय बहुविह उस्सुत्तइ जेण निसेहियइ, विहिजिणहरि सुपमथिहि लिहिवि निदंसियइ । जुगपहाणु जिणवल्लहु सो किं न मन्नियइ, सुगुरु जासु सन्नाणु सनिउणिहि वन्नियइ ॥२८॥ अर्थ-इस प्रकार बहुतसे उत्सूत्र-अविधि अनुष्ठान विधि जिन चैत्योंमें जिनने निषिद्ध कर दिये, एवं चित्तोड-नरवर-नागपुर-मरुपुरादि नगरोंके विधि चैत्योंमें सुप्रशस्तियों में लिखा लिखाकर प्रचारित करा दिये हैं। जिनका विशिष्ट आगम संयत ज्ञान सिद्धान्तवेदि निपुण महापुरुषों द्वारा प्रशंसित किया गया है। ऐसे युग प्रधान सुगुरु श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज कैसे न माने जायें ? अवश्यमेव मानने चाहिये ॥२८॥ लविमित्तु वि उस्सुत्त जु इत्थु पयंपियइ, तसु विवाउ अइथोउ वि केवलि दंसियइ । ताई जि जे उस्सुत्तइं कियइ निरंतरइ, ताह दुरक जे हुति ति भूरि भवंतरइ ॥२९॥ अर्थ-लव मात्र भी जो उत्सुत्र यहां बोला जाता है उसका विपाक केवलि भगवान द्वारा बहुत अधिक दिखाया जाता है। उन्हों उत्सूत्र भाषणोंको एवं आचरणोंको जो निरंतर करते हैं, उनके लिये अनन्त भावान्तरोंमें भोगने योग्य दुःख होते हैं ।। २६ ।। उत्सूत्र भाषकोंकी कुछ चेष्टायें बताते है.--. अपरिक्खियसुयनिहसिहि नियमइगब्बियहि, लोयपवाहपयट्टिहिं नामिण सविहियइं। अवरुप्परमच्छरिण निदंसियसगुणिहिं, पूआविज्जइ अप्पर जिणु जिव निग्घिणिहिं ॥३०॥ अर्थ-श्रुतज्ञानियोंकी कसौटो द्वारा अपरीक्षित, निज मतिगर्वित, लोक प्रवाहमें प्रवृत, नाममात्रके सुविहित, शुद्ध चारित्रियोंके लिये तो कहना ही क्या ? आपसके शिथिलाचारियोंमें भी परस्पर मत्सरता रखते हुए अपने गुणोंको दिखानेवाले ऐसे निपुण साध्वाभास लोगों द्वारा दूसरोंकी निन्दा करके आत्माको पुजाते हैं ।। ३१ ।। इह अणुसोयपयट्टह संख न कु वि करइ, भवसायरि ति पडंति न इक्कु वि उत्तरइ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरो जे पडिसोय पयट्टहि अप्प वि जिय धरह, अवसय सामिय हुँति ति निब्वुइपुरवरह, ॥३१॥ अर्थ- संसारमें अनुश्रोत -- लोक प्रवाहके अनुकूल-सुखशीत प्रवृत्तिवालोंकी कोई गिनती भी नहीं करता है। सुखशीलिये लोग भवसागरमें पड़ते हैं, एक भी पार नहीं उतरता। जो लोक प्रवाहके प्रतिश्रोत-प्रतिकूल अध्यात्म मार्गमें प्रवृत्त होते हैं वे निश्चय हो मुक्तिपुरीके स्वामी हो जाते हैं ॥ ३ ॥ जं आगम-आयरणिहिं सहुँ न विसंवयइ, भणहि त वयणु निरुत्तु न सग्गुण जं चयइ । ते वसंति गिहिगेहि वि होइ तमाययण, गइहि तित्थु लहु लब्भइ मुत्तिउ सुहरयणु ॥३२॥ अर्थ-आगम और आचरणके साथ विसंवास विपरीतता नहीं रखता ऐसे और निश्चित रूपसे सद्गुण जिसको नहीं छोड़ते ऐसे वचनको जो बोलते हैं । ऐसे वे साधु गृहस्थके जिस घरमें रहते हैं वह स्थान भी आयतन-ज्ञानादि लाभको बढ़ानेवाला होता है। वहाँ जानेसे मुक्तिके सुखरत्नको झट्ट पाया जाता है। ३२। विधि चैत्य जो कि अनिश्राकृत होता है उसीके प्रसंगसे निश्राकृत चैत्यादिके स्वरूपको बताते हैं पासत्थाइविबोहिय केइ जि सावयइं, कारावहि जिणमंदिरु तंमइभावियइं । तं किर निस्साचेइउ अववायिण भणिउ, तिहि-पविहि तहि कीरइ वंदणु कारणिउ ॥३३॥ अर्थ-पासत्थादिकों द्वारा प्रतिबोधित कितनेक श्रावक तन्मत भावित चित्तवाले होकर श्रीजिनमंदिरको बताते हैं, उस चैत्यको अपवादसे निश्रा चैत्य कहा गया है। पर्व तिथि अष्टमी चतुर्दशी आदिमें एवं पर्यषणादि पर्वोमें वहां कारणसे बन्दन किया जा सकता है अनिश्राकृत चैत्यके अभावमें । ३३ । अनायतन बतानेकी इच्छावाले निशीथ सूत्रके प्रकारसे बताते हैं जहि लिंगिय जिणमंदिरि जिणदविण कयइं, मढि वसंति आसायण करहिं महंतियइ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी तं पकप्पि परिवन्निउ साहम्भियथलिय, जहिं गय वंदणकज्जिण न सुदंसण मिलिय ॥३४॥ अर्थ---जहाँ मात्र साधु वेशधारी शिथिला चारि जिन मंदिरमें या जिन द्रव्यसे निर्मित मठमें रहते हैं और भारी आसातना करते हैं। उसको प्रकल्प श्रीनिशीथ अध्ययनमें साधर्मिक स्थली बताया है। वहीं वन्दनके लिये गये हुए व्यक्ति सुदर्शन सम्यकत्वको नहीं पाते । ३४। ओघ नियुक्ति आदिमें बताये हुए प्रकारसे अनायतन बताते हैं ... ओहनिजुत्तावरसयपयरणदंसियउ, तमणाययणु जु दावइ दुक्खपसंसियउ । तहिं कारणि वि न जुत्तउ सावयजणगमणु, तहिं वसति जे लिंगिय ताहि वि पयनमण ॥३५॥ अर्थ- ओधनियुक्ति आवश्यक सूत्र आदि सिद्धान्तों में बताया हुआ निश्राकृत चैत्यरूप अनायतन, प्रशंसा करनेवालोंको नरकादि गति संबंधि दुःखको दिखाता है । अतः वहां कारण होनेपर भी श्रावकोंको जाना युक्ता नहीं है । वहाँ जो साध्वाभास रहते हैं उनको पद बन्दन करना भी अयुक्त है । ३५ । वहाँ जानेमें जो दोष लगता है वह बताते हैं--- जाइज्जइ तहि वावि (ठाणि) ति नमियहिं इत्थु जइ, गय नमंतजण पावहि गुणगणबुढि जइ। गइहि तत्थति नमंतिहिं पाउ जु पावियइ, गमणु नमणु तहिं निच्छइ सगुणहिं वारियइ ॥३६ ॥ अर्थ - हाँ ? वहाँ जाया जाय ? और लिंगधारी चैत्य वासियोंको नमस्कार भी किया जाय ?? यदि गये हुए नमस्कार करनेवाले भाविक जन अपने गुण समुदायकी वृद्धि को पाते हों। परन्तु वहाँ जानेवाले और नमस्कारको करनेवाले यदि पापको ही पाते हो, तो सद्गुणी-गीतार्थों द्वारा वहाँ जाना और चैत्यवासियोंको नमना निश्चय करके रोका गया है । ३६ । चैत्य वासियोंके जैसे ही कितसेक वसतिवास करनेवाले भी भावसे अनायतन रूप हैं। अत: उनका अदर्शनीयत्व प्रतिपादन करते हैं Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ चर्चरी वसहिहिं बसहिं बहुत्त उतसुत्त पयंपिरइ, करहिं किरिय जणरंजण निच्चु वि दुक्करय । परि सम्पत्तविहीण ति हीणिहि सेवियहिं, तिहिं सहुं दंसणु सग्गुण कुणहिं न पावियहिं ॥ ३७ ॥ अर्थ -- अत्यन्त उत्सूत्रको बोलनेवाले कई वसति में भी रहते हैं । जन रंजनार्थ हमेशा दुष्कर - कठोर क्रियाको भी करते हैं । परन्तु सम्यकत्व से हीन होने से वे हीन सम्यकत्व विकलों द्वारा ही से वे माने जाते हैं । इस लिये सद्गुणी - गीतार्थानुयायी सच्चे सम्यकत्व रसिक भव्यात्मा उन भाव पापाचारियोंके साथ दर्शन - सद्गुरु सम्बन्धी व्यवहार नहीं करते हैं । ३७ । अनिश्रा चैत्य निश्राचेत्य साध्वाभास वासित अनयतन चैत्य -- इन तीनों चैत्यों में गमनादि विषय विभागको बताते हैं । उस्सगिण विहिचेइउ पढमु निस्साकडु अववाइण दुइउ जहि किर लिंगिय निवसहि तमिह अणाययणु, तहि निसिद्धु सिद्धंति वि धम्मियजणगमणु ॥ ३८ ॥ अर्थ - उत्सर्ग रूपसे विधि चैत्यको जाने योग्य प्रथम प्रकाशित किया है। अपवाद रूपसे निश्राकृत -- जिसमें कि ज्ञाति गोत्र गच्छादिकी निश्रा रहती है, पर जहाँ चैत्य वासी नहीं रहते हैं, ऐसे― चैत्यको जाने योग्य दूसरा दिखाया है । जहाँ लिंगधारी साध्वाभास रहते हैं उसको यहाँ प्रवचनमें अनायतन माना है, और वहांपर धार्मिक जनोंको जानेके लिये भी सिद्धान्त में निषेध किया गया है । ३८ । पयासियउ " निंदंसियउ । इसी लिये कहते हैं- विणु कारणि तहि गमणु न कुणहि जि सुविहियइ, तिविहु जु चेइउ कहइ सु साहु वि मन्नियइ | त पुण दुबिहु कहेइ जु सो अवगन्नियइ, तेण लोउ इह सयलु वि भोलउ धंधियइ ||३९|| अर्थ - विना कारण वहाँ सुविहित साधु एवं सदाचारी श्रावक गमन नहीं करते हैं । अनिश्राकृत १ निश्राकृत २ और अनायतन ३ रूप तीन प्रकारके चैत्योंको जो कहते हैंप्रतिपादन करते हैं वे साधु भी मानने चाहिये दूसरे नहीं । उस चैत्यको जो दो प्रकार ही Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी बताता है अर्थात् अनायतन रूप तीसरे भेदको जो नहीं बनाता वह साधु भी अबगणना योग्य होता है । उस द्विविध चौत्य बताने वालेने इस संसारमें सारे ही भोले लोगोंको ठगा है । ३६ । इय निप्पुन्नह दुल्लह सिरिजिणवल्लहिण, तिविहु निवेइउ इउ सिवसिरिवल्लहिण । उस्सुत्तइ वारंतिण सुत्तु कहतइण, इह नवं व जिणसासण दंसिउ सुम्मइण ॥४०॥ अर्थ--इस प्रकार पुण्य हीनोंको दुर्लभ मोक्ष लक्ष्मीके बल्लभ श्रीजिनवल्लभ सूरीश्वरजीने तीन प्रकारके चैत्य बताये हैं । उत्सूत्र आचारणाओंको रोकते हुए और सूत्रोक्त अनुष्ठानोंको कहते हुए, उन सन्मतिने प्राचीन ऐसे भी श्री जिन शासनको नयेके समान दिखा दिया है । ॥४०॥ इक्कवयणु जिणवल्लहु पहु क्यणइ घणई, किं व जंपिवि जणु सकइ सक्कु वि जइ मुणइ । तसु पयभत्तइ सत्तह सत्तह भवभयह, होइ अन्तु सुनिरुत्तउ तव्वयणुज्जयह ॥४१॥ अर्थ-हे सखे ? तुम जानो कि श्रीजिनवल्लभ प्रभु एक वचनी होते हुए भी श्री वीरपट कल्याण-विधि-विषय-पारतंत्र्य-चैत्य साधुगत कृत्याकृत्य-छह हाथ प्रमाण साधु प्रावरण कल्प-कषायादि द्रव्याहत जलग्रहणादि बहुतसे वचनोंको कैसे बोल सकते हैं। एक वचनकी शक्तिवाला बहुत वचनोंको कैसे बोल सकता है । यह यहां विरोध सा दिखाते हुए, विरोधा भासालंकारको प्रकट किया है। विरोध परिहार यह है कि --श्री गुरुमहाराज का वचन सिद्धान्तसे अविरुद्ध और गीतार्थों के आचरणानुसारी होनेसे विपरीतताको नहीं रखता । वे वचन चैत्य वासियों द्वारा लुप्त प्रायः होनेसे शक इन्द्र भी मुश्किलसे यदि जाने तो जाने। __ अथवा यो अर्थ करना चाहिये कि श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराजके आगमानुसारी अनेक वचन जो कि पहिले कुछ बताये गये हैं - उनको हमारे जैसा एक वदन --- मुख वाला व्यक्ति कैसे बोल सकता है। ऐसे उन गुरुदेवके पद सेवक-भव्यात्मा-जो कि उन गुरुदेवके वचन आज्ञाको मानने में तत्पर हैं-उनके सातो भव-भयों का सुनिश्चित रूपसे अन्त हो जाता है ॥ ४१॥ इक्ककालु जसु विज्ज असेस वि वयणि ठिय, मिच्छदिहि वि वंदहिं किंकरभावठिय । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी ठोवि (णि) ठावि (णि) विहिपक्खु वि जिण अप्पडिखलिउ, फूडू पयडिउ निक्कवडिण परु अप्पर कलिउ ॥४२॥ अर्थ - एक साथ सारी विद्यायें जिनके मुख कमलमें स्थित हो गई है। जिनको मिथ्या दृष्टि लोग भी सेवक भावसे वन्दन करते हैं। जिनने ठाम ठाम विधि पक्षको अप्रति स्खलिततया स्फट रूपसे परमत और स्वमतको निष्कपट भावसे जानकर प्रकाशित एवं प्रचारित किया है | ||४२ || पयपंकउ पुन्निहि, पाविउ जण भमरु, १६ सुद्धनाण - महुपाणु करंतउ हुइ अमरु | सत्थु हुन्तु सो जाणइ सत्थ पसत्य सहि, कहि अव उवमिज्जइ केण समाणु सहि ? ॥४३॥ अर्थ- उन श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराजके चरण कमलको भव्यजन रूप भमरा बड़े पुण्य से प्राप्त करके शुद्ध ज्ञान सब मधुपानको करता हुआ अमर हो जाता है शुद्ध ज्ञानको पानेसे स्वस्वा होता हुआ समस्त पवित्र शास्त्रों को भी वह जानता है । हे सखे ऐसे परमोपकारी अनुपम गुरुदेवकी जिसके साथ उपमा दी जाय ? ॥४३॥ गुरु परंपरा बताते हैं वज्रमाणसूरिसीसु जिणेसरसूरिवरु, तासु सीसु जिणचन्दजईसरु जुगपवरु | अभयदेउ मुणिनाहु नवंगह वित्तिकरु, तसु पय-पंकय भसलु सलक्खणु चरणकरु ||४४ || अर्थ - श्री वर्द्धमान सूरीश्वरजी महाराज के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराज हुए । उनके शिष्य युगप्रधान यतीश्वर श्रीजिनचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज हुए । उनके शिस्य नवांग वृत्तिकार मुनिनाथ श्रीअभयदेव सूरीश्वरजी महाराज हुए । उन्हीं गुरुदेव के चरण कमलों में भमरेके समान सुलक्षण सम्पन्न कर चरणादि अंगों पांगवाले श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज हुए ||४४|| सिरिजिणवल्लहु दुल्लहु निप्पुन्नहं जगह, हउं न अंतु परियाणउं अहू जण ? तग्गुणह । सुद्धधम्म हउं ठाविउ जुगपवरागमिण, एउ वि मई परियाणिउ तग्गुण-संकमिण || ४५|| Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी अर्थ-हे भव्यात्मजनों ? पुण्य हीनजनो को दुर्लभ ऐसे श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरके उन पुनीत गुणों का अन्त में नहीं जानता हूं। परन्तु सद्गुण संक्रमणसे ऊनकी दया से ही यह भी मैंने जाना है कि श्रीयुगप्रधान आगमवाले गुरुदेवने मुझको शुद्ध-निष्पाप आगमोक्त आज्ञा पालन रूप धर्ममें (विधि मार्गमें ) स्थापित किया गया हूं ॥४॥ स्तुतिकी समाप्तिमें कर्ता अपने चरितसे दुःखी होते हुए सखेद फरमाते हैं --- भमिउभूरि भवसायरि तह वि न पत्तू मइ, सुगुरुरयणु जिणवल्लह दुल्लहु सुद्धमइ। पाविय तेण न निव्बुइ इह पारत्तियइ, परिभव पत्त बहुँत्त न हुय पारत्तियइ ॥४६॥ अर्थ-भवसागरमें मैंने अनन्त भ्रमण किया तो भी परम विवेकी शुद्धमति दुर्लभ ऐसे श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज रूप सद्गुरु रत्न मुझको नहीं मिले। इसो लिये इस लोक सम्बन्धी और परलोग सम्बन्धी निवृत्ति-शान्ति मैंने नहीं पाई । जन्म-जन्मांतरोंमें बहुतसे परिभव-दुःख पाये, कहींसे परित्राण नहीं हुआ। या यों कहिये, परलोक हितकारी ज्ञानादिका लाभ न मिला ॥ ४६॥ उपसंहार करते हैं इय जुगपवरह सूरिहि सिरिजिणवल्लहह, नायसमयपरमत्थह बहुजणतुल्लहह । तसु गुणथुइ बहुमाणिण सिरिजिणदत्त गुरु, करइ सु निरुवमु पावइ पउ जिणदत्तगुरु ॥४७॥ अर्थ-इस प्रकार निर्भीक शिरोमणि सुविहित खरतर विधि मार्गके परम प्रचारक युगप्रधान ज्ञान सिद्धान्त परमार्थ, भारेकमी जीवोंके लिये दुर्लभ ऐसे श्रीमज्जिनवल्लभ सूरीश्वरजी महाराजकी गुणस्तुतिको बहुमान पूर्वक, श्री सम्पन्न जिनेश्वर भगवानके दिये हुए शासनके पालनसे गुरुता प्राप्त ऐसा जो श्रीजिनदत्तगुरु-भव्य स्तुति करता है वह श्रीजिनेश्वर भगवान द्वारा दिया हुआ अर्थात् सिद्धान्तमें दिखाये हुए गुरु निरूपम - मोक्ष पदको प्राप्त करता है । ४७ ॥ १-श्रीजिनदत्त यह स्तुति कर्ताका अपना नाम है। यहां कई अव्युपन्न, प्राज्ञशिरोमणि लोग ऐसा विचार प्रचारित कर देते हैं कि देखो ? देखो ? कर्ता कविने अपने नामके साथ 'गुरु शब्द' जोड़ दिया क्या यह अभिमान नहीं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चचेरी है ??? । परन्तु यदि व्याकरणकी ओर जिसका ध्यान कुछ भी होगा ? वह ऐसे पदको भी चमत्कारिक ढंगसे समझेगा । यहां एक मनोरंजक श्लोक याद आ गया वह लिख दिया जाता है। अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथावुभावपि । बहुब्रिहिरहं राजन् ! षष्ठीतत्पुरुषो भवान् ॥ अर्थ-हे राजेन्द्र मैं और आप दोनों ही लोकनाथ हैं । पर फर्क इतना ही है कि बहुब्रिहि समाससे मैं लोकनाथ हूं, और आप षष्ठीतत्पुरुष समास से लोक हैं नाथ जिसके-ऐसा तो मैं 'लोकनाथ' हूँ और आप लोकोंके नाथ हैं इस लिये लोकनाथ हैं। अतः कर्त्ताने श्रीजिनदत्तगुरु शब्दका कैसे प्रयोग किया है यह ध्यानमें रखते हुए अर्थ होना चाहिये । इति इति चर्चरी समाप्त ୧୭ wwermendenewwwsemmersemeennenews Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत्प्रसिद्ध-दादाभिधान-जङ्गमयुगप्रधान-भट्टारक सुविहित खरतर विधि मार्ग प्रवर्तक सूरि सम्राट श्री श्री १००८ श्री मज्जिनदत्त सरीश्वर जी महाराज विरचित उपदेश (धर्म) रसायनरासः अनुवादक-श्रीमजिनहरिसागर सूरि पणमह पास-वीरजिण भाविण तुम्हि सबि जिव मुञ्चहु पाविण घरववहारि म लग्गा अच्छह खणि खणि आउ गलंतउ पिच्छह ॥१॥ अर्थ- हे भव्य लोगों ? श्री पार्श्वनाथ खामीको एवं शासनाधीश्वर श्री महावीर स्वामीको भावपूर्वक प्रणाम करो जिससे कि तुम सबलोग पापकर्मोंसे मुक्त हो जाओ। तुम घर व्यापारमें ही मत लगे रहो, प्रतिक्षण नष्ट होते हुए तुमारे आयुष्यको देखो ॥१॥ तब क्या करना चाहिये सो बताते हैं: लडउ माणुसजम्मु म हारहु अप्पा भव-समुद्दि गउ तारहु । अप्पु म अप्पहु रायह रोसह करहु निहाणु म सव्वह दोसह ॥२॥ अर्थ-पाये हुए मनुष्य जन्मको निरर्थक मत हारो। भव-समुद्र में पड़ी हुई अपनी आत्माको पार लगा दो। राग और द्वषके आधीन अपनी आत्माको मत बनाओ। सब दोषोंका खजाना भी मत बनाओ ॥२॥ दुलहउ मणुयजम्मु जो पत्तउ सहलउ करहु तुम्हि सुनिरुत्तउ । सुह गुरू-दसण विणु सो सहलउ होइ न कीवइ वहलउ वहलउ ॥३॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चचेरी ' अर्थ - दुर्लभ मनुष्य जन्म जो मिला है, उसको तुम निश्चय करके सफल बनाओ । निष्कारण परोपकारो श्री सद्गुरू महाराज के दर्शनके विना वह जोवनकी सफलता किसी प्रकार से झटपट ( शीघ्रता से ) नहीं होती है ||३|| श्री सद्गुरुका स्वरूप बताते हैं: २० • सुगुरु सु वुच्चइ सच्चर भासइ परपरिवायि नियरु जसु नासइ सव्वि जीव जिव अप्पर रक्खइ मुक्ख - मग्गु पुच्छिउ जु अक्खइ ||४|| अर्थ- सुगुरू वे कहे जाते हैं, जो सत्य बोलते हैं । पराई निन्दा करनेवालोंका समुदाय जिनसे दूर ही भागता रहता है । सब जीवोंको जो अपनी आत्माके समान रक्षा करते हैं। पूछनेपर जो मोक्षमार्गको बताते हैं ||४|| जो जिण-वयणु जहहिउ जाणइ द ख का वि परियाणा | जो उस्सग्गववाय वि कारइ उम्मग्गिण जणु जंतर वारइ ||५|| अर्थ - जो श्री जिनेश्वर देवके अविसंवादी वचनों को यथावस्थित - जैसा हैं वैसा ही जानते हैं । जो द्रव्य क्षेत्रकाल और भावोंको भी ( संयम निर्वाह आदि हेतु भी भली-भांति पहिचानते हैं । जो उत्सर्ग और अपवाद विधिको भी यथास्थान करवाते हैं उन्मार्ग में जाते हुए लोगोंको जो रोकते हैं ॥२॥ इसी प्रसंग में लोकप्रवाह रूप नदी और द्रव्य नदीका श्लेषालंकारसे श्लिष्टस्वरूप बताते हैं : इह विसमी गुरुगिरिहिं समुट्टिय लोयपवाह- सरिय कुपइट्टिय जसु गुरुपोउ नात्थि सो निज्जइ तसु पवाहि पडियउ परिखिज्जइ ॥६॥ अर्थ - इस लोक में कुगुरु वचनोंसे समुत्थित महान् अनर्थ हेतु विषम लोक प्रवाह रूप नदी कुत्सित ढंगसे प्रतिष्ठित है । जिसके पास सद्गुरु रूप जहाज नहीं है ऐसे Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4-7 च २१ 1 आदमीको वह बहा ले जाती है। उसके प्रवाह में पड़ा हुआ वह दुर्गतिके दुःखोंसे दुःखित होता है। यह तो हुआ लोक प्रवाद रूप नदीका वर्णन, इसी इकोकसे द्रव्यनदीका स्वरूप भी निकलता है जैसे कि - यहां बड़े पहाड़ोंसे लोगोंको बहा ले जानेवाली विषम नदौ उठती है और क- पृथ्वी में प्रतिष्ठित होती है जिसके पास गुरु-बड़ा जहाज नहीं होता उसको वह बहा ले जाती है । और उसके प्रवाह में पड़ा हुआ व्यक्ति खिन्न हो जाता है || ६ || साघणजड परि पूरिय दुत्तर किव तरंति जे हुंति निरूत्तर विरला किवि तरंति जि सदुत्तर ते लहंति सुक्खइ उत्तरुत्तर ||७|| अर्थ - वह लोक प्रवाह रूप नदी बहुत जड़ मनुष्योंसे व्याप्त होनेके कारण दुःखसे तिरने योग्य दुस्तर है। जो विशिष्ट विवेकके अभाव में उत्तर देने के काबिल नहीं होते अर्थात् निरुत्तर होते हैं वे -- उसको कैसे तिर सकते हैं। कितनेक विरले लोग जो विशिष्ट विवेक विचार सम्पन्न उत्तर देनेकी शक्ति रखते हैं वे सदुत्तर लोग उस लोक प्रवाह रूप नदीको तिर जाते हैं और उत्तरोत्तर स्वर्गापवर्गके सुखोंको प्राप्त करते हैं । द्रव्यनदी पक्ष में वह घने जलसे परिपूरित दुस्तर होती है। जो तिरनेकी शक्तिसे हीन - निरुत्तर हैं वे लोग उसको कैसे पार कर सकते हैं। जिनमें तिरनेकी शक्ति है अर्थात् जो सदुत्तर हैं, वे कोई विरला व्यक्ति ही उसको पार करते हैं, और उत्तरोत्तर कुटुम्ब संगम लक्ष्मी संभोग आदि सुखों को पाते हैं || || गुरु- पवहणु निष्पुन्नि न लब्भइ तिणि पवाहि जणु पडियउ बुब्भइ सा संसार - समुद्दि पट्टी जहि सुक्खह वात्ता वि पणठ्ठी ॥ ८ ॥ अर्थ - पुण्यहीन व्यक्तियोंको सद्गुरु रूप जहाज नहीं मिलता। इसलिये उस लोक प्रवाह में पड़ा हुआ प्राणी बहजा ही जाता है। वह लोक प्रवाह रूप नदी तो आखिर चार गति चौरासी लाख जीवा योनि भ्रमण रूप संसार समुद्र में जा गिरती है। जहां कि सुखों का मिलना तो दूर, सुखकी बात भो नष्ट हो जाती है। द्रव्य नदी पक्ष में गुरु प्रवहण -- बड़ा जहा जहाज - निर्धनको नहीं मिलता । तहिं गय जण कुग्गाहिहिं खज्जहिं मयर - गरुयदादग्गिहि भिज्जहि । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 , २ . चर्चरो अप्पु न मुणहि न परु परियाणहिं सुखलच्छि सुमिणे वि न माणहिं ॥९॥ अर्थ-उस लोक प्रवाह नदीमें पड़े हुए मनुष्य कदाग्रहोंसे खाये जाते हैं। अर्थात्दुराग्रहाधीन हो जाते हैं। अहंकारी कुगुरुओंके दृढ़ उत्सूत्र भाषण आचरण रूप दुराग्रहोंसे भेदे जाते हैं-अर्थात् अविधि मागमें कासित किये जाते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व मूर्छित हो जानेसे वे न आत्माको न पर को ही जान सकते हैं, एवं स्वप्न में भी मोक्षादि सुख लक्ष्मीको नहीं भोगते हैं । द्रव्य नदी पक्षमें - कुत्सित जलचर विशेष खाते हैं मगर आदि की बड़ी दाढ़ोंके अग्रभागसे विदारे जाते हैं मूच्छित हो जाते हैं आदि ॥६॥ उन लोक प्रवाह नदीमें पड़े प्राणियोंके लिये किसी सत्पुरुष विशेषकी चेष्टा बताते हैं गुरु-पवहण जइ किर कु वि याणइ परउवयाररसिय भड्डाणइ। ता गयचेयण ते जण पिच्छइ किंचि सजीउ सो वि तं निच्छइ ॥१०॥ अर्थ-लोक प्रवाह नदो में पड़े जीवों के उद्धारके लिये यदि कोई परोपकार रसिक सत्पुरुष श्री सद्गुरू महाराज रूप जहाज को पतित प्राणियों की अनिच्छा रहते हुए-हठात् जबरदस्ती भी ले आता है, उस समय वह उन चेतना विकल मूच्छित जनों को देखता है। उनमें अगर कोई कुछ सजीव होता है वह भी अपने कमे दोष से उस सद्गुरु महाराज रूप जहाज को नहीं चाहता अर्थात् आज्ञा पालन रूप सुविहित विधि मार्ग में प्रवृत्ति नहीं करता । द्रव्य नदी पक्ष में अर्थ स्पष्ट ही है ॥ १० ॥ कट्टिण कु वि जइ आरोविज्जइ तु वि तिण नीसत्तिण रोविज्जइ । कच्छ ज दिज्जइ किर रोवंतह सा असुइहि भरियइ पिच्छंतह ॥११॥ अर्थ-यदि परोपकार रसिक सत्पुरुष कष्ट करके भी लोक प्रवाह नदी पतित जीव को श्रीसद्गुरु महाराज रूप जहाजमें आरोपित करे तो भी निःसत्वता-निरवल चित्तवाला होनेसे वह रोने लग जाता है। यदि रोते हुए को रोकने के लिये मजबूती की लंगौट-दी जायबंधाई जाय तो उसको भी वह अंशुची से देने वाले के देखते हुए ही भर देता है-अर्थात् Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चचरी सांक २३ अविधि आचरण करनेके साथ २ निरर्थक निंदा प्रचार में वह पतित जन लग जाता है ॥ ११ ॥ बहुलता एवं शक्ति विकलता के कारण से ऐसे अनधिकारीके लिये फलाभाव श्लेषालंकार से बताते हैं : क कायरु ? धम्मु सु धरणु कु सक्कइ तहिं गुणु कवणु चडावर सायरू ? तसु सुहत्थु निव्त्राणु किं संघइ ? मुक्ख किं करइ राह किं सुविधइ ॥ १२ ॥ अर्थ - कायर पुरुष धर्मको क्या धारण कर सकता है ? अगर धारण भी कर ले तो उत्तरोत्तर वृद्धिलक्षण गुणको सादर कौन आरोपित कर सकता है ? उसके सुखके लिये निर्वाण हेतु अनुष्ठानको भी कौन कृपालु जोड़ सकता है ? इस हालत में वह मोक्ष भी क्या प्राप्त कर सकता है और राधा - आत्माकी दिव्य धाराको भी वह क्या बींध सकता है ? श्लेषालंकार में पक्ष में 'धम्मु' का अर्थ मनुष्य, 'गुणु' का अर्थ प्रत्यवा दोरी, 'नि-व्वाणु' का अर्थ - निश्चित बाण, 'मुक्ख' का अर्थ वाण छोड़ना, 'राह' का अर्थ उल्टे सीधे आठ चक्रोंके बीचमें रहो हुई, काष्ठ- पुतलीकी आंखकी कीकी करना चाहिये । दोनों का निष्कर्ष यह होता है कि न कायर व्यक्ति धर्मको धारण करके यावत मोक्षास्थित आत्माकी दिव्य धाराको ही वींध सकता है, और न कायर मनुष्य धनुष्यको धारण करके राधावेध कर सकता है ||१२|| कायर के समान ही अस्थिरवृत्ति वाला भी धर्म में अयोग्य होता है यह बताते हैं: तसु किव होइ अथिरु जु जिव सुनिव्वुइ- संगम ? किक्काणु तुरंगमु । मग्गि विलग्गइ कुप्प हि पडइ न वायह भरिउ जहिच्छइ अर्थ - जो किक्काण देशीय घोड़के जैसा मन वचन और कायासे अत्यधिक चपलअस्थिर है, उस व्यक्तिके सुनिवृत्ति -‍ - परम समाधिका संगम कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं । वह लोकप्रवाह रूप कुमार्ग में पड़ता है। ज्ञानादि सुमार्ग में तो वह लगता ही नहीं । अविद्या जनित अहंकारवाद रूप कुपित वायुसे भरा हुआ जैसी मनमें आती है, वैसी यथेच्छ कुचेष्टायें करता है । बेलगाम किक्काण देशीय चंचल घोड़ा भी वायुसे भर जाता है, और कूदता हुआ, मार्गको छोड़ कुमार्ग में पड़ता है । सुखसे वंचित हो जाता है । वग्गइ ॥ १३ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चरी खज्जइ सावएहि सुबहुत्तिहिं भिज्जइ सामएहिं गुरुगत्तिहिं । वाग्घसंघ-भय पडइ सु खड्डह पडियउ होइ सु कूडर हड्डह ॥१४॥ अर्थ-लोक प्रवाह रूप कुपथमें पड़ा हुआ वह अस्थिर विचारों वाला मुग्ध जीव बहुतसे नामधारी श्रावकों द्वारा धनसे खाया जाता है। सामद --कोमल पापोपदेश देनेवाले कुगुरुओंसे भेदा जाता है-कुवासना वासित किया जाता है। महा भयोत्पादक बाघके जैसे निर्गुण-दुष्ट बहुजनोंके संघके भयसे अविधि आचरणके बाद नरक रूप खड्डे में गिरता है। पतित होनेपर निर्गण जीवन होनेसे केवल हड्डियोंका ढेर मात्र रह जाता है। अर्थान्तर पक्षमें-सावएहिं - श्वापद जंगली जानवरोंसे खाया जाता है। सामरहिं गुरुगत्तिहिं - गुरूमात्र हाथियोंसे भेदा जाता है। खड्डे में गिरकर केवल हड्डियोंका ढेर हो जाता है ॥१४॥ तेण जम्मु इहु नियउ निरत्थर नियमत्थइ देविणु पुल्हत्थउ । जइ किर तिण कुलि जम्मु वि पाविउ जाइत्तु तु वि गुण न स दाविउ ॥१५॥ अर्थ-उस कायर एवं अस्थिर स्वभावी पुरुपने इस संसारमें सद्धर्मकी विकलतासे अपना माथा ठोककर अपने जन्मको निरर्थक बना दिया। यदि उसने अच्छे कुलमें जातियुक्त-सुन्दरतादि सम्पन्न जन्म भी पाया तो भी विधिमार्ग-सद्धर्माचिरणरूप लोकोत्तर गुणको नहीं दिखाया ॥१॥ जइ किर धरिससयाउ वि होई पाउ इक्कु परिसंचइ सोइ । कह वि सो वि जिदिक्ख पवज्जइ तह वि न सावज्जई परिवज्जइ ॥१६॥ अर्थ-तथोक्त अस्थिर स्वभाव वाला पुरुष यदि सौ वर्षकी आयुष्य वाला हो तो भी वह केवल पापका ही संचय करता रहता है। किसी भी तरहसे अगर वह नी दीक्षाको ले भी लेता है तो भी सावद्य सपाप कार्योको नहीं छोड़ता है ।।१६।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन गज्जइ मुडह लाअह अग्गइ लक्खण तक्क वियारण लग्गइ । भणइ जिणागमु सहु वक्खाणउं तं पि वियारमि जं लक्काणउं ॥१७॥ अर्थ-तथोक्ति दीक्षित साध्वाभास भोले लोगोंके सामने गर्जता है। लक्षणव्याकरण, और तर्क नहीं जानता हुआ भी, जानता हूं इस ढोंगसे विचारने लगता है। सभी जैन आगमोंका मैं व्याख्यान करता हूं जो लौकिक श्रुति-स्मृति, पुराणादि शास्त्र हैं उनको भी मै विचारता हूं-जानता हूं। जो कि यथार्थमें जानता कुछ नहीं ॥१७॥ अडमास चउमासह पारइ मलु अभितरु बाहिरि धारइ । कहइ उस्सुत्त-उम्मग्गपयाई पडिक्कमणय-वंदणयगयाइं ॥१८॥ अर्थ-जो आधा मास चार मास आदि तप पारता है। अन्दर बाहिर मल-मलिनता भी धारण करता है, श्रावकोंको प्रतिक्रमण नहीं करना चाहिये, साधु आदिको भी प्रतिक्रमणमें क्षेत्र देवता आदिके कायोत्सर्ग नहीं करना चाहिये, अन्तमें तीन स्तुति 'नमोस्तु वर्द्धमानाय'-आदिके अनन्तर नमुत्थुणं नहीं बोलना चाहिये साध्वियां खड़ी २ ही द्वादशावत वंदन करें, इत्यादि प्रतिक्रमण सम्बन्धी और वंदन सम्बन्धी उत्सूत्र-उन्मार्ग रूप अविधि पदोंको कहता है ॥१८॥ पर न मुणइ तयत्थु जो अच्छइ लोयपवाहि पडिउ सु वि गच्छइ । जइ गीयत्थु को वि तं वारइ ता तं उढिवि लउडइ मारइ ॥१९॥ अर्थ- परन्तु वह लोक प्रतिक्रमणादि विधिके अर्थको नहिं जानते हैं, यहांपर दशिका पर्यन्त वस्त्रको पकड़ कर उत्कटिकासन रहा हुआ प्रति लेखणा करे यह अर्थ है, पर सच्चे परमार्थको नहिं जानके साध्वियों से खड़े-खड़े बंदन देवाते हैं, सत्य पर्मार्थ होने पर भी मल धारक लोक प्रवाहमें सामिल होकर चलते हैं, यदि कोई भी गीतार्थ पुरुष उसको ऐसा करनेसे रोकता है तो वह लट्ठसे मारनेको उठता ।।१६।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन धम्मिय जणु सत्थेण वियारइ सु वि ते धम्मिय सत्थि वियारइ । तव्विहलोइहि सो परियरियउ परिहरियउ ||२०| तर गीयत्थिहि सो अर्थ - धार्मिक जन उत्सूत्रभाषकों की प्रवृत्तिको शास्त्रोंसे विचारते हैं - अयोग्य बताते हैं, और वह उत्सूत्र भाषक उन धार्मिक जनों को शस्त्रोंसे विचारते हैं-मारने को दौड़ते हैं । इस प्रकार उच्छृङ्खल प्रवृत्तिवाले उत्सूत्र आचरण करनेवाले लोगों से वह अपना लिया जाता है । इसलिये गीतार्थ महापुरुष उसका त्याग कर देते हैं ||२०|| जो गीयत्थु सु करइ न मच्छरु २६ सुवि जीवंतु न मिल्लइ मच्छरु | सुद्धइ धम्मि जु लग्गइ विरलउ संघि सुबज्यु कहिजइ जवलउ ||२१|| अर्थ - जो गीतार्थ होता है, वह मात्सर्य भावको नहीं रखता और जो वह मलादि बाह्य प्रवृत्तिधारक उत्सूत्राचारी गीतार्थोके प्रति यावज्जीवन मात्सर्यको नहीं छोड़ता है । कोई विरला पुरुष ही शुद्ध धर्म में प्रवृत्तमान होता है । वह भी प्रवाह पतित जन समूह द्वारा चाण्डाल आदिके जैसे जुदा संघ बाह्य माना जाता है ॥२१॥ पइ पइ पाणिउ तसु वाहिज्जइ उवसमि थक्कु सो वि वाहिज्जइ । तरसावय सावय जिव लग्गहिं धम्मियलोयह च्छिड्डइ मग्गहिं ॥२२॥ अर्थ- शुद्ध विधि मार्ग प्रवृत्त धर्मात्मा पुरुषके पद-पदपर छिद्र ढूँढ़े जाते हैं और शान्त वृत्ति रखते हुए भी वह उस प्रवाह पतित दुष्ट संघके द्वारा सताया जाता है। दुष्ट संघ के श्रावक श्वापद - जङ्गली जानवरोंके जैसे पीछे लगते हैं । धार्मिक लोगोंके छिद्रोंको ढूँढ़ते रहते हैं ||२२|| अविहिकरेas विहिचेईहरि करहि उवाय बहुत्ति ति लेवइ । जइ विहिजिणहरि अविहि पयट्टइ ता घिउ सत्तुयमज्झि पलुइ ॥२३॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन २७ अर्थ-वे प्रवाह पतित कुश्रावक विधि चैत्यमें अविधि करानेके लिये बहुतसे उपाय काममें लाते हैं । परन्तु उनकी चलती नहीं, यदि कदाचित् विधि जिन मन्दिरमें अविधिप्रमादाचरण हो जाय तब तो, मानो 'सत्तूमें घी पड़ा हो' वैसे वे मानने लगते हैं ॥२३॥ जइ किर नरवइ कि वि दूसमवस ताहि वि अप्पहि विहिचेइय दस। तह वि न धम्मिय विहि विणु झगड़हि जइ ते सव्वि वि उद्यहि लगुडिहि ॥२४॥ अर्थ-यदि दुःषम कालके प्रभावसे कोई राजा उन अविधिकारियोंको दो चार दस विधिचैत्य पूजा करनेके लिये सौंप दे, तो भी धार्मिक जन विधिके बिना उन अविधिकारियोंसे अगर वे सबके सब लट्ठ लेकर उठे तो भी झंगड़ा नहीं करते हैं ॥२४॥ निच्चु वि सुगुरू-देवपयभत्तह पणपरमिटि सरंतह संतह । सासण सुर पसन्न ते भव्वइं धम्मिय कजि पसाहहि सव्वइं ॥२५॥ अर्थ--इस प्रकार होने पर भी, हमेशा देव गुरुकी भक्ति करनेवाले, श्री पंचपरमेष्ठी भगवानका ध्यान करनेवाले, उन विधि करनेवाले सज्जन पुरुषोंके सारे मन चाहे धार्मिक कार्य प्रसन्न हुए शासन देव सिद्ध कर देते हैं ।।२।। धम्मिउ धम्मुकज्जु साहंतउ परु मारइ कीवइ जुज्झंतउ। तु वि तसु धम्मु अत्थि न हु नासइ परमपइ निवसइ सो सासइ ॥२६॥ अर्थ-विधि मार्गकी साधना करते हुए धाम्मिक जनको यदि कोई अविधि करनेवाला दूसरा व्यक्ति मार भी दे तो उसकी -विधि साधकका धर्म रहता ही है, नष्ट नहीं होता मर करके भी वह विधि साधनाके प्रभावसे शाश्वत ऐसे परम पदमें वास करता है ॥२६॥ सावय विहिधम्मह अहिगारिय जिज्ज न हुति दीहसंसारिय Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन अविहि करिति न सुहगुरुवारिय जिणसंबंधिय धरहि न दारिय ॥२७॥ अर्थ-जो श्रावक विधि धर्मके अधिकारी होते हैं, वे दीर्घ संसारी-बहुकाल तक संसारमें भटकनेवाले नहीं होते । सुविहित गुरुसे रोके हुए वे अविधिको नहीं करते हैं, और न जिनमन्दिर सम्बन्धिनी वेश्याको ही धारते हैं-रखते हैं ॥२७॥ -विधि बताते हैंजइ किर फुल्लइ लब्भइ मुल्लिण तो वाडिय न करहि सहु कुविण । थावर घर-हट्ठइ न करावहि जिणधणु संगहु करि न वडारहि ॥२८॥ अर्थ-यदि मूल्य-कीम्मतसे फूल मिल जायँ तो कुएँके साथ बगीचा न बनावे । स्थावर-मिल्कतमें घर-हाट भी मन्दिरके नामसे न बनावे । देव द्रव्यका संग्रह करके उसको न बढ़ावे ॥२८॥ जइ किर कु वि मरंतु घर-हट्टइ देइ त लिज्जहि लहणावट्टइं । अह कु वि भत्तिहि देइ त लिज्जहि तब्भाडयधणि जिण पूइज्जहि ॥२९॥ अर्थ-यदि कोई मरते समय घर-दुकान मन्दिरके नाम अपना कर्ज छुड़ानेके लिये देता है तो वह लेना चाहिये। अथवा कोई भक्तिसे देता भी है तो लेना चाहिये और उसके भाडेकी आमदनी की जिनपूजा आदिमें लगा तेनी चाहिये ॥२६॥ दित न सावय ते वारिज्जहिं . धम्मिकज्जि ते उच्छाहिज्जहिं । घरवावारु सव्वु जिव मिल्लहि जिव न कसाइहिं ते पिलिज्जहि ॥३०॥ अर्थ-मन्दिरके नाम कर्ज पेटे या भक्तिसे घर-हाट आदि देते हुए श्रावकोंको रोकना नहीं चाहिये, बल्कि धर्मकार्यमें उत्साहित करते जाना चाहिये। जिससे वो घर व्यापारको छोड़ें और क्रोथमान आदि कषायोंसे भी वे न पोडे जायें ॥३०॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २% उपदेश रसायन तिव तिव धम्मु कहिंति सयाणा जिव ते मरिवि हुँति सरराणा । चित्तासोय करंत ठाहिय जण तहिं कय हवंति नट्ठाहिय ॥३१॥ अर्थ-सज्जन गीतार्थ पुरुष वैसे-वैसे धर्मको फरमाते हैं जिसको आचरण करके मरके भी मनुष्य देव-देवेन्द्र आदि हो जाते हैं । चैत्र और आश्विन मासमें श्रावक जन अष्टाह्निका -शाश्वतयात्रा करते हैं, जिसके करनेसे वे नष्ट चिन्तावाले व्याधिरहित हो जाते हैं ॥३१॥ जिव कल्लाणयपुट्टिहि किज्जहिं तिव करिति सावय जहसत्तिहिं । जा लहुडी सा नचाविज्जहिं वड्डी सुगुरु-वयणि आणिज्जइ ॥३२॥ अर्थ-श्री जिनेश्वर देवोंके जन्म कल्याणक आदिके पीछे देवता अष्टाह्निक महिमा नंदीश्वर द्वीपमें करते हैं । वैसे श्रावक भी यथाशक्ति अष्टाह्निकादिक महोत्सव करते हैं। उसमें जो लड़कीये नाचनेवाली होती हैं वे नचाई जाती हैं। सुगुरुकी आज्ञासे बड़ी नाचनेवाली लानी हो तो लानी चाहिये ॥३२॥ जोव्वणस्थ जो नचइ दारी सा लग्गइ सावयह वियारी । तिहि निमित्तु सावयसुय फट्टहिं जंतिहि दिवसिहिं धम्मह फिट्टहिं ॥३३॥ अर्थ-युवावस्थावाली जो वेश्या नाचती है वह श्रावकोंको ठगने लगती है । उसके लिये श्रावकोंके लड़के परस्परमें विरक्त चित्तवाले हो जाते हैं लड़ते हैं । एवं कुछ दिनोंके बाद धर्मसे भी भ्रष्ट हो जाते हैं ॥३३॥ १-आजकल जैनेतर मन्दिरोंमें जैसे वेश्याएँ नाचती हैं वैसे हो चैत्यवासियोंके जमानेमें जैन मन्दिरोंमें नाचती थीं । जैन शास्त्रोंमें मन्दिरमें नृत्य निषेध नहीं होनेसे प्रस्तुत प्रवृत्ति होती थी। इसमें जो कुप्रवृत्ति थी उसे रोकनेको ऊपरका श्लोक बना प्रतीत होता है। छोटी बच्चियां यदि नाचें भी तो विकारके बजाय भक्तिभाव ही बढ़ता है । तरुस्त्री वेश्याओंका नाच-जो कि उस समय प्रस्तुत था उसका विकारवर्द्धक होनेसे निषेध कर दिया है, आजकल तो वेश्या-नृत्य ही बन्द है । ........................... Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन बहुय लोय रायंध स पिच्छहि जिणमुड़-पंकउ विरला वछहि । जणु जिणभवणि सुहत्थु जु आयउ मरइ सुतिक्कड क्खिहिं घायउ ||३४|| अर्थ-तरुणी वेश्याको रागान्ध होकर बहुत लोग देखते हैं और श्री जिन भगवान मुखकमलके तो फिर विरले ही दर्शन करना चाहते हैं । जो मनुष्य सुखके लिये श्री जिन मंदिर में आया था पर उसके तीख कटाक्ष बाणोंसे घायल होकर मारा जाता है || ३४ ॥ विरुद्धा नवि गाइज्जहिं हियइ घरं तिहि जिणगुण गिज्जहिं । पाड वि न हु अजुत बाइज्जहिं लइवुडिडउंडि-पमुह वारिज्जहिं ॥३५॥ राग अर्थ - विकारवर्द्धक विरुद्ध राग, भजन भी जिनमंदिरों में नहीं गाने चाहिये । हृदय में श्री जिन गुणोंको धारण करते हुए वैराग्य, शान्ति, ज्ञान-भक्ति- प्रधान भजन ही गाने चाहिये । मरणादि अवस्थासूचक पाड आदि देश-विदेश के बाजे भी नहीं बजाने चाहिये । "लइ वुडि डरंडि " -- प्रमुख भी रोक देने चाहिये ||३५|| उचिय थुत्ति थुयपाढ पढिज्जहिं जे सिद्धतिहिं सह संधिज्जहिं । तालारासु विदिति न स्यणिहिं दिवसि वि लउडारसु सहुँ पुरिसिहि ||३६|| ३० अर्थ - उचित स्तुति स्त्रोत्र पाठ ही पढ़ने चाहिये जो कि सिद्धान्तसे भी मेल रखते हों । तालियों को पीटते हुए - गरबे आदि भी रात्रि में नहीं देना चाहिये । पुरुषोंके साथ डोडियारास दिन में नहीं खेलना चाहिये, प्रमादसे मस्तक आदि में चोट लगने आदिकी सम्भावना होनेसे || ३६॥ धम्मिय नाडय पर नचिज्जहिं भरह - सगर निक्खमण कहिज्जहिं । चक्कवट्टि - बल - रायह चरियई नच्चिवि अंति हुँति पव्वइयई ||३७|| Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन अर्थ- धार्मिक भावना परक नाटक खेलने हों तो खेलने चाहिये। भरत चक्रवर्ती सगर चक्रवर्ती आदिके निष्क्रमण-दीक्षा आदि भाव, नाटकोंमें कहने चाहिये। दूसरे भी चक्रवर्ती बलदेव दशार्णभद्र आदि राजा लोगोंके चरित नाटकों में बताने चाहिये । अधिक क्या ? वे ही नाटक होने चाहिये जिनके अन्तमें दीक्षाके भाव हों ॥३७॥ हास खिड्ड हुडु वि वज्जिज्जहिं सहु पुरिसेहि वि केलिन किन्जहि । रतिहिं जुवइपवेसु निवारहिं न्हवणु नंदि न पइट्ट करावहिं ॥३८॥ अर्थ- मंदिर में हँसी मजाक-क्रीड़ा कुतूहल-होड शर्त आदिका भी त्याग करना चाहिये। पुरुषोंके साथ क्रीडा नहीं करना चाहिये। रात्रिमें स्त्रियोंका प्रवेश रोक देते हैं और स्नात्र-नंदिस्थापना एवं प्रतिष्ठाको नहीं कराते हैं ॥३८॥ माहमाल - जलकीलंदोलय ति वि अजुत्त न करंति गुणालय । बलि अत्थमियइ दिण्यरि न धरहिं घरकज्जइं पुण जिणहरि न करहिं ॥३९॥ अर्थ- माघ माला--जलकेलि--देवताओंके हिंडोल आदि सभी अनागमिक-अयुक्त काम गुणवान् श्रावक लोग जिनमंदिरमें नहीं करते हैं। सूर्यके अस्त होनेपर बलि-नैवेद्य भी नहीं चढ़ाते हैं । घर सम्बन्धी कामोंको भी मंदिरमें नहीं करते हैं ॥३॥ चैत्य सम्बन्धी विधिके बताये बाद विशिष्टाचार्यके स्वरूपको बताते हैं: सूरि ति विहिजिणहरि वक्खाणहिं तहिं जे अविहि उत्सुत्त न आणहिं नंदि - पइह ते अहिगारिय सूरि ति जे तदवरि ते वारिय ॥४०॥ अर्थ-- वेही आचार्य आचार्यपदके योग्य हैं जो विधि जिन चैत्यमें व्याख्यान देते हैं, उसमें अविधि या सूत्र-विरुद्ध कोई बात नहीं लाते । वे ही नंदिस्थापनाके एवं मूर्ति प्रतिष्ठाके अधिकारी होते हैं। उनसे भिन्न जो आचार्य नामधारी भी हैं उनका निवारण करना चाहिये ॥४०॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन एगु जुगप्पहाणु गुरू मन्नहिं जो जिण गणिगुरु पवयणि वन्नहिं तासु सीसि गुणसिंगु समुट्ठइ पवयणु-कज्जु जु साहइ लहइ ॥४१॥ अर्थ- सुश्रावक लोग एक कालमें एक ही युग-प्रधान गुरुको मानते । जिसको तीथकर देवोंने प्रवचनमें गणि-गुरु रूपसे वर्णित किया है। उनके दिव्य मस्तकमें गुण रूप सिंग प्रकटते हैं और जो शासनके कार्योको सुन्दरतया सम्पन्न करते हैं ॥४१॥ सा छउमत्थु वि जाणइ सव्वइ जिण-गुरु-समइपसाइण भव्वइ चलइ न पाइण तेण जु दिट्ठउ जं जि निकाइउ त परि विणट्ठउ ॥४२॥ अर्थ-वे युगप्रधान गुरु छद्मस्थ होते हुए भी कालोचित सभी बातें जानते हैं । जिनेश्वरदेव सद्गुरु महाराज एवं श्रुत ज्ञानके प्रसादसे उनकी देखी हुई या कही हुई यथावस्थित अवस्था प्रायः करके विपरीत नहीं चलती- अर्थात् जैसा कहते हैं वैसा होके रहता है। कदाचित् निकाचित निश्चित रूपसे भोगने योग्य कर्म होता है वह भी नष्ट हो जाता है। युगप्रधान गुरुओंके वचन टलते नहीं ॥४२॥ जिणपवयणभत्तउ जो सक्कु वि तसु पयचिंत करइ बहु व क्कु विजस न कसाइहिं मणु पीडिज्जइ तेण सु देविहि वि ईडिज्जइ ॥४३॥ अर्थ-उन युगप्रधान गुरुके पदकी चिन्ता जिन शासन भक्त देवेन्द्र महाराज-जो कि देवताई भोगोंमें बहुत ही व्यग्र रहते हैं-वे भी करते हैं---अर्थात् आपत्तिकालमें उसको मिटानेकी चिन्ता करते हैं। जिनका मन कषायोंसे पीड़ित नहीं होता। इसीलिये तो देवता भी उनकी स्तुति करते हैं। सुगुरु-आण मणि सइ जसु निवसइ जसु तत्तत्थि चित्त पुणु पविसइ । जो नाइण कुवि जिवि न सका जो परवाइ-भइण नोसक्कइ ॥४४॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन अर्थ- जो युगप्रधान गुरु पूर्व सुगुरुओंकी आज्ञाको सदा हृदयमें रखते हैं। तत्त्वार्थ में जिनका चित्त हमेशा प्रविष्ट रहता है । जिनको न्यायमें कोई भी नहीं जीत सकता। जो परवादियोंके भयसे भागते भी नहीं हैं ॥४४॥ जसु चरिइण गुणिचित्तु चमक्कइ तसु जु न सहइ सु दृरि निलुक्कइ जसु परिचित करहिं जे देवय तस समचित्त ति थोवा सेवय ॥४५॥ अर्थ-जिनके अद्भुत चरित्रसे गुणिजनोंका चित्त चमत्कृत होते हैं । उनको जो नहीं मानते हैं, ऐसे असहिष्णु लोग दूरसे ही लुप्त हो जाते हैं। जिनकी विपत्ति आदिमें देवता भी परिचिंता करते हैं। उनके समचित्त वाले वे थोड़े ही सेवक होते हैं ॥४॥ तसु निसि दिवसि चिंत इह (य) वट्टइ कहिं वि ठावि जिणवयणु फिट्टइ भूरि भवंता दीसहि वोडा जे स पसंसहि ते परि थोडा ॥४६॥ अर्थ-- उन युगप्रधान गुरुके चित्तमें रात दिन यही चिन्ता रहती है कि किसी भी स्थानमें जिन शासनकी हीलना तो नहीं होती ? भटकते हुए बहुतसे मोड़े दीखते हैं पर ऐसे युगप्रधान गुरुकी स्तुति-प्रशंसा करनेवाले बहुत थोड़े ही हैं ॥४६॥ पिच्छहि ते तसु पइ पइ पोणिउ तसु असंतु दुहु ढोयहिं आणिउं । धम्मपसाइण सो परि छुट्टइ सव्वत्थ वि सुहकजि पयट्टइ। ॥४७॥ अर्थ-वैसे मोड़े-साध्वाभांस उन युगप्रधान गुरुके पद पदमें छिद्र ढूंढते रहते हैं और विना हुए दुःखों को उनके लिये ढो-ढो कर लाते हैं। किन्तु धर्मके प्रसादसे वे भली भांति पीड़ासे दूर रहते हैं। एवं शुभकार्यों में सदा सर्वत्र प्रवृति करते रहते हैं ॥४७।। तह विहु ताहि वि सो नवि रुसइ खम न सु मिल्लइ नवि ते दूसइ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 उपदेश रसायन जइ ति वि आवहि तो संभासइ जुत्तु तदुत्तु वि निसुणिवि तूसइ ॥४८॥ अर्थ-साध्वाभासोंकी कुचेष्टा होने पर भी वे युगप्रधान गुरु उनके लिये रोक नहीं करते। शक्तिके रहते हुए भी क्षमा को नहीं छोड़ते, और न उन मोड़ोकी ही दूषित बननेकी चेष्टा करते हैं । अगर वे लोग सामने आते भी हैं तो उनके साथ सम्भाषण करते हैं। उन दुष्टों की कही हुई, योग्य बात को भी सुन खुश होते हैं । अर्थात् युगप्रधान सर्वत्र सम परिणामसे सारग्राही होते हैं ॥४॥ अप्पु अणप्पु वि न सु बहु मन्नइ । थोवगुणु वि परु पिच्छवि वन्नइ । एइ वि जइ तरंति भवसायरु ता अणुवत्तउ निच्चु वि सायरु ॥४९॥ अर्थ- अनल्प गुण वाली भी अपनी आत्मा को जो बहुत नहीं मानते। दसरेके थोड़े गुण को भी देखकर जो-तारीफ करने लग जाते हैं। वे ऐसा शोचते रहते हैं, कि यदि ये लोग भवसागर पार करें ऐसा मैं हमेशा देखता रहूं तो बड़ा ही अच्छा हो। ऐसे गुरु ही युगप्रधान हो सकते हैं। जुगुपहाणु गुरु इउ परि चिंतइ तं-मूलि वि तं-मण सु निकितइ । लोउ लोयवत्ताणइ भग्गउ तासु न दंसणु पिच्छइ नग्गउ ॥५०॥ अर्थ-युगप्रधान गुरु तो इस प्रकार परहित चिंतन करते हैं, और उसके पासमें वर्तमान दुष्ट चित्त वाले व्यक्ति उन्हींके मन को काटते रहते हैं। अर्थात् तन्मूलक ज्ञानदर्शन चारित्र को झठे आक्षेपों द्वारा मलिन बनाते हैं। भोले लोक भी तथाविध दुष्टात्माओं की बातों को सुनकर भग्न परिणामी होकर उन गुरुदेवके दशनसे बंचित रहते हैं, अरे ? अपने आगेके भव को भी नहीं देखते हैं। बाकईमें नंगे दुष्ट आदमी ऐसे ही होते हैं ॥५०॥ इस प्रकार युगप्रधान गुरुके स्वरुप को बताये बाद उनके प्रवाह पतित लोगोंकी बानी बाणी को बताये हैं इह गुरु केहि वि लोइहि वन्निउ । तु वि अम्हारइ संधि न मन्निउ । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन अम्हि केम इस पुट्टिहि लग्गड़ ! अन्निहि जिव किव नियगुरु मिल्लाह || ५१|| अथे ये गुरु कितनेक लोकों द्वारा प्रशंसित हैं, परन्तु हमारे संघने इनको नहीं माना, हम केसे इनके पीछे लगे ? दूसरोंके जैसे केसे हम अपने- गुरुको - जैसे तैसे गुरु को भी कैसे छोड़ दें ? ॥ ५१|| पारतंत-विहिविसइ - विमुक्कउ । जणु इउ बुल्लइ मग्गह चुक्कउ | तिणि जणु विहि धम्मिहि सह झगड़ह इह परलोइ वि अप्पा रगड || ५२ || अर्थ - सद्गुरुकी परतंत्रता आगमोक्त विधि साधु श्रावकों का विषय इनसे अलग लोकप्रवाह पतित जन मार्ग भ्रष्ट होता हुआ इस प्रकारसे उपर कही बातबोलता है एवं इसी लिये विधिधर्मकारी लोगोंके साथ झगड़ता है और इस लोकमें एवं परलोक में अत्मा को भीर खडवाता रहता है ॥५२॥ तु वि अविलक्खु विवाउ करंतर किवइ न थक्कइ विहि असहंत । जो जिणभासिउ विह सु कि तुट्टइ ? सो झगडंतु लोउ परिफिट्टइ ॥ ५३ ॥ अर्थ - यद्यपि आत्मा की ओर ध्यान नहीं देता है, तो भी अपने निश्चित लक्ष्यसे हीन होता हुआ अविवेकी विवाद करते हुएं कैसे भी नहीं थकता और विधि को सहन नहीं करता है। तो भी क्या ? वह श्री जिनेश्वरदेव द्वारा फरमाई हुई विधि कुट थोड़े हो सकती है ? हाँ क्लेशको करता हुआ वह प्रवाह पतित जनतो अवश्य फीका पड़ता है । धर्म लाभसे रहित होता है ॥५३॥ ३५ जं बुत्तउ दुप्पसहंतु चरणु तं विहि विणु किव होइ निरुत्तउ ! | इक्क सूरि इक्का वि स अज्जी इक्कु देस जि इक्क वि देसजी ॥५४॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ उपदेश रसायन अर्थ-भगवान् ने फरमाया है कि अंतमें श्रीदुप्पसहसूरि जी तक चरित्र रहेगा। यह बात विधिके विना कैसे निश्चत हो सकती है ? अंतमें एक दुःप्रसभ नामके आचार्य होंगे। सत्य श्री नामकी एक आर्या होगी। देशव्रत को धारण करने वाला नागिल नामका एक श्रावक होगा, और फल्गुश्री नामकी एक देशव्रतधारिणी श्राविका होगी ॥५४॥ तह वीरह तु वि तित्थु पयट्टइ तं दस-बीसह अज्जु कि तुट्टइ !। नाण-चरण-दसणगुणसंठिउ संघु सु वच्चइ जिणिहि जहठिउ ॥५५॥ अर्थ- फिर श्री वीर भगवानका शासन इकइस हजार वर्ष तक रहेगा। वह क्या दशवीस वषमें या आज ही टूटता है ? ना। वह तो अविच्छिन्न धारासे चलता रहेगा। हो सम्यगज्ञान-चरित्र और दर्शन गुणमें संस्थित चतुर्विध श्री संध को ही तीर्थकर देवो यथार्थ रूपसे संघ कहा है । चाहे वह संख्यामें कितना ही हो ।। ५५ ॥ दव्व-खित्त-काल-ठिइ वट्टइ गुणि-मच्छरु करंतु न निहट्ट इ । गुणविहण संघाउ कहिज्जइ लोअपवाहनईए जो निज्जइ ॥५६॥ अर्थ- श्रीभगवानका फरमाया हुआ बिधिसंघ द्रब्य क्षेत्र काल स्थितिके अनुसार वर्त्तता है। गुणवान् पुरुषोंके साथ निश्चत रूप मात्सर्य भाव नहीं रखता। कदाचित् कुकर्मके उदयसे मत्सरता आभी जाय तो उसमें निश्चत नहीं होता। उस को संघ कहते हैं । परन्तु जो लोक प्रवाह रूप नहींमें वहता है एवं उचित गुणोंसे हीन है वह 'संघात' कहा जा सकता है। जैन शासनमें संघकी भारी वर्णना है ।। ५६ ।। जुत्ताजुत्तु वियारु न रुच्चइ जसु जं भावइ तं तिण वच्चइ । अविवे इहिं सु वि संघ भणिज्जइ परं गीयस्थिहिं किव मन्निज्जइ ॥५७॥ अर्थ-जिसको योग्यायोग्य विचारका भी ख्याल नहीं है । जिसको जो मनमें भाता है वही वह बोल देता है, अविवेकी आदमी हो ऐसे टोले को संघ कहते हैं, परन्तु गीतार्य लोग ऐसे संघको कैसे मानें ॥ १७ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन विणु कारणि सिद्धति निसिद्धउ वंदणाइकरणु वि जु पसिद्धउ । तसु गीयत्थ केम कारण विणु पइदिणु मिलहिं करहिं पयवंदणु ? ॥५८॥ अर्थ-सिद्धान्तमें विना कारण साध्वाभासों को वंदन करना आदि प्रसिद्ध रूपसे निषिद्ध किया हुआ है । उनके साथ गीतार्थ लोग अकारण कैसे मिलें ? और कैसे पदबंदन आदि करें ? अर्थात नहीं करना चाहिये ॥ ५८ ॥ जो असंघु सो संघु पयासइ जु ज्जि संघु तसु दृरिण नासइ । जिव रायंध जुवइदेहं गिहिं चंद कंद अणहुँति वि लक्खहिं ॥५९॥ अर्थ--प्रवाह पतित जन जो संघ गुणसे होन असंघ टोला मात्र है। उसको संघ रूप से प्रकाशित करता है और जो गुण संपन्न संघ है उससे दूर भागता है जिस प्रकार रांगाध लोग युवती स्त्रियोंके शरीर अन्त-नहीं होने वाले ( मुखको ) चन्द्र कुंद आदि को लक्षित-कल्पित करलेते हैं, वैसे ही गुण हीन टोलेमें असम्यकची लोग संघको कल्पना करते हैं॥५६॥ तिव दंसण. रायंध निरिक्खहि जं न अस्थि तं वत्थु-विवक्खहि । ते विवरियदिहि सिवसु क्खइ पावहि सुमिणि वि कह पञ्चक्खइ ॥६०॥ अर्थ-उसी प्रकार दर्शन-रागमें अन्धे अतत्पक्षपाती लोग जो चीज नहीं है उस वस्तु को देखते हैं, और उसकी व्याख्या भी करते हैं। ऐसे विपरीत दृष्टि वाले वे लोग प्रत्यक्ष तो दूरमें भी प्रस्वपर शिव सुखको कैसे पासकते हैं। सर्वथा नहीं ।। ६० ।। दम्म लिंति साहम्मिय-संतिय अवरुप्परु झगडंति न दिति य । ते विहिधम्मह खिस महंति य लोयमज्झि झगडंति करंति य ॥६॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन ___ श्रावकों को गृहस्थोचित शिक्षा बतातेहैं अर्थ-जो श्रावक साधर्मिकोंसे कार्यवशात् द्रव्य लेते हैं। वापस देते नहीं और परस्पर झगतेड़ हैं। वे लोग विधि धर्मकी, लोगमें झगड़ते हुए वड़ी भारी खींसणा-निंदा को करबाते हैं॥ ६१॥ जिणपवयण-अपभावण वड्डी तर सम्मत्तह वत्त वि बुड्डी । जुत्तिहि देवदव्व तं भज्जइ हुंतउं मग्गइ तो वि न दिज्जइ ॥२॥ अर्थ- कर्जदार का कर्ज न चुकाने पर और झगड़ने पर श्री जिनशासनकी महत्तों अप्रभवानर होती है फिर उस हालतमें सम्क्त्व की बात तो मानो डूब ही जाती है। ऐसा करने वाला श्रावक परंपरासे देव द्रव्यका नाश करने वाला होता है। क्योंकि श्रावकका धन कालांतरमें सात क्षेत्रों में लगता है । लेकिन कर्ज न चुकाने वैसा अवसर आने नहीं देता अत: वह देवद्रव्यका भञ्जकमाना जाता है। जो कि अपने पास धनके होने पर भी-कर्जदार का कर्ज नहीं चुकाता ।। ६२ । बेट्टा बेट्टी परिणाविज्ञहि ते वि समाणधम्म-घरि दिज्जहिं । बिसमधम्म-धरि जइ वीवाहइ तो सम ( म्म ) त्तु सु निच्छइ वाहइ ॥६३॥ अर्थ-- गृहस्थ लोग बेटा बेटी समान कुल शील वालोंके साथ व्याहते हैं । श्रावकों को चाहिये कि समान धर्म वाले को लड़की दें। विषम-दूसरे धर्मवालेसे अगर विवाह किया जाता है तो उससे निश्चय करके सम्यक्त्वमें बाधा पहुंचती है ।।। ६३ ।। थोडइ धणि संसारियकज्जइ साहिज्जइ सव्वइ सावज्जइ । विहिधम्मत्थि अत्थू विविज्जइ जेण सुअप्पु निव्वुइ निज्जइ ॥६४॥ अर्थ-श्रावकों को चाहिये कि संसार संबंधी सारे सावध सपाप कार्य थोड़े धन को खर्च करके संपन्न करने चाहिये। विधि धर्म-जिन पूजा-संघपूजादि असावद्य-अपाप कार्यमें धन को अधिक खर्च करना चाहिये, जिससे कि आत्मा निवृत्ति मुक्तिमें पहुंचाया जा सके। ६४ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन सावय वसहिं जेहिं किर ठावहिं साहुणि साहु तित्थु जइ आवहिं । भत्त वत्थ फासुय जल आसण वसहिं वि दिति य पावपणासण ॥६५॥ अर्थ श्रावक लोग जिन गांव नगरोंमें निवास करते हैं, वहां यदि साधु साध्वी विहार करते हुए आवं तो उनको प्रासुक आहार पानी वस्त्र पात्र आसन आदि देने चाहिये । एवं रहनेके लिये वसति-स्थान भी देना चाहिये जिनसे कि पापोंका नाश और धर्मका भला होता है ।। ६५ ॥ जइ ति वि कालच्चिय-गुणि वट्टहिं अप्पा पर वि धरहि विहिवट्टहिं । जिण-गुरुवेयावच्चु करेवउ इउ सिद्धतिउ वयणु सग्वउ ॥६६॥ अर्थ-- अगर वे साधु-साध्वी लोग भी कोलोचित गुणोंमें-संयम साधनामें वर्तमान हैं। आत्मा को और दूसरों को जो विधि मार्गमें स्थापित करते हैं, तो जिनदेव ओर गुरुओंकी वेयावच्च करनी चाहिये । इस सिद्धांत वचन को याद करना चाहिये ।। ६६ ।। घणमाणुसु कुडंवु निव्वाहइ धम्मवार पर हिउ वाहइ । तिणि सम्मत्त-जलंजलि दिन्नी तसु भवभमणि न मइ निम्विन्नी ॥६७॥ अर्थ-जो गृहस्थ बहु परिवारी कुटुंबका भलो भाती निर्वाह करता है और धर्मके मौके पर नीचे देखने लग जाता है वह सम्यक्त्व को जलाञ्जलि देता है, और माना जाता कि उककी बुद्धि भव भ्रमणसे खिन्न नहीं हुई ॥६॥ सधणु सजाइ जु ज्जि तसु भत्तुउ अन्नह सहिहिहि वि विरत्तउ । जे जिणसासणि हुति पवन्न सवि बंधव नेहपवन्ना ॥६८॥ अर्थ-जो श्रावक धन वालेकी एवं स्वजातीकी ही भक्ति करना है और दूसरे समान Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० उपदेश रसायन धर्म सम्यक्त्व से भी विरक्ति रखता है । यह एकदम अयोग्य बात है । जो जिनशासन को मानते हैं वे सभी श्नेह पानमें बद्ध परस्पर में अविशेष भावसे भाई ही हैं । अत: समान धर्म वालोंमें भेदभाव करना सर्वथा वे ठीक है ॥ ६८ ॥ किव मुडह ? बुद्धह | तसु संमत्तु होइ जो नवि वयणि विलग्गइ तिन्नि चयारि छुत्तिदिण रक्खइ सज्जि सरावी लग्गइ लिक्खइ ||६९|| अर्थ - जो श्रावक साधार्मि बन्धुओंमें भेद भाव रखता है उस मुग्धात्मा के सम्यक्त्व कैसे हो सकता है ? जो तीर्थंकरदेव - गीतार्थ गुरु आदिके पुनित बचनों में मन को लगता ? वही श्राविका -श्राविकाओंकी गिनती में आने योग्य होतो है, जो पूरे तीन एवं चार दिन स्त्री की धर्म छूत को रखती है ॥ ६६ ॥ हुति यच्छुत्ति जल (पव) ट्टइ सेच्छइ सा घर-धम्मह आवइ निच्छइ । छुत्तिभग्ग घर छडई देवय सासणसर मिलहिं विहिसेवय ||७० || अर्थ - जो स्त्री रजस्वलाकी छूतके रहते हुए भी स्वेच्छा से घर काममें एवं धर्ममें लगी रहती है वह स्त्री निश्चय करके उस घर और धर्मके एक बड़ी भारी आपत्तिके समान हो जाती है । क्यों छूत को तोड़ने से घर को विधि धर्मके सेवक शासन देव छोड़ देते हैं और भूतप्रेतोंसे घर भर जाता है अतः घर भी नष्ट प्राय हो जाता है ॥ ७० ॥ पडिकमणइ वंदणइ आउल्ली चित्त करेइ अभुल्ली । मणह नवकारु विज्झायइ तासु मुहु समत्तु वि रायइ ॥ ७१ ॥ अर्थ - जो रजस्वला स्त्री प्रतिक्रमण में बंदन में सूद्ध अक्षरोंका उच्चारण नहीं करती है । असंदिग्ध भाव से चित्तमें ही धारण करती है । मनमें ही नवकर मंत्रका ध्यान भी करती है उनमें सम्यक्त्व भी सुन्दर रूपसे शोभता है ॥ ७१ ॥ सावउ मग्गइ सावयछिद तिणि सह जुज्झइ धणबलि वग्गइ । धरंति मज्झि Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन अलिउ वि अप्पाणउं सच्चाबइ सो समत्तु न केमइ पावइ ॥७२॥ अर्थ-श्रावक-श्राविकाके छिद्रों को ढूढ़े, उसके साथ लड़े, धनबलसे राजदरवार चढ़े, झंठे भी आत्मा को सच्चा बनाने, बह सम्यक्त्व को किसी भी तरह नहीं पा सकता है ७२॥ विकियबयणु बुल्लइ नवि मिल्लइ पर पभणंतु वि सच्चउं पिल्लइ । अट्ठ मयट्ठाणिइिं वटुंतउ सो सदिहि न होइ न संतउ ॥ ७३ ॥ अर्थ-- जो गृहस्थ विकृत-गाली गलौज आदि दुर्वचनोंको ही बोलता है। सच बोलनेवाले को भी दूसरेको जो नहीं छोड़ता है, और पीड़ा पहुंचाता है । आठ मदस्थानको वर्त्तता हुआ वह सम्यकदृष्टि नहीं होता। कदाचित् हो जाता है तो सम्यक्त्व चिरस्थाई नहीं रहता । अथवा वह भले आदमियोंकी कोटिमें नहीं रहता ॥७३।। पर अणत्थि घल्लंतु न संकइ परधण-धणिय जु लेयण धंखइ । अहियपरिग्गह-पावपसत्तउ सो संभात्तिण दृरिण चत्तउ ॥७४॥ अर्थ- जो दूसरे को अनर्थमें डालते हुए शंका नहीं करता है। जो परधन और परस्त्रोको अपनानेकी इच्छा रखता है। जो अधिकतया परिग्रहको पापमें लगा रहता है। उसको सम्यक्त्व भी दूरसे ही त्याग देता है ॥४॥ जो सिद्धत्तियजुत्तिहिं नियधरु वाहि न जाणइ करइ विसंवरु । कु वि केणइ कसायपूरियमणु वसइ कुटुम्बि जं माणुसधणु ॥७५॥ अर्थ-जो गृहस्थ सैद्धान्तिक युक्तियोंसे-गृहस्थोचित गुणोंसे अपने घरको चलाना नहीं जानते, वे अपने गृहस्थ धर्मको विसंस्थुल-अमर्यादित-क्लेशमय बनादेते हैं। क्योंकि घनें मनुष्योंवाले कुटुम्बमें कोइ किसी कारणसे क्रोध मान-माया-लोभ इन कषायोंसे भर Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन ४२ जाता है । अगर गृहपति ठीक हो तो उनको भी निभाता है और जीवन क्लेशमय नहीं होने देता है ||७|| तसु सरुवु मुणि अणुवत्तिज्जन् कु विदाणिण कु वि वयणिण लिज्जइ । कुवि भएण करि पाणु धरिज्जइ सगुणु जिहु सो पइ ठाविज्जइ ॥ ७६ ॥ अर्थ --गृही जिवनको सुखमय रखनेके लिये यह जरूरी है कि उन कुटुम्बियों के स्वरूपको भली-भाँती जानकर उनके साथ अनुवर्त्तन- व्यवहार करना चाहिये। किसीको कुछ देकर, किसीको कुछ वचन सुनाकर, किसीको कुछ भय दिखाकर, किसीको मर्यादित बलात्कार से भी शांत बनाना चाहिये । कुटुम्ब में जो अधिक गुणवान हों विवेकी हों उनको ज्येष्ठ पद पर यानि हरेक काम में लेने देने योग्य स्थापित करदेनां चाहिये | ||७६ || पत्तिज्जइ जुह धिट्ठह न य जो असत्तु तसुवरि दइ किज्जइ । लक्खाविज्जइ अप्पा परह न नप्पा विणु कारणि खाविज्जइ ॥७७॥ अर्थ - मूंठ बोलनेवाले और धीटे व्यक्तियोंका विश्वास नहीं करना चाहिये । जो असमर्थ हैं उनपर दया करनी चाहिये । शोकके कारणोंके उपस्थित हो जानेपर चेहरे पर वे भाव आने देने न चाहिये । बिना कारण बिना विशेष लाभके राजकर्मचारियोंसे संबन्ध नहीं रखना चाहिये। क्योंकि ऐसे सम्बन्धो के साथ काफी प्रपंच बढ़ जाते हैं ॥७७॥ माय-पियर ज धम्मि विभिन्ना ति वि अणुवित्तिय हुति ति धन्ना । जे किर हुति दीहसंसारिय ते बल्लंत न ठंति निवारिय ||७८ || अर्थ - जो माता पिता अन्य धर्मको मानते हैं, यदि वे विधि मार्ग के अभिमुख ही जांय तो धन्य हैं । यदि कदाचित् दीर्घ संसारी भावके कारण विधिमार्गसे विपरीत बातें बोलते हुए रोकने पर भी नहीं रुकते हैं तो उनपर क्रोध नहीं लाना चाहिये || ७ || ताहि विकीरइ इह भोयण - वत्थ-पयाण अणुवत्तण पयत्तिण | Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश रसायन तह बुल्लंतह नवि रूसिज्जइ तेहि समाणु विवाउ न किज्जइ ॥७९॥ अर्थ-उन भिन्न धर्मवाले भी माता पिताको अनुवर्तना-भोजनवस्त्र आदिसे करनी चाहिये, क्योकि उनका उपकार दुष्प्रतिकरणीय है। कदाचित् वे बुरी वात भी कहदें तो भी रोष नहीं करना चाहिये, और न विवाद हो करना चाहिये ।।६।। उपदेशके उपसंहार में उपदेश फल बताते हैं .... इय जिणदत्तुवएयसरसायणु इह-परलोयह सुक्खह भायणु । कण्णंजलिहिं पियंति जि भव्वइं ते हवंति अजरामर सम्बई ॥८॥ अर्थ---इस प्रकार जिनदत्त---श्रीतीर्थंकर देवों द्वारा दिये हुए उपदेश रूप रसायनको-जो कि इसलोक परलोकमें सुखका भाजन सुखको देनेवाला है। उसको जो भब्यात्मा कर्णाजलिसे पीते हैं वे सभी अजर और अमर पदके अधिकारी हो जाते हैं ।।८।। ७७७० ॐ इति उपदेश रसायन समाप्त Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन दत्त सूरि विरचितम् ॥ कालस्वरूप कुलकम् ॥ पणमवि वमाणु जिणवल्लहु जिणवल्लहु । परमप्पयलच्छिहि सुगुरुवसु देमि हउ भव्वह सुक्खह कारण होइ जु सव्वह || १ || अ- अवधि जिनादिकोंके वल्लभ, परमपद-मोक्ष लक्ष्मीके विजयी स्वामी श्री जिनवल्लभ वर्द्धमान भगवान महावीर देवको प्रणाम करके, महोपकारी परम गुरु श्री जिनवल्लभ सूरीश्वरजी महाराजको प्रणाम करके सद्गुरु महाराजका बताया हुआ उपदेश भव्यात्माओं को देता हूं। जो सबके सुखका कारण होता है । मीण सणिच्छरंमि संकंतइ मेसि जंति करंतइ | दे भग्ग पुण वक्कु परचक वड वड पट्टण ते भट्टा ॥२॥ अर्थ- मीन राशिमें शनिश्चर के संक्रान्त होनेपर और फिर मेष राशिमें जाते हुए वक्रता करने पर बड़े २ देश नष्ट हो गये । पर चक्रोंका उपद्रव वढ गया । बड़े २ शहर जो थे वे भी नष्ट हो गये ||२|| विक्कम संवच्छरि पइट्ठा सय बारह हुयइ पणडुउ सुहु घर बारह | इह (2) संसारि सहाविण संतिहि वत्तहि सुम्मइ सुक्खु वसंतहि ॥ ३ ॥ अर्थ विक्रम संवत वारहसो के करीब ऐसा काल आया कि घरके दरबाजोंसे सुख मानों भाग ही गया । इस प्रकारके संसारी स्वरूपके होनेसे सज्जन पुरुषोंकी बातोंसे ह सुख संसारियों को सुनने को मिलता है ॥३॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालस्वरूपकुलकम् तह वि वत्त नवि पुच्छहि धम्मह जिण गुरु मिल्लहि कजिण दम्मह । फसु नवि पावहि माणुसजम्मह दृरि होति ति जि सिवसम्मह ॥४॥ अर्थ--इस प्रकार के संसार स्वरूपके होनेपर भी धर्मकी बात भी कोई नहीं पूछाता है । द्रव्य के लिये देव और गुरुको भी लोग छोड़ देते हैं। मनुष्य जन्मके फलको नहीं पाते हैं। और मोक्ष सुखसे भी वे लोग दूर हो जाते हैं ॥४|| माहनिद्द जण सुत्त न जग्गइ तिण उछिवि सिवमग्ग न लग्गइ । जइ सुहत्थु कु वि गुरु जग्गावइ तु वि तव्वयणु तासु नवि भावइ ॥५॥ अर्थ--मनुष्य मोह निद्रासे सोता हुआ नहीं जागता है। इसी लिये उठ करके मोक्षमार्गमें भी नहीं लगता है । यदि सुखके लिये या शुभ-हितके लिये कोई सुगुरु जगाते हैं, तो भी उनके वचन उसको नहीं रुचते हैं। है यह मोह की लीला ॥५॥ परमत्थिण ते सुत्त वि जग्गाह सुगुरु-वयणि जे उठेवि लग्गहिं । राग दोस मोह वि जे गंजहि सिद्धि-पुरंधि ति निच्छइ भंजहि ॥६॥ अर्थ- सद्गुरु महाराजके वचनोंको सुनकर सुबिधिमार्ग में जो मनुष्य लगते हैं वे परमार्थसे द्रव्य निद्रासे सोते हुए भी जगते हैं। राग द्वष और मोह को वे जीतते हैं। एष निश्चय करके वे सिद्धि सुन्दरी को भोगते हैं ॥६॥ बहु य लोय लुचिसिर दीसहि पर राग-दोसिहिं सहुँ विलसहिं । पढ़हिं गुणहिं सत्थइ वक्खाणहि परि परमत्थु तित्थू सु न जाणहि ॥७॥ अर्थ-- बहुतसे लोग लुञ्चित-मुण्डित सिर वाले साध्वाभास दिखाई देते हैं। परन्तु राग द्वषके साथ उनकी चेष्टायें दोखती हैं । वे लोग शास्त्रोंको पढ़ते हैं, गुणते हैं, व्याख्यान करते हैं । परन्तु उनमें रहे हुए परमार्थ-सत्तत्त्वको सच्चारित्रके अभावमें नहीं जानते हैं ॥७॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ कालस्वरूप कुलकम् तिणि वेसिणि ते चार रिहिल्लिउ मुसहि लोउ उम्मग्गिण घल्लिउ । ताहं पमत्तउ किवइ न छुट्टइ जो जग्गइ सम्मि सुबइ ॥८॥ अर्थ - उस उस साधु वेषसे वे चोरोंका सा व्यवहार करते हैं । लोगों को ठगते हैं, और उन्मार्ग में डाल देते हैं । उन लिंगधारियोंसे भोला भाला प्रमत्त संसारी प्राणी वह किसी प्रकारसे नहीं छूट सकता । जो ऐसे बोगोंसे सजन - सावधान रहता है, वही विधि मार्ग रूप सद्धर्म में प्रवृत्ति करता है ॥८॥ ते वि चोर गुरु किया सुबुद्धिहि सिववहुसंगमसुहरसलुद्धिहि । ताहि वि खावहि अप्प-उपासह छुट्ट कह विन जिंव भवपासह ||९|| बुद्धिसे उन भाव चोरोंको भी गुरु किये हैं । उन साधना करते हुए इस प्रकार खाते हैं कि वे संसारी छूटते नहीं हैं || अर्थ - शिवसुन्दरीके संगम सुखके रसमें लुब्ध मुग्धात्माओंने अविवेक पूर्ण अपनी उपासकों को भी वे कुगुरु लोग स्वार्थ जंजालसे किसी भी तरह से बिचारे दुद्धु होइ गो-यविहि पर पेज्जतइ अंतरु एक्कु सरीर क्खु अवरु पियउ पुणु मंसु वि साडइ ॥१०॥ अर्थ -- गायका दूध और आकडेका दूध ये दोनों ही होते तो सफेद ही हैं । परन्तु पीने पर इनमें बड़ा भारी अंतर दीखता है । गायका दूध तो शरीर में सुख पुष्टि पैदा करता है, तो दूसरा आकडेका दूध पीने पर मांसको ही सारे शरीरको सड़ा देता है ||१०|| कुगुरु सुगुरु सम दीसहि बाहिरि परि जो कुगुरु सु अंतरु वाहिरि ? | जो तसु अंतरु करइ वियव्खणु सो परमप्पउ लहइ सुलक्खणु ॥११॥ धवलउ बहलउ । संपाडइ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालस्वरूपकुलकम् ४७ अर्थ- कुगुरु और सुगुरु भी बाहिरसे-उपरसे समान रूप ही दीखते हैं। परन्तु अरे भोले प्राणी कुगुरु तो अंदरुनी-भोतरी ब्याधि है जो उपर नहीं दीखती। जो विचक्षण कुगुरु-सुगुरु इन दोनों में जुदाई कर देता है वह शुभ लक्षण संपन्न भव्यात्मा परम पदको पाता है ॥१॥ जो धत्तूरयफुल्लु समुज्जलु पिव्खिवि लग्गउ तित्थु समुज्जलु । जइ सो तसु रसु पियणह इच्छह ता जगु सव्वु वि सुन्नउ पिच्छह ॥१२॥ अर्थ-धतुरेके फूलको समुज्ज्वल देखकर जो जडात्मा समुद खुश होकर उसमें लगता है। एवं यदि उसके रसको पीना चाहता है - पीना है, तो सारा जगत ही उसको शून्यसा या सोनेका सा दीखता है। धतुरेके फूलके जैसे कुगुरु भी उपरसे अच्छे दीखते हैं परन्तु परिणाममें भयंकर होते हैं ॥१२॥ इय मणुयत्तु सुदुल्लहु लदउ कुल-बल-जाइ-गुणेहिं समिद्धउ । दस दिलंत इत्थ किर दिन्ना इह निप्फलु ता नेहु म धन्ना ॥१३॥ अर्थ कुल बल जाति एवं गुणोंसे समृद्ध यह मनुष्यत्व बड़े दु:खसे मिला है। इसके लिये शास्त्रोंमें दश दृष्टान्त भी बताये हैं। ऐसे दश दृष्टान्तोंसे भी दुल्लर्भ इस मनुष्य जन्मको हे धन्यात्माओं! निषफल मत बनाओ ॥१३॥ लडिं नरत्ति अणारियदेसेहिं को गुणु तह विणु सुगुरुवएसिहि ! आरिथदेस जाइ-कुलजुत्तउ काइ करेइ नरत्त वि पत्तउ ॥१४॥ अर्थ- अनार्य देशमें सद्गुरु महाराजके पवित्र उपदेशोंके विना पाया हुआ भी मनुज्य जन्म क्यो गुण कर सकता है ? कुछ फी नहीं। आर्य देशमें अच्छी जाति एवं कुलके संपन्न भी मिला हुआ नर जन्म क्या फायदादायक हो सकता है ॥१४॥ जहि किर आउ होइ संखित्तउ तित्थु न कज्जु पसाहइ वुत्तउ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालस्वरूपकुलकम् तं पि बहुत्तु होइ जइ पुन्निहि जित्थु गुरुत्तु सुणिज्जइ कंनिहि ॥१५॥ अर्थ-जिस नर जन्ममें आयुष्य संक्षिप्त-थोड़ा हो, उसमें श्री जिनेश्वर देवों द्वारा फरमाये हुए ज्ञानदर्शन चारित्र आदि कार्यों की साधना नहीं हो सकती। उस जन्मसे भी क्या ? हां यदि वह आयुष्य पुन्यसे बडा हो, और उसमें सद्गुरुके फरमाये उपदेश कानोंसे सुने जाय ।।१५।। । सदहाणु तव्वयणु सुगंतह विरला कसु वि होइ गुणवंतह । पढ़हिं गुणहिं सिद्धेतु बहुत्तइ सदहाणु पर नत्थि जिणोत्तइ ॥१६॥ अथे... श्री सद्गुरुके उपदेशको सुनते हुए भी किसी विरले गुणवानको ही उसपर दृढ श्रद्धा होती है । वहुत लोग ऐसे हैं जो पढते हैं, गुणते हैं, परन्तु श्री वचनोंमें उनकी श्रद्धा नहीं होती ॥१६॥ अविहि पयट्टहि विहिपरु दूसहि पडिउ पवाहि लोउ सु पसंसहि । अणुसोयह पडिसोयह अंतरु न कुणहि खवणय जेव निरंतर ॥१७॥ अर्थ --- अविधिसे प्रवृत्ति करते हैं। विधि करने वालोंको दूषित करते हैं। प्रवाह पतित लोगोंकी प्रशंसा करते हैं। अनुश्रोत और प्रतिश्रोतका भेद नहीं करते हैं। किन्तु क्षपणक के-नंग्गंके जैसे विशेषताके अभावको करते है अर्थात् सबको एक भाव समझते हैं ॥१४॥ करिवि जिणोत्ति धम्मि जण लग्गा दुरिणी जंति सुगुरु सुइभग्गा । विहिपह-~-पक्खइ जिणु मुणि वंदहि तं मग्गट्ठिउ जणु अहिणंदहि ॥१८॥ अर्थ- कई मन्दबुद्धिवाले अविधि क्रियाको भो यह जिनोक्त धर्म है ऐसा करके उसमें लगते हैं। सद्गुरुके उपदेश श्रवणसे दूर भागते हैं। विधि पक्षको छोड़ अविधि चैत्य और अविधि प्रवर्तक नामधारी मुनियों को वंदते हैं। एवं अविधिमार्ग स्थित लोगोंका अभिनंदन करते हैं ॥१८॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- कालस्वरूप कुलकम् जिणेहि निसिउ बहुलोयन मंसिर । लोय ते घोवा जमणाययणु तं दहि जे रयणित्थि अइसउ न मुणवि अंतरु धोवा ||१९|| अर्थ तीर्थंकर देवोंने जो अनायतन बताया है, उसको बहुतलोक नमस्कार करते हैं अनायतको वंदन करते हैं। ठीक ही है रत्नोंके अर्थी - ग्राहक थोड़े ही होते हैं । रत्नोंके और पत्थरके अन्तरको मूर्खलोग नहीं जान सकते हैं ॥ १६ ॥ पारतंतु विहिबिसउ न बुज्झहि जो परियाणइ तिणि सहु जुज्झहिं । सो भसमग्गहगहिउ निरुतर ४६ दस मच्छेरण सो मुत्तउ ॥२०॥ अर्थ- पारतंत्र्य विधि और विषयको जो नहीं जानता है । एवं जो जानता है उसके साथ वह लडता है। वह भस्मनामके कुग्रहसे निश्चय करके ग्रस्त हुवा हुआ है, अथवा दशमाश्चर्य से - असंयति पूजा रूपसे भोगा गया है ||२८|| हुँड अवसप्पिणि दुट्ठी अस्संजय पूइँ पयट्ठी तासु वि दूसम जाय सहाइणि अहह ! जह जव्वस हूय पय पावह भाइणि ॥ २१ ॥ अर्थ- हा इति देखे ? यह हुंडा अवसर्पिणी काल बड़ा दुष्ट है । जिसमें कि असंयतिअसाधुओंकी पूजा-मानता घुस रही है। उसके भी यह पांचवां आरा-दुष्षम काल सहायक हो रहा है । जिसके प्रभाव से प्रजा पाप को भजने वाली हो रही है ||२१|| तह वि जहन्न वीस जा बिरुई ताण गई । तासु पयट्ठ गुणह अंति संवच्छर जि खउ पाविय पय पुण तहिं बहुया ||२२|| हुया अर्थ - उसमें जो जघन्य वीसी है वह भो विरूप हो रही है । गुणों की बड़ी भारी प्रतिष्ठा भी उनमें नष्ट हो रही है । उस जघन्य विशाति के अंत में जो संवत्सर- वर्ष आये उन में भी बहुत प्रजा का क्षय हुआ ||२२|| Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालस्वरूपकुलकम् ईसर धम्म-पमत्त जि अच्छहि पाउ करेवि ति कुगइहिं गच्छहिं । धम्मिय धम्मु करंति जि मरिसिहि ते सुहु सयलु मणिच्छिउ लहिसिहिं ॥२३॥ अर्थ- ऐश्वर्य संपन्न लोग जो धर्म में प्रमादी रहते हैं वे पाप को कर के कुगति में जाते हैं । धार्मिक लोग जो धर्म करते हुए मरेंगें वे मनचाहे समस्त सुखों को पायेगें ।।२३।। पुन्नवंत विहिधम्मि जि लग्गहिं ते परमत्थिण जीवहि जग्गहिं । अप्पु समप्पहि ते न पमायह इह-परलोइ वि विहियावायह ॥२४॥ अर्थ-जो पुण्यवान होते हैं वे विधि-धर्म में लगते हैं। वे मर कर के भी परमार्थ से जग में जीते हैं और जागते हैं । वे लोग इस लोक और पर लोक में दुःख देनेवाले प्रमाद के आधीन आत्मा को नहीं सौंपते हैं ॥२४॥ तुम्हह इहु पहु चाहिलि दंसिउ हियइ बहुत्तु खरउ वीमंसिउ । इत्थु करेज्जहु तुम्हि सयायरु लीलइ जिव तरेहु भवसायरु ॥२५॥ अर्थ-तुम लोगों को यही मार्ग तुम्हारे पिता चोहिल ने हृदय में भली भांति शोच कर दिखाया है । इस लिये तुम लोग हमेशा इसी मार्ग में चलने की भावना रखो। जिस से कि संसार समुद्र को तुम लोग लीला मात्र में तिरोगे ॥२५॥ (१) जहिं घरि बंधु जुय जुय दीसह तं घर पडइ वहंतु न दीसइ। -१ अणहिल्ल पुर पाटन में चाहिल नाम का एक श्रावक था। जिस ने परीक्षा पूर्वक प्रभु श्रीजिनदत्तसूरि जी महाराज को धर्माचार्य रूप से स्वीकारे थे। उनके चार बेटे यशोदेव-आभ--आसिग और संभव नाम के थे । काल दोष से वे जुदा होना चाहते थे। चाहिल ने उस में गुण नहीं देखते हुए गुरु महाराज को पुत्रों को शिक्षा दिलाने को इच्छा से विनतो पत्र भेजा जिस के जबाव में यह कुलक धर्म देशना गर्भित लेख उन्होंने भेजा था। जिसको पढ़ कर चाहिल शेठ के चारों पुत्र प्रसन्नता के साथ संप से रहे बढ़े, और विधि मार्ग को आराधना करते रहे । व्याख्याकार: Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालस्वरूप कुलकम् गेहु तं जं दढबंधु जडि भिज्जत सेसउ गलिउ ||२६|| वलियउ अर्थ - जिस घर में भाई लोग जूदे २ दोखते हैं वह घर कुल परंपरा से अव्यच्छिन्न रूप से बहता हुआ नहीं दोखतो बल्कि गिरा हुआ दीखता है । जिस घर में दृढ़ स्नेह वाले बंधु-भाई लोग रहते हैं वह घर बलवान्-टिकाउ माना जाता है। अगर किसी जड़-मूर्ख व्यक्ति द्वारा भिन्न हो जाय तो बाकीका सारा घर गल - छिन्न भिन्न हो जाता है। दूसरे पक्ष में- जिस घर में बन्ध टूटे से दीखते हैं वह घर गिर जाता है । जिस में दृढ़ बन्धन होते हैं वह टिकाऊ होता है । जड-जल से भेद होने पर गल जाता है ||२६|| कज्जउ करइ बुहारी बडी सोहइ गेहु जइ पुण सा वि ता किं कज्ज तीए साहिज्जइ ||२७|| करेइ समिद्धी । जुयं जुय किज्जइ अर्थ - बंधी हुई बुहारी कचरे को इकट्ठा कर देती है । घरको साफ-शुद्ध और समृद्ध बना देती है । यदि वह जुदी जुदी की जाय तो उस से क्या काम सिद्ध हो सकता है ! कुछ भी नहीं । यही हालत कुटुम्ब की है। संगठित होने पर सभी काम सिद्ध होते हैं और जुदा२ हो जाने पर सारी कमजोरियां आ जाती है ||२७|| ५१ चित्तह पुणवसु हत्थि चडइ सो सोमु सूरु पुत्तु वि जो किर चित्तह मञ्जिन पविसइ मावित्तह | जेह मूलि सु कहि किव होसइ ॥२८॥ अर्थ- जो सौम्य - प्रशान्त और शूर-तेजस्वी प्रकृति वाला पुत्र अपने विनय गुण से माता पिता आदि सभी के चित्तों में स्थान पा लेता है उसके हाथ में संपत्ति आती है । जो अपने गुणों से लोगों के चित्त में प्रवेश नहीं करता वह ज्येष्ठ मूल-बड़े पद का अधिकारी कहो कैसे हो सकता है ! । दूसरा अर्थ भी निकलता है पुर्नवसु, हस्त, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल नक्षत्र हैं । सोम-चन्द्र-सूर - रवि, सोमपुत्र- बुध और रवि पुत्र शनि, ये ग्रह हैं । नक्षत्रों के साथ ग्रहों का सम्बन्ध क्रम से होता है अक्रम से नहीं । इसी प्रकार पुरुष भी उत्तरोत्तर संपत्ति को पाते हुए ज्येष्ठमूल-बड़े आदमी बन जाते हैं। एकदम नहीं ||२८|| Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालस्वरूपकुलकम् लोहिण जडिउ जु पोउ फुट्टइ चुंधुकु जहि पहाणु किव वइ ! । नेय समुदह पारु सु पावइ अंतराल तसु आवय आवइ ॥२९॥ अर्थ-जिस समुद्रमें लोह चुंबक पाषाण पड़े हुए हों उसमें लोह जडित जहाज कसे चल सकता है, वह तो फूटता ही है । समुद्र पार वह नहीं पहुंचता बीच में ही उसके लिये तो आपत्ती-- सर्वनाश की घड़ी आ जाती है। इसी प्रकार जो गृहस्थ लोभसे जडीभूत हो जाता है वह संसारके चंबक प्रलोभनों में पडकर सुखमय जिन्दगी नहीं बितासकता उको बीच में ही आपत्तियां आ घेरती है ॥२६॥ लोहिण रहिउ पोउ गुरुसायरु दीसइ तरंतु जइ वि जडवायरु । लाहउ करइ सु पारु वि पावइ वाणियाह धरिद्धि वि दावइ ॥३०॥ अर्थ-लोह रहित जहाज वडे भारी समुद्रको पार करता हुआ दीखाता है। यद्यपि उसमें जल-वायु अधिक हो तो भी जहाज-लाभ संपन्न भी होता है और, पार भी पाता है। एवं बनियों की धन संपत्ति को भी दिस्वाता है। दूसरे पक्ष में-लोभरहित व्यक्ति गुरुओंके प्रति आदर सहित भाव वाला होता हुआ संसार समुद्र से तैरता हुआ दीखाता है । यद्यपि जडवादी लोक अधिक होने पर भी अपनी धूनमें पका रहता है । वह व्यापारादि से लाभ भी पाता है और उसका उपयोग दानादि में करता हुआ पार भी पाता है तथा, व्यापारियों की धन वृद्धि रीति-नीतिको भी दीखाता है ।।३०॥ जो जणु सुहगुरु-दिट्ठिहि दिट्ठउ तसु किर काइ कारइ जमु रुट्ठउ ? । जसु परमेट्ठि-मंतु मणि सिवसइ सो दुहमञ्जि कया वि न पइसइ ॥३१॥ - अर्थ-उपर बताये ढंगका जो सद्गृहस्थ जन सद्गुरु महाराज की दयादृष्टि से देखा पाहै उसका रुष्ट हुआ यमराज भी क्या कर सकता है ? । जिसके मनमें परमेष्ठी मंत्र है, वह दुःखोंमें कभी नहीं पडता। दूसरे पक्षमें-जिस लग्नमें गुरु की दृष्टि ठीक शनिश्चर भी क्या कर सकता है ? कुछ नहीं ॥३१॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालस्वरूपकुलकम् इय जिणदत्तवएसु जि निसुणहि पढहि गुणहि परियाणवि जि कुणहि । ते निव्वाण-रमणी सह विलसहि वलिउ न संसारिण सह मिलिसिहि ॥३२॥ अर्थ ---इस प्रकार जिनदत्त -अरिहंतो के दिये हुए उपदेश को जो सुनते हैं पढते हैं गुणते हैं जानकर आचरण करते हैं वे निर्वाण - सुंदरीके साथ विलास करते हैं अजरामर को पाये बाद लोट कर संसार के दुःखों के साथ नहीं मिलंगं । इस लोकमें प्रकारान्तर से कर्त्ताने अपना नाम ( जिनदत्त सूरि ) यह सूचित किया है ॥३२॥ * इति कालस्वरूपकुलकम् समाप्तम् 8 ॐ+ + + K a +k+ + -- - ॐ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्री १०८ श्री मज्जिनदत्त सूरीश्वर विरचितम् ॥ चैत्यवन्दन कुलकम् ॥ अपर नाम सम्यक्त्त्वारोप प्रकरणम् ।। मूल-नमिऊणमणंतगुणं, चउवयणं जिणवरं महावीरं । पडिवन्न-दसणाणं, सरुवमिह कित्तइस्सोमि ॥१॥ अथ-अनन्त गुण वाले समवसरण में चार मुख वाले एवं दान शील तप भाव रूप चार वचनो से-भेदों से धर्म को बताने वाले,राग द्वष जीतने वाले, जिन-सामान्य केवलि योंमें प्रधान-जिनेश्वर श्रीमहावीर देव को नमस्कार करके प्राप्त किया है दर्शन-सम्यक्त्व जिनने ऐसे श्रावकों को स्वरूप यहां-इस प्रकरणमें मैं वताउँगा ॥१॥ मूल-तिविहा य हुंति वासा, दुविहा ते हुंति दव्वभावेहिं । दव्वम्मि दुविहा ते वि हु, गासपवाहेसु विन्नेया ॥२॥ अर्थ-ब्रतधारि श्रावक अपने लिये गुरु बनाते समय तीन प्रकार से वासक्षेप गुरु महाराज से लिया करते हैं। उनमें मुख्यतया द्रव्य से और भावसे ये दो भेद होते हैं। द्रव्य में भी दो प्रकारसे लिया जाता है। उन गुरुका वासक्षेप हमारे धनधान्य को चढावेगा इस भाव से लिया हुआ वासक्षेप-ग्रास वासक्षेप माना जाता है । और विना शोचे समझे सभी लेते हैं, अत: मै भी लेल । यह प्रवाह वासक्षेप है । ये दोनों द्रव्य वासक्षेप के भेद हैं ॥२॥ मूल-भावंमि य सुहगुरुपारतंतवसओ, सया वि विसयंमि । विहिणा जिणागमुत्तेण, जेसिं सम्मत्त-पडिवत्ती ॥३॥ तेसु सुवासा ते हंति, परमपयवासहेऊणो जेण । जणियाणंतप्पणगा, सयलकिलेसंतकरणखमा ॥४॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन-कुलकम् अर्थ- संवेगी एवं गीतार्थ ऐसे श्री सद्गुरु महाराज को परतंत्रता के साथ और उन्हीं की सेवा में तत्परता के साथ सदैव श्रीतीर्थंकरदेव-गणधर-युगप्रधान आचार्य महाराज आदि के-विषय में भक्ति बहुमान करना चाहिये । एवं उन्हीं के पास श्रीजिनागम में फरमाई हुई आवश्यक- चैत्यवंदन - स्वाध्याय - अपूर्व पठन-सद्ध्यान-साधर्मिक वात्स--- ल्यादि-विधि से जिन भव्य जीवोंके सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। उन्हीं भव्यत्माओंके परम पद मोक्ष पद के निवास हेतु, अनंत ज्ञान अनंत दर्शन अनन्त सुख, अनंत वीर्य और अनंत सम्यक्त्व इन पांच अनन्तों को पैदा करने वाले, एवं समस्त क्लेशों का दुःखोंका अन्त करने में समर्थ ऐसे भाव से सुवास- अर्थात् सद्गुरु महाराज के डाले हुए-भाव वासक्षेप होते हैं ॥३-४-॥ मूल-आययणमनिस्सकडं, विधिचेइयमिह तिहा सिवकरं तु । उस्सग्गओववाया, पासत्थोसन्नसन्निकयं ॥५॥ आययणं निस्सकडं, पव्वतिहीच कारणे गमणं । इयराभावे तस्सत्ति, भाववुडित्थमोसरणं ॥६॥ अर्थ-जिस से सम्यग दर्शन-ज्ञान- चारित्रादि गुणों का लाभ होता है। अथवा जहाँ साधु नहीं रहते हैं उसको आयतन कहते है। वह भी जाती-ज्ञाती आदि के ममत्व से रहित हो तो अनिश्राकृत माना जाता है । जिस में श्रीजैनागम प्रणीत गीतार्थ गुरु प्रदर्शित विधि आचरित किया जाता है उसको विधि चैत्य कहते हैं। इस प्रकार तीन विशेषणों से विशिष्ट देव मन्दिर शिव मोक्ष को करने वाला निश्चय से होता है । अतः सम्यक्त्व संपन्न भव्यात्मा श्रावोंकों को वहां सदैव जाना चाहिये । यह उत्सर्ग मार्ग-राज मार्ग है। पार्श्वस्थ और अवसन्न शिथिलाचारी साध्वाभांसों के नाम जीन भक्तों द्वारा बनाये हुए मंदिर में जहां की साधु वेष धारी नहीं रहते हैं । केवल उनकी देख रेख में जिसका हिसाब किताब चलता है-जिसको सूत्रकार निश्राकृत आयतन -- मंदिर मानते हैं-उसमें अपवाद से पर्व तिथियों में और कारण उपस्थित होने पर जाना चाहिये। हमेशा नहीं । आयतन--अनिश्राकृत विधि-चैत्यके अभाव में उन श्रावकों की भावबृद्धि के लिये सविहित साधुओं को उस में जाकर व्याख्यान करना चाहिये ।।५-६॥ १---सुगुरुणसंपयओ पारततं इह विणिद्दि । तेसिं परतंतेहिं, अणुछाणं होइ कायव्वं ॥ २--विसओ पुण तित्थयरा आयरिया गणहरा जुगप्पवरा । आणासायणाय भत्तो बहुमाणो होइ कायव्वो ॥ ३---आवस्सयचिइबंदण, सज्ज्ञायाप्यपढणसज्झाणं । साहाम्मिय-वच्छल्लं, एवमाई विही भणिओ ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन-कुलकम् विधि चैत्य के होते हुए निश्राकृत चैत्यमें हमेशा जाने से प्रायश्चित्त लगता है मह वताते हैंमूल-विहिचेइयंमि सन्ते, पइदिणगमणे य तत्थ पच्छित्तं । समउत्तं साहूण पि, किमंगमबलाण सड्डाणं ॥७॥ अर्थ- जहाँ कहीं विधि चैत्य के वर्तमान होते हुए उन पार्श्वस्थावसन्न साध्वाभासों के निश्राकृत चैत्य में प्रति दिन जाने से साधुओं के लिये भी शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त फरमाया है। उसी में शास्त्रीय शक्ति से निर्बल ऐसे श्रावकों के लिये तो कहनाहीं क्या ? अर्थात् उनको तो वहां हमेशा जाने में पद २ पर प्रायश्चित्त का अधिकारी होना ही पडता है। अत: ऐसे निश्राकृत चैत्य में हमेशा नहीं जाना चाहिये । अपबाद से कभी-कभी जाने की आज्ञा है ॥७॥ अब सम्यकदृष्टि श्रावक साधुओं को जहां कतई नहीं ऐसे चैत्यका स्वरूप बताते हैंमूल---मूलुत्तरगुणपडिसेविणा य, ते तत्थ संति वसहिसु । तमाणाययणं सुत्ते, सम्मत्तहरं फुडं वुत्तं ॥८॥ अर्थ-साधुओं के पञ्चमहाव्रतादि मूल-खास गुणों के एवं पिण्ड विशुद्धि आदि उत्तर गुणों के प्रतिकूल आचरण करने बाले-मलोत्तर गुण प्रति सेवी साधु वेस मात्र धारण करने वाले द्रव्यलिंगी जहाँ -- वसतिओं में स्थानों में मंदिरों में रहते हैं। उस स्थान को सूत्रों में स्पष्टतया सूत्रोंमें सम्यक्त्व नाशक फरमाया है । १-जत्थ साहाम्मियया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । मूलगुणपडिसेवी, अणाययणं तं वियाणहि ॥१॥ जत्थ साहम्मिया सव्वे, भिन्नचित्ता अणारिया । उत्तरगुणपडिसेवी, अणाययणं तं वियाणहि ॥२॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । लिंगवेस पडिच्छिन्ना, अणाययणं तं वियाणहि ॥३॥ अर्थ - जहाँ जूदे-जूदे वृत्तवाले आनार्यप्राय मूलोत्तर गुणके प्रतिकूल आचरणवाले एवं जूदे-जूदे लिंगवेश भूषावाले समानधर्मी साधाभास रहते हैं वह अनायतन नहीं जाने योग्य स्थान होता है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन-कुलकम् मूल-जत्थ वसंति मढाइसु, चियदबनियोगनिम्मिएसु च । साहम्मिणो त्ति लिंगेण, सा थली इय पकप्पुत्तं ॥९॥ तमाणाययणं फुडमविहिचेइयं, तत्थ गमण पडिसेहो । आवस्सयाइ सुत्ते, विहिओ सुसाहु-सढाणं ॥१०॥ अर्थ-जहाँ चैत्यद्रव्य-देवद्रव्य के उपयोग से बने हुए मठ-उपाश्रय आदि में लिंगसे-वेशसे साधर्मिक साध्वाभास रहते हैं उसको-साधर्मिक स्थली श्रीनिशीथ सूत्र में बताई है । जैसे थली को नमस्कार आदि निष्फल होता है ठीक वैसे ही द्रव्यलिंगी साध्वाभासों से परिगृहीत चैत्यप्रतिमादि वन्दनभी निष्फल होता है। वह स्पष्ट रूप से अनायतन अविधि चैत्य होता है। वहीं जानेके लियेभी आवश्वयक आदि सूत्रों में सुविहित साधु और तदनुयायी श्रावकों को निषेध किया गया है ॥४-१०॥ मूल-जो उस्सुत्तं भासइ, सदहइ करेइ कारवे अन्नं । अणुमन्नइ कीरंतं, मनसा वायाए काएणं ॥११॥ मिच्छदिट्ठी नियमा, सो सुविहियसाहुसावएहिं पी। परिहरणिज्जो जईसणे वि, तरसेह पच्छित्तं ॥१२॥ अर्थ-जो व्यक्ति साधु या श्रावक उत्सुत्र बोलता है । वैसी श्रद्धा रखता है और वैसे ही आचरण करता है, दूसरों से भी वैसे ही आचरण करवाता है एवं कराते हुए उत्सूत्र मूलक आचरण का मन वचन और काया से अनुमोदन करता है, वह व्यक्ति नियम से-निश्चय करके मिथ्यादृष्टि होता है। सुविहित-आगमानुसारी आचरण करने वाले साधु एवं श्रावकों को उन उत्सूत्र आचरण वाले व्यक्ति का दूर से ही परिहार-त्याग कर १-अत एव श्रीआशापल्या पूर्व सैद्धान्तिक चक्र चूड़ामणिभिर्वादोन्द्रद्विपद ( द्वीप ) घटा विद्रावण केसरिभिनिश्छद्र शुद्धक्रियाकारिभिः श्रीजिनपतिसूरिभिः श्रीप्रद्युम्नसूरिभिः सहायतनानायतनवाद कुमर्वाणैः सकलान्याचार्यचक्रप्रत्यक्षं औघनियुक्त्यादि सिद्धानुसारेण सविस्तरमायतनं संस्थाप्यानायतनं निराचक्रे, अतो अनायतन परिहारे सर्वसाधुभिः सम्यग्दृष्टि श्रावकैश्च यतितव्यम् । इति टीकाकारः अर्थात् आशापल्ली में सैद्धान्तिकचूड़ामणि श्रीजिनपतिसूरीश्वरजी ने श्रीप्रद्युम्नसूरि जी के साथ आयतन अनायतन के संबंध में औघनियुक्त्यादि आगमों के अनुसार आयतन को स्थापित कर अनायतन का निराकरण किया था। यह इतिहास पट्टावली में भी मिलता है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन-कुलकम् देना चाहिये। उन' उत्सूत्राचारियों के दर्शन करने-देखने से भी प्रायश्चित्त लगता है॥११-१२॥ मूल-धम्मत्थमन्नतित्थे, न करे तवन्हाण-दाण-होमाई । ____ चियवंदणं निकालं, सक्कथएणवि सया काहं ॥१३॥ अर्थ-अन्य तीर्थों में धर्म के लिये तप-स्नान-दान-होम आदि न करे एवं सम्यक्त्व लिये बाद ऐसा अभिग्रह रखे कि-मैं हमेशा ही शक्रस्तव-नमुत्थुणं पाठ से त्रिकाल चैत्यवन्दन करूंगा ॥१३॥ मूल-संपुन्नं चियवंदण, दोवाराओ करेमि छमासं । अट्ठसयं परमिट्ठीण, सायरं तह गुणिस्यामि ॥१४॥ अर्थ सम्यक्त्व स्वीकार के बाद छह महीने तक संपूर्ण चैत्यवंदन करूंगा। एवं १०८ वार परमेष्ठिमंत्र श्रीनवकार मंत्रका जप करूंगा ॥१४॥ मूल-जावज्जीवं चउवीसं, उद्दिट्टटुंमि चउद्दसीसं च । पॅनिम वीयएगारसि, पंचमि दोकासणाइ तवं ॥१५॥ १-उत्सूत्रभासगा जे ते दुक्करकारगावि सच्छंदा । ताणं न दंसणं पि हु, कप्पइ कप्पे जओ भणियं ॥१॥ कठ्ठ करंति अप्पं दमित, दव्वं वयंति धम्मत्थी । इक्क न चयहिं उस्सुत्तं-विसलवं जे बुट्ठति ॥२॥ उस्सुत्तदे सणाए चरणं नासिति जिणवरिंदाणं ।। वावन्नदंसणा खलु न हु लब्भा तारिसा दठ्ठ् ॥३॥ पयमक्खरं पि इक्कं जो, न रोवेइ सुत्त निदिठ्ठ। सेसं रोवंतो वि हु, मिच्छदिछी जमालिव्व ॥४॥ (भावार्थ) दुष्कर क्रिया करने वाले भी जो स्वेच्छाचारी उत्सूत्र भाषक हैं उनका दर्शन नहीं करना चाहिये। ऐसा कल्प में फरमाया है। आगमों की एक बात भी नहीं मानता हुआ जमाली के जैसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है। २- नवकारेण जहन्ना, दंडग थुइ जमलन्भिमा नेया । संपुन्ना उक्की सा, विहि जुत्ता बंदणा होई ॥१॥ अर्थात सिद्धात में पूर्वधरों ने तीन प्रकार से चैत्यवंदना वताई है। नमस्कार से जघन्य, दण्डक स्तुति आदि से मध्यम, और सम्पूर्ण विधि से युक्त उत्कृष्ट चैत्यवन्दना होती है। इस सम्बन्ध में विशेष विधि देववन्दन भाष्य आदिसे जानना चाहिये ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ चैत्यवन्दन-कुलकम् अर्थ-सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद श्रावक को जीवन पर्यंत कम से कम चौवीस नवकार मंत्र जपने ही चाहिये । उद्दिष्ट-अमावस्या अष्टमी चतुर्दशी में और पूर्णिमा द्वितीया एकादशी पंचमी की पर्व तिथियों में बियासना आदि करना चाहिये ॥१॥ मूल-पंचुबरिचउविगई, हिम-विस-करगे य सव्वमट्टी य । राइभोयणगं चिय, वहुबीयअणंतसंधान ॥१६॥ घोलबडा वाइंगण, अमुणियनामाणि पुप्फफलियाई । तुच्छफणं चलियरसं, वजह वजाण बावीसं ॥१७॥ अर्थ-उदूंबर-उंबरा के बड़ के प्लक्ष के मूलर के और पीपल के फल, ये पांच उदुम्बर संज्ञा से प्रसिद्ध हैं । इनको ४ चार महाविगइ-मद्य-मांस-शहद और मक्खन इनको ह वरफ को १० अफीम-संखिया आदि विष को ११ वर्षाद में पड़ने वाले गडों को १२ सब प्रकार की मिट्टी को १३ रात्रीभोजन को १४ जिसमें बीज बहुत हैं असात्विक बहु बीज फलों को १५ जो जमीन के अंदर पैता होते हैं जो काट कर बोने पर ऊग जाते हैंऐसे अनंत कायिक कांदे आलू आदि फलों को १६ संधाना-अथाणों को १७ गरम न किये हुए दही मठ्ठ आदि में डाले हुए बड़े-घोलवडों को १८ बैंगन को १६ जिन फलों को आप भी न जानता हो न दूसरा ही कोई जानता हो-ऐसे अज्ञात पुष्प फलों को २० पीलू-पीचू आदि तुच्छ फलों को २१ जिसका रस चलायमान हो गया है-ऐसी चलितरस वस्तु को २२ इन बावीस छोड़ने योग्य अभक्ष्य वस्तुओं का हे भव्यात्मा मुमुक्षुओं ? अपने हित के लिये छोड़ दो ॥१६-१७॥ १–भयवं बीय पमुहासु पंचसु तिहिसु अणुदाणं कयं किं फलं होइ ? गोयमा बहुफलं भवइ जेओ णं जीवे पाएणं एयासु तिहिसु परभवाउयं बंधा। तम्हा समणेण वा समणोए वा सावएण सावियाए वा विसेसओ धम्माणुठ्ठाणं कायव्वं । महानिशीथ सूत्रे२.-अनंतकाय बत्तीस प्रकार के होते हैं उनके नाम सव्वायकंदजाई, सूरणकंदो य वज्जकंदो य। अहहलिद्दा य तहा, अइं तह अल्लकच्चूरो ॥१॥ सत्तावरी विराली, कुमारी तह थोहरी गिलोइ य । ल्हसणंवंस करिल्ला, गज्जर तह लोणओ लोढा ॥२॥ गिरिकन्नकिसलपत्ता, कसेरूगा थिग्गअल्लमुत्थाय । तह लूणरुक्छल्खली, खिल्लुडो अमय वल्ली य ॥३॥ मूला तह भूमिरसा, विरहा तह ढकवत्थुलो पढमो । सूयरवल्लो य तहा, पल्लंको कोमलं-बिलिया ॥४॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० चैत्यवन्दन-कुलकम् मूल — संगरहलि- मुग्ग-मुहट्ठे-मास - कंडुपमुक्खचियलाई । सह गोरसेण न जिमेए य, राइत्तियं न करे ॥ १८ ॥ अर्थ – सांगर फलियें' सांगरियें, मूंग, मौठ, उड़द, कंडुक धान्य विशेष आदि दो दल वाले अनाज - ( कठोल धान्य वाल चंवले, चणे, तूअर अरहर, कुलथी, मसूर, मेथी आदि जिनकी दो फाड़ें होती हैं ऐसे द्विदल धान्य ) विना गरम किये गोरस में दही छाछआदि में नहीं खाने चाहिये । न राइता ही बनाना चाहिये ||१८|| द्विदल के लक्षण को बताते हैं मूल - जम्मिय पिलिज्जते, मणयं पि न नेहनिग्गमो हुज्जा । दुन्नियदलाइ दीसंति, मित्थिगाईण जह लोए ||१९|| अर्थ - घट्टी में पीसने पर जिसमें से तेल का निर्गम नहीं होता, तेल नहीं निकलता है । एवं जिसमें दो दल प्रत्यक्ष दीखते हैं । जैसे कि लोक में मेथी आदि धन्य । में देखा जाता है । उनको द्विदल कहते हैं ||१६|| मूल — निसि न्हाणं वज्जेमि, अच्छानिएणंचुणा दहाईसु । अंदोलणं च वज्जे, जीयाण जुज्झावणाई य ॥२०॥ अर्थ - सम्यक्त्व को ग्रहण करने वाला श्रावक प्रतिज्ञा करके ताकि मैं रात्री में स्नान नहीं करूंग | अनछाने पानी से स्नान नहीं करूंगा | हौद, कुँए तलाव वावड़ियो में भी स्नान नहीं करूंगा । अर्थात् दिन में जीवाकुल भूमि को छोड़ कर कपड़े से छने हुए परिमित पानी से श्रावक को स्नान करना चाहिये। हिंडोले की क्रीड़ा को भी नहीं करनी चाहिये स्व-परोपघातक होने से । मूर्गे सांढ आदि जीवो को परस्पर में लडाना नहीं चाहिये | ऐसा करने से उन अवोध जीवों का नाश होता है और उनके संरक्षकों में वैर वृद्धि होती है । अतः ऐसे विघातक काम श्रावक को छोड़ देने देने चाहिये ॥ २० ॥ मूलन वहेमि पाणिणो न य भण्णमि भासं मुसं न य मुसामि । करे ॥२१॥ परदव्वं परजुवई नामियमिह परिग्गहॅ पि अनंताई । आलू तह पिंडालू त्तीसं जाणिऊण एयाई बुद्धिमणा वज्जेव्वा पयत्तेण ॥५॥ १ कई लोग मूंग मौठ आदि का तो कच्चे गोरस के साथ उपभोग नहीं करते परंतु सागरियाँ, बांडलिये को फलियाँ आदि के लिये कच्चे दही छाछ का परहेज नहीं करते हैं । वे लोग मूंग-मौठ आदि को तो धान्यद्विदल मानते हैं, और सांगरियाँ वॉड़लिये की फलियाँ आदि को काष्ठ द्विदल मानते हैं । किन्तु सिद्धांत में द्विदल के संबन्ध में ऐसे भेद नहीं बताये हैं । अतः मट्ठे आदि में किसी भी द्विदल को नहीं खाना चाहिये । विवेकियों को कच्चे दही छा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन-कुलकम् अर्थ-सम्यक्त्व को स्वीकार करने पर श्रावक को बाहर व्रत पालन करने चाहिये । सब प्रकार के नियमों में मूलभूत पाँच अणुव्रत होते हैं। उनमें पहिला व्रत यह है किप्राणियों को ... चलते फिरते आंखों से दीखते स्थल जीवों को बिना कारण अपराधीको नहीं मारूंगा। दूसरा व्रत-मृषा भाषा-जिसके बोलने से उत्तम लोगों में निंदा हो, एवं राजा से दंडित हो एवं दूसरों का घात होता हो- ऐसी असत्य वाणो नहीं बोलँगा। तीसरा व्रतविना दिये हुए दूसरे के द्रव्य को नहीं लूगा अर्थात् चोरी नहीं करूंगा। चौथा व्रत-व स्त्री में संतोष रखते हुए पर स्त्री का संगभी नहीं करूंगा। पांचवां व्रत -- जरूरत से जादा अमित परिग्रह धन-धान्य-क्षेत्र आदि का संग्रह नहीं? रखूगा ॥२१।। मूल-बहुसावज्जं वाणिज्जमवि, सया तिव्बलोहओ न करे । __बहुलोयगरहणिज्जं, विज्जाइकम्मं पि वज्जेइ ॥२२॥ अर्थ-हमेशा तीव्र लोभ से अधिक पाप वाले व्यापार श्रावक को नहीं करने चाहिये । एवं बहु लोक गर्हणीय धोवी, चमार, नाई, आदि नीच जाति के काम भी नहीं करने चाहिये । अथवा-गर्भपातनादि बहु लोक गर्हणीय वैद्य-डाक्टर आदि के का भी नहीं करना चाहिये ॥२२॥ मल-रायनियोगाइगयं, खरकम्मं परिहरामि जहुसत्तिं । पवयणसाहम्मिणं, करेमि वच्छल्लम विगप्पं ॥२३॥ अर्थ-राजा आदि की नौकरी में रहते हुए भी कठोर कर्म को यथाशक्ति छोड़ना चाहिये । एवं जैन प्रवचन-शासन को समान रूप से मानने वाले साधर्मि बन्धुओं के प्रति तन मन धन से वात्सल्य अवि-कल्प-भेदभाव के बिना करना चाहिये। इसके लिये भी श्रावक को अभिग्रह रखना चाहिये ॥२३॥ ___ साधर्मिकों के साथ कैसे बरतना चाहिये यह बताते हैंमूल-तेहिं समं न विरोहं करोमि न च धरणगादि कलहं पि। सीयंतेसु न तेसिं सइ विरिए भोयणं काहं ॥२४॥ अर्थ-उन साधर्मी वंधुओं के साथ कदापि विरोध नहीं करूंगा धरणा'-डिग्रीजप्ती आदि लड़ाई झगड़े भी उनके साथ नहीं करूंगा। साधर्मिक लोग तन-धन से या १-श्रावक इन पांच अणुव्रतों की रक्षा के लिए ३ गुण व्रत, और.४ शिक्षा व्रत रखते हैं । श्रावक के बारह व्रत होते हैं । जिज्ञासु अन्यत्र से जानें। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन-कुलकम् किसी और प्रकार से दुःखी हों उस हातलमें शक्तिके रहते उनका दुःख' मिटाये बिना भोजन भी नहीं करूंगा ॥२४॥ मूल-दम्माउ होणतरगं, जिणभवणे न साडगं दाहामि । अणुचियं नर्से गीयं च, रासयं आसणाई वि ॥२५॥ निट्ठीवणखिवणाई, सव्वं चासायणं न य करेमि । सजिण-जिणमंडवं ते कारणसुयणं च मुक्कलयं ॥२६॥ अर्थ-द्रम्म' नामक द्रव्य से कमती मूल्य में आना वाला कपड़ा जिन मंदिर में नहीं दूंगा। अनुचित नृत्य-गीत-रास गरबे आदि एवं अनुचित आसनादि नहीं करूंगा। थूक-खखार-नाकका मैल फकना आदि सब प्रकार की आसातना नहीं करूंगा। जहाँ जिनेश्वर देव की प्रतिमा विराजमास है ऐसे जिन मंडप में सोना भी निषिद्ध है। कारण विशेष होने पर सोना मोकला रखता हूँ। अर्थात् गाढ कारण होने पर सो सकंगा ॥२५-२६॥ मूल-नाणायरियाणमयंतराणि, सुत्तुत्तजुत्तिबज्झाणि । सोऊण कुसत्थाणि य, मन्नामि य दुक्खजणगाणि॥२७॥ १-विवायं कलहं चेव, सव्वाहा परिवजइ ।। साहाम्मिएहिं सद्धिं, तु जओ सुत्ते वियाहियं ॥१॥ जो किर पहरइ साहम्मियंमि, कोवेण दंसणमणम्मि ! आसायणं चो जो (सो) कुणइ, निकिवो लोगबंधणं ॥२॥ आणाय वहंतं जो उव दूहिज मोह दोषेण । तित्थयरस्स सेयस्स य, संघस्स य पच्चणीओ सो ॥३॥ साधर्मिकुलके नवांग वृत्तीकार श्री अभयदेव सूरी । सो आत्थोतं च सामत्थं, तं विन्नाण मणुत्तमं । साहम्मियाणा कज्जंमि, जं वच्चंति सुसावया ॥१॥ २- द्रम्माद् भीमप्रिय-विसलप्रिय-नामकात्-इति टीकाकारः । ३- खेलं केलि कालिं कला कुललयं तन्बोल मुग्गालयं, गाली कंगुलिया सरीरधुवणे केसे नहे लेहियं । भक्तोसं तय पित्त वंत दसणे विस्सामणं दामणं दंत त्थि नह गंड नासिय सिरो सुत्त छवर्णं मलम् ॥१॥ मंतं मीलण लीलयं विभजनं भण्डार दुट्ठासणं छाणी कप्पड दालि पप्पड वडी विस्सारणं नासणं । अकदं विकहं सरत्थघडणं तेरिच्छ संठावणं, अग्गीसेवणं रंधणं परिखणं निस्सीहियाभंजणं ॥२॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन-कुलकम् अर्थ-अनेक आचार्यों के सूत्रोक्त युक्तियों से वाह्य आगम युक्ति विकल जूदे २ १ मतान्तरों को एवं कुशास्त्रों को सुन कर निश्चित रूप से मानूंगा किये भवान्तरों में दुःख देने वाले हैं। ऐसा मान कर उनमें श्रद्धा नहीं करनी चाहिये ॥२७॥ (शार्दूल विक्रीड़ित वृत्तम् ) मल-सव्वन्नूण-मयं मएण रहिओ सम्मं सया साहए, भव्वाणं पुरओ पवाहविरओ निच्छम्म निम्मच्छरो । सो मे धम्मगुरु सया गुशिगुरू कल्याणकारी वरो, लग्गो जो जिनदत्त सोहणपहे नीसेससुक्खावह॥२८॥ अर्थ-जो सर्वज्ञ वीतरराग भगवान तीर्थकर देव के मत को मद रहित होते हुए सदा भली भौति साधते हैं। जो भव्यात्माओं के सामने लोकप्रवाह से अलग रहते हुए धर्मोपदेश सुनाते हैं । जो कपट रहित और मात्सर्य भाव से मुक्त हैं। जो गुणियों के गुरु हैं कल्याणकारी हैं एवं जो ज्ञान दर्शन चारित्र में प्रधान हैं और समस्त सुख को वहन करने वाले जिनदत्त-श्रीजिनेश्वर भगवान द्वारा दिये हुए-उपदेश द्वारा दिखाये हुए शोभन पवित्र मार्ग में प्रवृत्तिशील हैं वे ही महात्मा मेरे हमेशा के धर्म गुरु हैं । ऐसी पवित्र भावना सम्यक्त्वधारी श्रावक को रखनी चाहिये । इस श्लोक में प्रकारान्तर से कर्ता अपना (जिनदत्त सूरि ) ऐसा नाम भी सूचित कर दिया है। छती वाणह सत्थ चामर मणोणेगत्त मभंगणं सच्चित्ताणमवाय चायमजिए दिट्ठीअ नो अंजलो । साडे गुत्तर संग भंग मउडं मोलिं सिहरोसेहरं, हुड्डा जिंदुहगंडियाइरमणं जोहार चंडकियं ॥ ३ ॥ (६५) रेकारं धरणं रणं विवरणं बालाण पल्लत्यियं, पाऊ पायपसारणं पुडपुडो पंकं रडं मेहुणं । जया जेमण गुज्झ विज वणिजं सिज्जं जलुमजणं ए माइ य सवज कज मुजओ वज्जे जिणिंदालये ४ ।। (८४) १-देवगृहवास, देव द्रव्य भाक्षण, यतिदेव पूजा, श्रावक मुखवस्त्रिका, स्थापनाचार्य प्रतिक्रमण, देवाग्रबलिप्रदानात्रिक मांगलिक्यादि प्रतिषेधन, प्रासुक शीतल जलदानगलनक ग्रहण निवारण, जात सूतकमृतक सूतक रजक तंतु वायादि नीच जति सक्त वस्त्र पात्र भक्त पानक खादिभ स्वादिम रूप चतुर्विधाहारप्रहण, पर्व तिथि कल्याणिक तिथि वर्जित तिथि पोषध ग्रहण ............रूपवाणि ।। ॥ इति चैत्यवन्दन-कुलकम् समाप्त ॥ . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्री १०८ श्री श्रीमज्जिनदत्तसूरीश्वर विहितं ॥ संदेह-दोलावली॥ अपर नाम कतिपय संशय पद प्रश्नोत्तर प्रकरणम् (अनुवादक-श्रीमज्जिनहरिसागरसूरी ) पडिविम्बिय पणयजयं, जस्संघ्रिरुहोरुमुउरमालासु । सरणागयं व नज्जइ, तं नमिय जिणेमरं वीरं ॥ १॥ अर्थ --प्रणाम करता हुआ जगत् जिनके पद-नख रूपदर्पणोंमें प्रतिबिम्बत होता हुआ शरणागत के जैसे देखा जाता है। उन शासनाधीश्वर जिनेश्वर श्रोवीरप्रभु को विनय वन्दन कर के। कइवयसंदेहपयाणमुत्तरं, सुगुरुण संपयाएणं । वुच्छं मिच्छतमओ, तमन्नहा होइ संमइयं ॥२॥ अर्थ-सुविहितगीतार्थ गुरु देवों के सम्प्रदाय के अनुसार कितनेक संदेह स्थानों के उत्तर को मैं कहूँगा! इसलिये कि उसके कहे विना सांशयिक नामका मिथ्यात्व होता है। सुगुरुपयदंमणं पइ कयाभिलासेहि सावयगणहिं । परमसुहकम्मपयडिप्पडिसिद्धतदिट्ठसंगेहिं ॥ ३ ॥ अर्थ-श्री सद्गुरु महाराज के दर्शनों के प्रति जिनकी अभिलाषा है, परंतु अशुभ कर्मप्रकृति के उदय से प्रतिविद्ध हो रहे हैं श्रीगुरुमहाराज के इष्ट दर्शन सत्संग जिनके ऐसे अनेक देशीय श्रावक समुदायों को-। गीयत्थाणं गुरूणं , अदसणाओ कहं भवे सवणं । सवणं विणा कहं पुण, धमाधम्मं विलक्खिज्जा ॥४॥ अर्थ-गीतार्थ सद्गु ओं के दर्शन नहीं होने से शास्त्र श्रवण कैसे हो। फिर शास्त्रों को सुने विना धर्म को एवं अधर्म को कैसे पहिचानें । अर्थात् गुरु दर्शन-सत्संग के विना धर्माधर्म को पहिचना मुश्किल है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली कहमित्थ पयणट्टां, धम्मो संभवइ कहमधम्मो य । धम्मो वि दुहा इह, दव्वभावमेएहिं सुपसिद्धो ति॥५॥ अर्थ-इस संसार में किस प्रकार प्रवृत्ति करने से किस प्रकार का धर्म होता है हाला कि लोरूढिसे धर्म और अधर्म को सभी जातते हैं। परन्तु यथार्थ अनुष्ठान ज्ञान का अभाव गुरुगम के विना रहता ही है । एवं यथार्थ अनुष्ठान के विना कार्य सिद्धि भी नहीं होती। द्रव्य और भाव इन दो भेदों से धर्म भी दो प्रकार का होता है, यह बात तो सुप्रसिद्ध ही है। गड्डग्यिपवाहाओ-जो पइनयरं दीसए बहुजणेहिं । जिणगिहकारवणाई, सुत्तविरुद्धो असुद्धो य ॥६॥ अर्थ-गाडरियाप्रवाह से--अविचारपूर्ण प्रवृति से प्रत्येक नगर गांव आदि में शुभाचार रूप होने से यह धर्म है, ऐसा जो धर्म है। जिसमें कि अविधि पूर्वक जिन मंदिर बनाना-पूजना आदि कार्य होते हैं । वह धर्म सूत्रविरुद्ध, और अशुद्ध माना जाता है। क्यों कि उसमें सद्गुरुओं की सत् शास्त्रों की आज्ञा नहीं होती। सो होई दव्वधम्मो अपहाणो नेय निव्वुई जणइ । सुद्धो धम्मो विओ, महिओ पडिसोयगामीहिं ॥७॥ अर्थ- सूत्र विरुद्ध एवं अशुद्ध ऐसा वह शुभाचार रूप धर्मभी द्रव्य धर्म कहा जाता है । वह अप्रधान होने से निवृत्ति-परमानन्द रूप मुक्ति को पैदा नहीं करता। आगम विहित, गीतार्थगुरु अनुमत प्रतिश्रोतगामी-त्याग मार्ग को स्वीकारने वाले संयमी पुरुषों द्वारा अराधित, ऐसा दूसरे प्रकार का विचार पूर्वक किया हुआ धर्म-भावधर्म माना जाता है, एवं वह शुद्ध है। जेण कएणं जीवो, निवडइ संसारसागरे घोरे । तं चेव कुणइ कज्जं, इह सो अणुसोयगामी उ ॥८॥ अर्थ-जिस काम के करने पर जीवात्मा घोरसंसार सागर में गिर जाय-उस कामको जो करता है, उसको इस प्रवचन में अनुश्रोत्रगामी बताया है। जेणाणुढाणेणं खविय, भवं जंति निव्वुइं जीवा । तकरणरुई जो किर' नेओ पडिसोयगामी सो ॥९॥ अर्थ-जिस अनुष्ठान-क्रिया कलापको करके जीव अपने संसार को मिटा करके निर्वाण धाम में पहूँच जाते हैं। उस अनुष्ठान को करनेकी रुचि-वाला मनुष्य निश्चय करके प्रतिश्रोतगामी शास्त्रो में बताया है ऐसा जानना चाहिये । | Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली पढ़मगुणठाणे जे जीवा, चिठ्ठति तेसिं सो पढमो । होइ इह दव्वधम्मो, अविसुद्धो वीयनामेणं ॥१०॥ अर्थ-पहिले मिथ्यत्वगुणस्थानकमें जो जीव रहते हैं, और वे जो अनुष्ठानक्रिया करते हैं, उनको वह पहिला द्रव्यधर्म अविशुद्ध इस दूसरे नाम वाला होता है । अर्थात् मिथ्यात्वीयों का आचरण अविशुद्ध नामका द्रव्य धर्म है। अविरयगुणठाणईसु, जेय ठिया तेसिं भावओ बीओ। तेण जुआ ते जीया, हुंति सबीआ अओ सुह्रो ॥११॥ पढमंमि आउबंधो, दुकरकिरियाओ होइ देवेसु । तत्तो वहुदुखपरंपराओ, नरतिरियजाईसु ॥१२॥ अर्थ-अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान आदिमें जो रहे हुए हैं उनका शुभ अनुष्ठानधर्म-दसरा भाव धर्म है । उससे संपन्न जो जीव होते हैं वे बोधिजीज करके सहित होते है अत: यह दूसरा शुद्ध भावधर्म है। अर्थात् पहिला साधुओंका शुद्ध भावधर्म दूसरा गृहस्थों का शुद्ध भाव धर्म ।। अर्थ-पहिले द्रव्यधर्मके के अधिकारी दुष्कर-कठोर क्रिया का आचरण करके देव संबंधी आयुष्य का बंध करके देवता में पैदा होते हैं। बाद में विषयभोगकी तल्लीनता के कारण नर नियं च आदि दुर्गतियों में बहुत दुःख परंपराओं को भोगते हैं ऐसे जोवोंके लिये ही कहा जाता है -राजेसरी नरकेसरी”। मूल-बीएविमाणवज्जो आउयबंधो न विज्जाए पायं । सुखित्तकुले नरजम्म, सिवगमो होइ अचिरेण ॥ १३॥ अर्थ-दूसरे भावधर्म के अधिकारी के वैभानिक देवों के सिवाय नीच जाती के देवता तक का आयुष्य प्रायः करके नहीं बंध होता। भाव धर्माधिकारी जीव वैमानिक देव होकर सुक्षेत्र और सुकुल में मनुष्यजन्म प्राप्त कर झटपट मोक्षगामी होता है । मूल-पाणिवहाई पावट्ठाणाणटारसेव जं हुति । होइ अहम्मो य तेसु पवट्टमाणस्स जीवरस ॥१४॥ अर्थ-प्राणीवध-हिंसा आदि पापके अठारह स्थानक जिसके करने से होते हैं। उन कामों में प्रवृत्ति मान जीवको अधर्म होता है। मल-तत्तो तिरियनरयगई, अह रुदं च दुन्निज्झाणाई। __ सग्गापवग्गा-सुहसंगमो कहं तस्स सुमिणे वि ॥१५॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह - दोलावली ६७ अर्थ - उन पापस्थानों के सेवनसे हुए अधर्म से तिथंच गति और नरक गति होती है । उनमें भी आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दोनों दुर्ध्यान बने रहते हैं । इस हालत में उस अधर्म का आचरण करने वाले को स्वप्न में भी स्वर्ग और मोक्षसुखका संगम कैसे प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । मूल - तम्हा कयसुकयाणं सुगुरुणं दंसणं फुडं होइ । कत्तो निष्पुण्णाणं गिहम्मि कप्पदुमुप्पत्ति ॥ १६ ॥ अर्थ - इसलिये किया है सुकृत- पुण्य जिनने ऐसे पुण्यवंतों को श्रीसद्गुरु महाराज के दर्शन प्रत्यक्ष में प्राप्त होते हैं । यह भी ठीक ही है कि निष्पुण्य-भाग्यहीन आदमी के घर कत्पद्रुम की उत्पत्ति कहां से हो । मूल - भवा वि केइ नियकम्मपयडिपडिकुलयाइ संभूया । जत्थ सुसाहुविहारो संभइ न सिद्धिसुक्खकरो ||१७|| अर्थ - कितनेक भव्यात्मा भी अपने कर्मों की प्रकृतियों की प्रतिकूलता से वहां पैदा होते हैं, जहां सिद्धिसुख को करनेवाला सुसाधुओं का बिहार ( असंयम क्षेत्र की प्रधानता के कारण ) नहीं होता । मूल - पयईए ऽवि हु तेसिं, सद्धम्मपसाहणुज्जयमणाणं । सुगुरुणं अदंसणओं, संदेहसयाणि जायंति ॥ १८ ॥ अर्थ-स्वभाव से ही सधर्म की साधना में उत्कण्ठित होनेवाले उन भव्यात्माओं के दिल में श्रीसद्गुरु महाराज के अदर्शन ( संसर्ग ) से सैकड़ों संदेह पैदा होते हैं । मल-ते सन्देहा सव्वे गुरुणा विहरंति जत्थ गीयत्था । गंतु पुठ्ठव्वा तत्थ इहरहो होय मिच्छत्तं ॥ १९॥ अर्थ - उन सभी संदेहों को जहाँ श्रीसद्गुरु महाराज विचरते हैं वहां जाकर पूछ लेने चाहिये | अन्यथा अतत्त्वश्रद्रानरूप मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है । मूल - संसइयमिह चउत्थं, निस्सन्देहाण होय सम्मत्तं । जुगपवरागमगुरु, लिहिय वयणदंसणसुईहिंते ॥ २० ॥ अर्थ – सन्देह के निवारण न होने पर सांसायिक नामका चौथा भिथ्यात्व होता है । इसी प्रकार जिनके संदेह मिट जाते हैं उन निस्सन्देह भाव वालों को निर्मल सम्यक्त्व पैदा होता है | युगप्रधानबोधवाले गुरुमहाराजाओं के लिखे हुए वचनों को सिद्धान्तोंका वेक दृष्टि से देखने एवं सुनने से सन्देह नष्ट होते हैं । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली मूल-तो ते भव्वा जेसिं, होइ सडावस्सए वि इइबुद्धी । कह सिद्धते वुत्तं, भव-सिव-दुह-सुहकरं एयं ॥२१ अर्थ-कितनेक लोग मन्दिर आदि के संबन्ध में तर्क करना उचित मानते हैं । परन्तु सडावश्यक क्रिया में नहीं। उन लोगों को ध्यान में रखते हुए ग्रन्थ कार फरमाते हैं कि - आवश्यक में भी द्रव्य-भाव आदि अनेक रूपता होने से सडावश्यक में भी इस प्रकारकी तर्क बुद्धि जिनके दिल में उत्पन्न होती है कि सिद्धान्त में आवश्यक किस प्रकार फरमाया है वह संसार का हेतु है ? या मोक्षका ? सुखकारी है ? या दुखःकारी ?। इस प्रकार सडावश्यक में तर्कणा करने वाले वे लोग भव्य-सुन्दर प्रकृति वाले ही हैं। मूल-एसो किर सन्देहो जायइ केसि पि इत्थ भव्वाणं । परिग्गहपरिमाणं सावगेण एगेण जं गहियं ॥२२॥ मूल-तं अन्नो वि हु भव्वो, घित्तुणं पालय पहत्तेणं । जय ता जुत्तं किमजुत्तमित्थ तत्थुत्तरं एयं ॥२३।। अर्थ-कितनेक भव्यात्माओं को यहां यह सन्देह होता है कि एक श्रावक ने जैसे परिग्गहपरिमाण ब्रत को लिया है उसको साक्षी मानकर उसी तरह से यदि कोई दूसरा भव्यात्मा श्रावक परिग्रहपरिमाण व्रत लेकर प्रयत्न पूर्वक पालन करता है। अर्थात् संयोग वशात् गुरु साक्षी से व्रत नहीं लिया-तो वह परिप्रहपरिमाण व्रत का पालन उचित है। वा अनुचित ? इस प्रकार का प्रश्न होने पर उसका उत्तर यह है कि-। ___मूल-भवभिरू संविग्गो, सुगुरुणं दंसणम्मि असमत्थो । ता तं पवज्जिऊणं, पालइ आरोहगो सो वि ॥२४॥ अर्थ-गुरुसाक्षी से गृहीत परिग्रहपरिमाण व्रत वाले के परिग्रह परिमाण को देखकर कोई भवभीरू संसार से उद्विग्न चित्तबाला सद्गुरु महाराज के दर्शन करने में असमर्थ ही हो उस हालत में उस परिग्रहपरिमाण व्रत को अपना कर उक्त मर्यादा से अगर पालन करता है तो वह आराधक-भगवान का आज्ञाकारी ही है। अति प्रसंग को निवारणार्थ कहते हैंमल-जइ तं गीयत्थेहिं, सुगुरुहि दिट्ठमत्थि सत्थोत्तं । ता तं परोवि गिण्हउ, तग्गहणं नन्नहा जुत्तं ॥२५॥ अर्थ-अगर वे वह परिग्रहपरिमाण गोतार्थ सद्गुरुओं द्वारा देखा गया है और यदि वह शास्त्रोक्त है तो उसको दूसरा भी ग्रहण करो। यदि ऐसा नहीं है, तो वह ग्रहण करना भी युक्त नहीं है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली ६६ मूल–ठवणायरिए पडिलेहियम्मि, इह साविग्गाइ वंदणयं । किं सावगरस कप्पइ, सामाइय माइ करणं च ॥२६॥ अर्थ- क्या श्राविका से प्रतिलेखन कराये हुए स्थापनाचार्य पर श्रावक को वन्दन करना उचित है ? और सामायिक पौषध आदि करना भी क्या ठीक है ? मूल-कप्पइ न एगकालं, वंदणसमाइयादि काउं जे । एगरस पुरो ठवणायरियरस य सडसड्ढीणं ॥२७॥ अर्थ-उपर के प्रश्न के जवाब में कहते हैं कि-हां कल्पता है। परन्तु एक काल में एक ही स्थापनाचार्य जो के सामने श्रावक श्राविकाओं को एक साथ में वन्दन सामायकादि अनुष्ठान करना नहीं कल्पना है। अलग २ स्थापनाचार्य होने चाहिये । प्रतिलेखन मेल कोई करे । एक स्थापना चार्य पर तो एक के-श्रावक के या श्राविकाके अनुष्ठान हो जानेपर ही दूसरा-श्रावक या श्राविका अनुष्ठान करें। एक साथ नहीं । मूल-उस्सुत्तभासगाणं, चेइयहरवासिदव्वलिंगीणं । जुत्तं किं सावय-सावियाणं वक्खाणसवणं त्ति ॥२८॥ अर्थ-- उत्सूत्र भाषण करने वाले चैत्यवासी या घर में रहने वाले द्रव्य लिगी साधुओंका व्माख्यान सुनना क्या श्रावक श्राविकाओं को उचित है ? __ मूल-तित्थे सुत्तत्थाणं, सवणं तित्थं तु इत्थ णाणाई। गुणगणजुआ गुरु खलु, सेससमीवे न तग्गहणं ॥२५॥ अर्थ--उपर के प्रश्न के जवाव में फरमाते हैं कि- सूत्र और अर्थ का सुनना तीर्थ में ही ठीक होता है , और तीर्थ-तिराने वाले यहां ज्ञानादि गुण ही हैं। उन गुण समुदाय से संपन्न साधु ही गुरु हो सकते हैं। गुरु के पास में ही सूत्र-अर्थ सुनना चाहिये। दूसरो के पास में सूत्रार्थ का ग्रहण अनुचित है। मूल-इहरा ठेवइ कन्ने, तस्सवणा मिच्छमेइ सा विहू । अबलो किमु जो, सड्ढा जीवाजीवाइअणभिन्ना ॥३०॥ अर्थ-कदाचित् उन चेत्यवासी या स्वच्छंदाचारियों के स्थान में जाना ही पड़े तो शक्ति सम्पन्न साधु इसका प्रतिबाद करे। प्रतिवाद करने की हालतमें न हो तो - अपने दोनों कानोंको स्थगित कर दें। क्यों कि उन शिथिला चारियों की धर्मकथा को सुनने से अपरिपक्वज्ञानवाला साधु भी मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। सैद्धान्तिक ज्ञान से निर्बल और जीवाजीवादि तत्वों से अनभिज्ञ ऐसे श्रावक के लिये तो कहना ही क्या ? Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली मूल----कीरइ न वत्ति जं, दव्वलिंगणो वंदणं इमं पुठ्ठ। तत्थेयं पच्चुत्तरं लिहियं आवस्सयाईसु ॥३१॥ अर्थ द्रव्यलिंगि-शिथिलाचारियों को बन्दन करना चाहिये या नहीं ? इस प्रकार जो प्रश्न किया गया है उसके प्रति आवश्यकआदि सूत्रों में यह उत्तर लिखा हुआ है। मूल-पासत्थाई वंदमाणस्स, नेव कीत्ति न निज्जरा होइ । कायकिलेसं एमेव, कुणइ तह कम्मवंधं च ॥३२।। अर्थ-पासत्थे आदि शिथिलाचारियों को वन्दन करते हुए श्रद्धालु व्यक्ति की न कीर्ति होती हैं, और न निर्जरा ही हती है। केवल कायकलेष और कर्म बन्ध है ही वह करता है। मूल-जो पुण कारणजाए, जाए वायाइओ नमोक्कारो । कीरइ सो साहणं, सट्ठाणं सो पुण निसिद्धो ॥३३॥ अर्थ-कारणों के उत्पन्न होने पर पासत्थे आदियों को साध ही वाचिक नमस्कार करें । श्रावकों के लिये तो वाचिक नमस्कार भी निषिद्ध है। अर्थात् उनको श्रावक वचन से भी नमस्कार न करें। क्यों कि श्रावक आगमगत विशिष्ट विचारों से अनजान होते हैं। मूल-पोसहियसावयाणं, पोसहसालाइ सावगा वहुगा । गंतु पगरणजायं, किंपि वियारिति तं जुत्तं ॥३४॥ अर्थ - पौषध ग्रहण करनेवाले श्रावकों की पौषधशाला में बहुत से श्रावक जाकर उपदेशमाला-जीवविचार आदि किसी अनिदिष्ट प्रकरण विशेषको विचारते हैं । वह क्या ठीक है ? मूल-केणइ गीयत्थगुरु, आराहतेण पगरणं किंचि । सुठ्ठ सुयं नायं चिय, तस्सत्थं कहइ सेसाणं ॥३५॥ अर्थ-सुविहित गोतार्थ गुरु महाराज की आराधना करने वाले किसी श्रावक ने यदि कोई प्रकरण भलीभाति सुना हो एवं जाना हो तो उसके अर्थको बाकी के श्रावकों को कहता है कहना चाहिये । मूल-तं च कहतं अन्नो, जइ पुच्छइ कोवि अवरमवि किंचि । __ जइ मुणइ तं पि सो कहइ, तस्स अह नो भणिज्जे मं ॥३६॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x x संदेह-दोलावली अर्थ-उस प्रकरणार्थ को कहते हुए यदि दूसरा कोई भी सम्यक्त्वी या मिथ्यात्वी मनुष्य प्रकरण संबंधी या ओर भी कुछ पूछता है उस बातको प्रकरण व्याख्याता श्रावक यदि जानता है, तो वह कह सकता है। अगर नहीं जानता है, तो न कहे, साथ ही यह बात कहे-। मूल-एयं खलु गीयत्थे, गुरुणो पुच्छिय तओ कहिस्सामि । इय जुत्तीए सड्डो, भवभीरू कहइ सड्डाणं ॥३७॥ अर्थ-श्री गीतार्थ गुरुओंको पूछकर बाद में इस तुम्हारे प्रश्न का जवाब दूंगा। इस युक्ति से भवभीरु श्रावक दूसरे श्रावकों को कहे। अर्थात् मन घडंत जबाव न देकर सद्गुरु का आश्रय ले। __ पौषध प्रश्नः-सभी दिनों में पौषध ग्रहण करना चाहिये या प्रति नियत दिनों में ही ? क्योंकि कई लोग कहते हैं--कि-सामग्री के सद्भाव में सदा ही श्रावक को पौषध लेना चाहिये। प्रति नियतदिन के भरोसे प्राप्त समय सामग्री को निष्फल नहीं जाने देना नहीं चाहिये । ज्ञाता सूत्र में नन्दमणिकार सेठ ने तीन दिन का पौषध किया था । यह नहीं हो सकता कि वे तीनों दिन प्रति नियत पर्वहिन ही थे । __ इसीके प्रतिवाद में दूसरे लोग कहते हैं--कि हमेशा पौषध नहीं लेना चाहिये । विशिष्ट काल में आचरणीय होने से पौषध ग्यारहवां व्रत एवं चौथी प्रतिमा होने से विशिष्ट काल में हो अनुष्ठान के योग्य है। क्यों कि पूर्वाचार्यों ने व्रत को पर्वानुष्ठान रूपसे बताया है। उतराध्यन सूत्रके नवमाध्यन की वृत्तिमें--पौषधो अष्टम्यादि सुब्रत विशेषः-आवश्यक चूर्णिमें सभी काल पर्वो में तपोयोग बताया है एवं अष्टमी पूर्णिमा आदि में नियम से पौबध लेना चाहिये ऐसा बताया है। होइ चउत्थी चउद्दसी अठ्ठमी माईसु दिवसेसु पोसहं । जो जो सदनुष्ठान होता है वह सदा आचरणीय हो होता है ऐसा नियम नहीं है, क्यों पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणादि सदनुष्ठान सदा नहीं किये जाते । ज्ञाता सूत्रमें नन्दमणिकार सेठने तीन दीन पौबध लिया हो ऐसे सूत्राक्षर नहीं है। अठ्ठमभत्त के तीन दिनों में जो अंतका पूर्णिमा का दिन था उसमें पौषध लिया था ! वह पर्व दिन ही होता है। तीन दिनकी प्रतिमा में तीसरे दिन कार्योत्सर्ग होता है। वैसे इस प्रकार दो मतों के रहते जिज्ञासु प्रश्न करता है कि पौषध कव करना चाहिये ? इसके जवाब में कहते हैंमूल-उठमि चउद्दसि पंचदसमी उ पोसहदिणंति । एयासु पोसहवयं संपुन्नं कुणइ जं सड्ढो ॥३८॥ अर्थ-- उद्दिष्टा-अष्टमी अमावस्या पूर्णिमा ये पौषध ग्रहण करने के दिन हैं इन तिथियों में श्रावक सम्पूर्ण-चारों प्रकार के पौषधों को करता है। दशाश्रुत स्कंध चूणि में Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली उद्दिठ्ठा-अमवस्सा इति । एवं सूत्र कृतांगसूत्र को वृत्ति में चाउद्दसट्टमुहिठ-पुण्णमासिणीसु-इत्यादि की व्याख्या में श्रीशोलांकाचार्य जी महाराज ने-उद्दिष्टासु महा कल्याणिक सम्बन्धि तया पुण्य तिथित्वेन प्रत्याख्यातासु इति-अर्थात् उद्दिष्ट शब्द से कल्याणक वा पुण्य हिथियों को बताया है। प्रश्न - अष्टमी चतुई सी आदि पर्व तिथियों में और महाकल्याणकों में एकासन आदि तप करने का नियम लिया हुआ हो । और अष्टमी आदि तिथियों का महाकल्याणक से सम्बन्ध हो जाय तो तिथियों का -- एवं कल्याणक सम्वन्धी तप कैसे करना चाहिये ? मूल-जइ कहवि अठ्ठमी, चउद्दसीय तत्थविय होइ वयजोगो । क्यदद्देणं भण्णइ नियमो कल्लाणमाइओ ॥३९॥ मूल-तस्संजोगा जो कोवि गुरुतरो निम्वियाइओ नियमो । सो कायव्वो जं निव्वियंति एकासणा गरुयं ॥४०॥ अर्थ-यदि किसी प्रकार से अष्टमी चतुर्दशों आदि पर्व तिथियों में ही वृत योग होता है। व्रत शब्द से कल्याणक आदि में कराता हुआ नियय कहा जाता है तो पर्व तिथियों में उसके संयोग से एकासन आदि तप करने वाले को निविगयआदि गुरुतर बड़ा नियम करना चाहिये । अर्थात्- एकासन वाले को नीवी, नीवी वाले को आयंविल और आयंविल वाले को उपवास करना चाहिये । क्यों कि एकासने से नीवी बड़ी होती है। प्रश्न-सामायिक लेकर प्रतिक्रमणादि करते हुए विजलीका-कच्चे पानी आदिका संघट्टा हो । उस विराधना शुद्रिके लिये-"तेउकाय-अपकाय के बहुत संघटे हुए"-ऐसे सामान्य कथन से आलोचना "इतने छोटे संघट्ट हुए इतने बड़े-ऐमा विशेष खयाल रख कर आलोचना करे ? __ मूल-पडिक्कमणं च कुणंता, विजुपईवाइएहिं जइ कहवि । वारा दो चउ फुसिओ, तो बहु फुसिओ त्ति आलोए ॥४१॥ अर्थ--प्रतिक्रमण एवं पठन पाठानादि करते हुए सामायिक में किसी भी कारण से विजली-दीपक-बर्षादके छींटे आदि से यदि दो तीन चार बार संघट्टा हो जाय तो-“आज सामायिक में मेरे बहुत संघट्ट हुए"---ऐसा ध्यान रखकर आलोचना करे। सद्गुरु महाराज से सादर दिवेदन करे। __ आलोचना की विशेषता बताते हैं - मूल--जइ कोवि होइ दक्खो, ता जावइयाणि हुंति फुसणाणि । तावइयाणि गणिज्जा, अतिमुडो जो बहुं भणइ ॥४२॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली अर्थ-यदि सामायिक करने वाला व्यक्ति कोई चतुर हो तो जितनी वार स्पर्श हुआ हो उतनी बार गिनती करके आलोचना करे। एवं अगर वह अतिमुग्ध स्वभावका है तो "बहुत से स्पर्श हुए ... ऐसा कहकर आलोचना करे। वृत्तिकार के प्रासंगिक प्रश्नोत्तर -- प्रश्न -सामायिक में सूर्यचन्द्र प्रभा का संघट्टा क्यों नहीं माना जाता। उत्तर सूर्य चन्द्र प्रभा का स्पर्श होता है पर विराधना नहीं होती। प्रभा अचेतन होने से। प्रश्न-सिद्धान्त में सूर्य-चन्द्र की प्रभा को भी सकर्मकता से सचेतनता के जैसा सूचित किया है या न ? जैसे कि - भगवती सूत्र में - "अत्थिणं भंते ? सकम्मलेसा गुग्गला ओभासंति ? हंता अत्थि + x x x जा इमाओ चंदिम सूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेसाओ बहिया अभिनिरसडाओ पयाविति + x ते सरूबी सकम्मलेसा पुग्गला ओभासंति"-इस सूत्र में चन्द्र सूर्य से बादर अभिनिस्सृत प्रकाश पुदग्गलो को सकर्म लेश्या वाले बताये हैं। कर्म-लेश्या उनकी सचेतनता की सूचक है। सचेतन संघट्टे में विराधना क्यों नहीं माना जाय ? उत्तर-चन्द्र सूर्य के प्रकाश में कर्म और लेश्याओ का कथन उपचार मात्र है यथार्थ में नहीं । क्योंकि इसकी टीकामें भगवान अभयदेवसूरिजो महाराज फरमाते हैं कि-"यद्यपि चन्द्र आदि विमान के पुद्गल पृथ्वीकाय रूप होने से सकर्म लेश्या वाले हैं ही! परं तन्निर्गत प्रकाश पुद्गल तद् हेतु रूप से उपचार से सकर्म लेश्या वाले जानने चाहिये" । प्रकाश पुद्गल अजीव होने से विराधना नहीं होती। फिर कतनेक जीवों के उद्योत नाम कर्म का उदय होता है जिससे कि उनके दर रहते हुए भी अनुष्ण प्रकाशात्मक उद्योत होताहै। जैसे यति-देवोत्तर वैक्रिय चन्द्र-ग्रह नक्षत्र तारा औषधि-मणि रत्न आदि में देखा जाता है। तथा कितनेक जीवों के आताप नाम कर्म होता है जिसके उदय से उनके शरीर दूर रहते भी उष्ण प्रकाश रूप-आतप को कहते हैं। जैसे कि सूर्य विम्ब । इस हालत में उनके प्रकाश के स्पर्श से विराधना नहीं हो सकती। प्रश्न - उनके दूर रहने पर उनके उद्योत-आतप से यदि विराधना नहीं होती तो-दूर रहे हुए विजलों दीपक आदि से अग्निकाय की विराधना उनके प्रकाश के संघट्ट से कैसे लगेगी? उत्तर-अग्निकाय में न आतप नाम कर्म है, न उद्योत नाम कर्म है। क्यों कि उनका स्वभाव हो ऐसा है । उष्ण स्पर्श और लोहित वर्ण नाम कर्म के उदय से अग्निकाय के जीव ही प्रकाश वाले होते हैं । और इधर उधर विखरते हैं। उनमें प्रभा-प्रकाश होता है। वह १० Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ उन जीवों का ही होता है । अत: उनके दृश्यमान प्रकाश को होने पर विराधना संभवित है । संदेह - दोलावली अर्थात् अनिकाय के शरीर से दूर प्रभा प्रकाश नहीं होता सचेतन माना जाता है और इसीलिये अग्निकाय के स्पर्श अतः आलोचना करनी चाहिये । प्रश्न - आलोचना करते समय प्रायश्चित रूपसे श्रीगुरुमहाराज यदि सम्झाय करना जनावें तो वह समय हमेशा के नियम से होती है वह मानी जायगी ? या उस से अधिक सज्झाय-स्वाध्याय- पूर्व पठित अपठित पाठ-आगम- प्रकरण आदि पढ़ना चाहिये ? मूल – पइदिवस सज्झाए, अभिग्ग हो जस्स सय सहरसाई । सो कम्मक्खयहेऊ, अहिगो आलोयणा भवे ॥४३॥ अर्थ - प्रतिदिन दो- हजार या अधिक श्लोंकों के स्वाध्याय को करने का जिसके अभिग्रह है, वह - कर्म क्षयका कारण ही है । परन्तु आलोचना में प्रायश्चित्त रूप से जो स्वाध्याय करना हो, वह सदा से अधिक होना चाहिये । प्रश्न - पांच तित्थियों में यदि एकासना आदि तपका नियम है । और वह तप होता भी है । परन्तु आलोचना के कराने पर यदि उस अभिगृहीत तप से कोई बडा तप करे । जैसे एकासने का अभिग्रह है और आलोचना का तप करता है अगर आयंबिल या उपवास कर लिया जाय तो वह तित्थि के अभिगृहीत तपमें गिना जायगा या आलोचना में ? मूल - एग्गासणाइ पंचसु तिहीसु जस्सत्थि सो तवं गरुयं । कुइ इह निव्त्रियाई, पविसइ आलोयणाइ तवे ॥४४॥ अर्थ- द्वितीया - पंचमी - अष्ठमी एकादशी - चतुर्दशी इन पांच तिथियों में एकाशन आदि तप करने के जिसके नियम है । वह व्यक्ति अगर अपने अभिगृहीत तपसे अधिक तप नीवी आदि करता है तो वह तप आलोचना तपमें प्रविष्ट होता है । क्योंकि मानसिक परिणामों की प्रधानता मानी जाती है। इस सम्बन्ध में अतिप्रसंग को रोकने के लिये बताते हैं मूल - जइ तं तिहिभणियतवं अन्नत्यदिणे करिज्ज विहिसज्जा । अइण कुणइ जो सो गुरुतवो वि जं तिहि तपे पडइ ||४५|| अर्थ - यदि सुविहित विधिपालन में तत्पर महानुभाव उस तिथि निर्दिष्ट तप को दूसरे दिन करले, तो उपर वाली बात ( कि-गुरु तप आलोचना में जाता है - ) होती है । १ - इस सम्बन्ध का अधिक स्पष्टी करण इसके टीकाकार ने किया है जिज्ञासु टीका देखें । अनुः Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह - दोलावली अगर दूसरे दिन तिथितप को नहीं करता है तो वह बड़ा तप भी आलोचना में न जाकर तिथि तप रूप से ही माना जायगा । प्रश्न - आवश्यक चूर्णि में बताया है कि “सामायिक करता हुआ श्रावक मुकुटका त्यागकरे कुण्डलों को नाम मुद्रा को तंबोल को प्रावारक - वस्त्र आदि का त्याग करे" - सो सामायिक पोषध को ग्रहण करता हुआ गृहस्थ निष्प्रावरण रहे या कभी कुछ कपड़ा ग्रहण भी करे ? अगर ग्रहण भी करे तो कितने प्रावरणों को ग्रहण करे ? मूल-उस्सग्गनयेणं सावगस्स परिहाणसाडगादवरं । कप्पइ पाउरणाई न सेसमवबायओ तिण्णि ॥ ४६ ॥ अर्थ - उत्सर्ग मार्ग से श्रावक को पहिनने की धोती से भिन्न अधिक कपड़ा नहीं कल्पता है । परन्तु अपबाद मार्ग से तीन कपड़े ओढने के लिये ले सकता है । क्योंकि सामायिक में श्रावक साधु के समान होता है । मूल एवं कयसामाइया वि साविगा पढमनयमएणेह | कडिसाडग कंचुयमुत्तरिज वत्याणि धारेइ ||४७|| अर्थ - इसी तरह सामायिक करनेवाली श्राविका भी उत्सर्ग मार्ग से कटिशाटकलहेंगा कंचुकी और साडी ये तीन वस्त्र धारण कर सकती है । मूल - बीयपणं तिहुवरि तिहिं उ वत्थेर्हि पाउअंगी उ । सामाइयवयं पालइ तिपय परिहरइ पडिक्कमणे ॥४८॥ अर्थ - दूसरे - अपवाद मार्ग से लहेंगा – कंचुकी और साडी इन तीन वस्त्रों के उपर शीतताप निवारणार्थ ओढने के तीन अधिक वस्त्रों से ढके हुए अंगवाली सामायिक व्रत को श्राविका पालती है । परन्तु प्रतिक्रमण के समय त्रिपद - अपवाद सेवा को छोड देती है । मूल - जइ कंचुगाइ रहिया, गिण्हइ सामाइयं च सुमरिज्जा । तो पच्छा अंग करेइ गरहेइ पुव्वकयं ॥ ४९ ॥ अर्थ - यदि श्राविका कंचुकी से रहित भूल से सामायिक ग्रहण कर लेती है, और बाद में याद आता है, तो पीछे से भी अंग ढक लेना चाहिये । उस अवस्था में की हुई किया अविधि मानी जाती है इसलिये उस पूर्वकृत अविधि की गर्दा निंदा करे । मूल - एलामुत्याइगयं भिन्नं भिन्नं जलं भवे दव्वं । वण्णरसभेयओ जं, दव्वविभेओ वि समयमओ ॥ ५० ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ संदेह-दोलावली अर्थ-एक ही भाजन से लिया हुआ परन्तु इलायची-मुस्ता आदि जुदे २ द्रव्यों से वासित किया हुआ पानी जुदा जुदा द्रव्य होता है। क्योंकि वर्ण रस गंधादि भेद से द्रव्य भेद होना सिद्धान्त संमत है। प्रश्न-जुदे २ भाजनों में जुदे २ द्रव्यों द्वारा वासित एक ही स्थान का पानी जुदे २ द्रव्य रूप में माना गया यह ठीक परन्तु औषध करने वाले श्रावक या श्राविका वैसा पानी अपने २ घर से लाकर पौषध शाला में एक ही घडे में डाल दें बाद में वह पानी एकद्रव्य रहेगा या अनेक द्रव्य ? मूल-जइ पोसहसालाए सड्ढासड्डी वि पोसहम्मि ठिया । एगत्थ खिवंति भवे, तमेग दव्वं न संदेहो ॥५१॥ अर्थ-यदि पौषध शालामें श्रावक लोग या श्राविकाएँ पौषध में रहे हुए अपने २ घर से लाये हुए पानो को यदि किसी एक पात्र में डाल देते हैं तो वह सारा पानी एक द्रव्य हो जाता है इसमें कोई सन्देह नहीं है। प्रश्न-जिसने चार कोश तक जाने की अपने नियम में छूट रखी है, परन्तु वह एक कोश भी नहीं जाता, तो उसको कर्म बंध होता है या नहीं। क्योंकि सुना जाता है कि - कृतया एवं क्रिया कर्म बंध; न अकृतया-अर्थात् की हुई क्रिया से हो कर्म बंध होता विना किये नहीं होता। तो ठीक क्या समझना ? मूल-जेण दिसापरिमाणं कोसचउक्क दुगं च कयमित्थ । कोसद्धं पि न गच्छह तह विहु बंधो त्थ विरइओ ॥५२॥ अर्थ-जिसने दिशा परिमाण ब्रतमें चार कोश या दो कोश का क्षेत्र जाने आने को खुला रखा है और वह व्यक्ति कभी आधा कोश भी नहीं जाता है। तो भी उसके अविरति से पैदा होने वाला कर्म बंध होता ही है। क्रिया से कम बंध का उतना तालुक नहीं जितना कि परिणामों से। कर्म बंध में मिथ्यात्व अविरति कषाय और योग ये चार हेतु होते हैं। प्रश्न-मथा हुआ दही विथय है या उत्कट द्रव्य ? अगर विगय है तो कैसे भी उत्कट द्रव्य होता है, या नहीं ? अगर होता है, तो निविगय के पच्चक्खाण में कल्पना है, या नहीं ? मूल--जह गालियं च दहियं. तहावि विगई जलं न जं पडइ । पडिए वि जले तं तिव्वयंमि, विहिए न कप्पइ य ॥२३॥ अर्थ-- यदि दहि वस्त्रसे गाला गया हो और मथा गया हो तो भी विगय ही है, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह - दोलावली जब तक कि उसमें जल नहीं पडता है । करने पर वह घोल नहीं कल्पता है । मूल - जइ मंडियाइ जोगो पायकओ कोवि होइ गुडचुण्णो । उव्वरइ सो विनियमा गुडविगई होइ अनुवहत ॥ ५४ ॥ जल के गिरने पर भी निविगय का पञ्चखाण अर्थ - यदि मंडिका - पक्वान विशेष सेवैया लड्डु, कसार आदि खाद्य पदार्थो की लिये गुड़ सम्बन्धी कोई पात ( चासनी ) होती है वह नियम से गुड़ विगई ही अनुपहत भाव से बनी रहती है । जैसा कि 'प्रवचन सारोद्धार' में कहा है: अद्ध वढ़िते क्खुरसो गुडपाणीयं च सकरा खंड पायगुलं गुलविगई विगइगयाई तु पंचेवन्ति ॥ ७७ मूल - सव्वाइं पुष्फलाई पुष्फल मेगं दव्वं जब वह पात मंडिकादि खाद्य द्रव्यों से संबंधित की जाती है । तब वह गुड विकृति नहीं रहती । है । प्रश्न - पहले कहा गया है कि वर्ण, रस भेद से एक द्रव्य के भी कई भेद वन जाते हैं तो नाना जाति के रूप से अनेक देशोत्पन्न रूपसे नया पुराना आदि भेद से जुदे जुदे वर्ण रसवाले सुपारी आदि द्रव्यों में अनेक द्रव्यता का प्रसंग उपस्थित होगा और इसका प्रकार उपभोग व्रत में द्रव्य संख्या का अतिक्रम क्या नहीं होता ? ऐसे द्रव्योंको सदा ही एक दिन में कई वार भोगे जाते हैं । विवाहादि उत्सवों में तो कहना ही क्या ? नाणाविह जाइरस विभिन्नाई । उवभोगवयम्मि विन्नेयं ॥५५॥ अथवा सुंठ आदि से मिलाई जाती अर्थ -- उपभोग द्रव्य परिमाण व्रत में नाना प्रकार की जाती, रस विभिन्न पुप्फलादि-सुपारी आदि सभी द्रव्य अपनी अपनी जाती में सुपारी आदि एक द्रव्य रूपसे जानना चाहिये । प्रश्न – अनेक जाति रस वाले पुगीफल - सुपारियों को ही एक द्रव्य से मानना चाहिये या दूसरे द्रव्यों को भी ? - मूल- एवं जलकणघय तिल्ललोण विभिन्नाई विविहजाइगयं । एगं दव्वं परिगह पमाणवयगहियगणणा ॥ ५६ ॥ अर्थ - इसप्रकार सुपारी के जैसे नानाप्रकार का जात, धन्य-कण, घी तेल नमक आदि अनेक देशोत्पन्न असमान वर्ण रस वाले जुदे जुदे होने पर भी परिग्रह परिमाण व्रत की गिनती में अनेक रूप जात्याहित एक द्रव्य रूप से मानना चाहिये। जैसे आकाशका भूमिका नदोका जल भिन्न भिन्न होने पर एक जल द्रव्य रूप से स्वकारना चाहिये । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली प्रश्न-उपवास आदि के करने पर बालक आदि का मुखचम्बन करते हुए प्रत्याख्यान भंग होता है या नहीं ? मूल-गब्भरूपप्पमुहाणं वयणं चुम्बइ कओपवासाई । तस्स उ पञ्चक्खाणे भगो संभक्इ जुत्तीए ॥५७|| अर्थ- उपवास आदि तप करने वाला व्यक्ति बच्चे आदिकों के मुखको चुमता है, तो उसके प्रत्यख्यान में युक्ति से भंगका सम्भव है। मूल-दहितरमझक्खित्तो गोहुम चुण्णोय पक्कविगई उ । सिद्धो लग्गइ नियमा तह वीसंदणमओ विगई ॥५८॥ अर्थ-गेहूं का आटा घो से भावितकिया हुआ दही की थर से सान कर वड़ों के रूप में घी की कडाही में पकाया हुआ भोजन विशेष नियम से पक्वान्न विषय में माणना चाहिए-विस्यन्दन को भी विगय ही समझना चाहिये। प्रश्न-समायिक धारी विजली व दीपक के प्रकाशसे जब स्पृष्ट होता है और जब स्त्री से या तिथंचणी से संघट्टित होता है तब विजली के स्पर्श से दीए का स्पर्श और औरत के स्पर्श से तियंचणी का स्पर्श भिन्न है या अभिन्न ? मूल-विजयपईवेणं फुसिओ तं फुसणयं तओ हुजा । भिन्न भिन्नं नारीमंजारीणं च संघटणं ॥५९॥ अर्थ-विजली का प्रकाश और दीपक का प्रकाश सामायिकधारी के शरीर पर पडने से तेउकाय का स्पर्शन होता है। फिर भी दोनों का प्रायश्चित्त भिन्न २ है। उसी प्रकार स्त्री और बिल्ली के छुने से स्त्री स्पर्शन होता है। पर दोनों में बड़ा अन्तर है। प्रश्न-जलमें भिजाने मात्र से धान्यको विरूहक कहते हैं या जिसमें भिग जाने के वाद अंकुरे फूट निकलते हैं उसको विरूहक कहते हैं ! मूल-पयडं कुरं तु धन्नं जलभिन्नं तं तु भण्णइ विरूढं । सेसं जलभिन्नं पि हु चणगाइ विरूढमवि न भवे ॥६॥ अर्थ-जलमें भिजाये हुए जिस धान्य में अंकुर प्रकट हो चुके हैं उसको विरूढ कहते हैं। बाकी का जलमें भिगोया हुआ चणा-आदि धान्य विरूढ भी नहीं होता। प्रश्न-भुजे हुए विरूहक-भिगोए हुए सांकुर धान्य सचित्त होते है या अचित्त । यदि अचित्त हैं तो भी विरूहक ब्रती उसको खा सकता है, या नहीं ? Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ संदेह-दोलावली मूल-भुग्गानि विरूढाणि य हुँति अचिताणितह विरुहनियमो । ताणिन फुक्खइ तह फुटकक्कडी असइ न हु साहु ॥६१॥ अर्थ - भुंजे हुए विरूहक धान्य अचित्त ही होते हैं फिर भी विरूहक धान्य तु खाने का व्रती उसको न खावे। सचित्त व्रती प्रवृत्ति दोषमय से न खावे । प्रश्न-अति पकी ककडी फुट सचित्त नहीं कही जाती किन्तु बीजवालो होने से सचित्त प्रतिबद्ध होती है-उसमें से यदि बीज हटा दिये जाय तो। सचित्त का त्यागी श्रावक उसे खावे या न खावे ? ___ उत्तर-अतिपकी ककडी-फुट फटी हुई होने से उसमें सर्प आदि के गरल-विष की संभावना हो सकती है इस लिये साधु भी न खाय तो श्रावकका तो कहना ही क्या ! प्रश्न--फटी हुई ककडी फुट तो कोई ही होती है। सबमें विषकी संभावना नहीं होती तो सभी का निषध क्यों किया जाता है ? मूल-जइ वायगणपमुहं पि तीमणं सया अचित्तमपि न जई । हिण्हइ पवित्ति दोसं सम्मं परिहरिलं इच्छन्तो ॥६॥ अर्थ-यद्यपि बैंगन आदि का बनाया हुआ साग अचित्त ही होता है फिर भी साधु प्रवृत्ति दोष को भली प्रकार से त्यागने की इच्छा से ग्रहण नहीं करता है। उसी तरह फुटककडो अचित्त होने पर भी सचित्त त्याग। श्रावक प्रवृत्ति निषेधार्थ ग्रहण नहीं करते। प्रश्न-जिस नागरमोथ आदि द्रव्य से एक दिन में जल को अचित्त किया उसी द्रव्य से दूसरे दिन भी यदि अचित्त किया जाय तो वह जल छठ-अठ्ठम आदिके पच्चक्खाण करने वाले श्रावक को पीना कल्पता है या नहीं? चतुर्थभक्त- एक उपवास के जैसे छठ अट्ठम में भी एक ही द्रव्य मोकला रखा होने से। ___मूल-जीए मुत्थाइकयं अज्जेव जलं तु फासुगं तीए । कल्लेव कीरइ जइ तमेगदव्वं न संदेहो ॥६३॥ अर्थ-१ जिस मुस्ता-नागर मोथ आदि उत्कट वर्ण गंध रसान्यतर गुणवाले द्रव्य से किया हुआ प्रासुक जल आजके उपवासी को कल्पता है। उसी मुस्ता आदि द्रव्यसे कल-परसों भी यदि जल को प्रासुक किया जाय तो वह एक ही द्रव्य माना जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं। जुदे २ घडों में भी एक द्रव्य से प्रासुक किया हुआ जल भी एक ही द्रव्य माना जाता है। नोट १-इस श्लोक की टीका में उकासे हुए पानी के जैसे ही त्रिफला आदि से प्रासुक किये पानी का उपयोग तर्क संगत एवं आगम संगत लगाया है। बड़ी लम्बो चर्चा में श्रावक को उकाला हुआ पानी ही प्रत्याख्यान में पीना चाहिए. ऐसे एकान्त पक्षका खण्डन किया गया है। वर्तमान में गरमपानी का जितना प्रचार हुआ है उतनी ही साधु विहार में विकटता पैदा हो गई है। विद्वान् लोग इस श्लोक की टोका को पढ़कर प्रासुक जान विधि का प्रचार करें तो विहार की एक बड़ी बाधापार हो सकती है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Co संदेह-दोलावली प्रश्न-समय पर मुख वस्त्रिका न पडिलेही गई हो तो उस से सामायिक प्रहण करना कल्पता है या नहीं ? मूल-अप्पडिलेहि य मुहणंतगे य, सामाइयं करिज्जा उ । अविहिकए पच्छित्तं, थोवं तेणं पडिक्कमइ ॥६४॥ अर्थ-अपडिलेही हुई मुहपत्ती से-उपलक्षण से आसन-पौषधशाल आदि अप्रतिलिखित हों तो-भी सामायिक-पौषध आदि किया जाता है। न करने से तो नियम भंग ही होता है, जो महा दोष का कारण है। अविधि से करने पर तो थोडा प्रायश्चित्त होता है, जो प्रतिक्रमण से निवृत्त हो सकता है। प्रश्न-सामायिक ग्रहण करते हुए, सामायिक सूत्र उच्चारण के बाद तेजस्काय का स्पर्श हो जाय तो सामायिक का भंग होता है या नहीं ? मूल - सामायिक-सुत्तम्मि उच्चरिए कहवि होइ जइ फुसणं । तो तं आलोएज्जा, भंगो से नत्थि समाइए ॥६५॥ अर्थ–'करेमि भंते'--सामायिक सूत्र के उच्चारण करने पर किसी प्रकार से यदि अग्निकाय का स्पर्शन हो जाय तो उसके लिये इरियावही आलोचना करना करनी चाहिए। गुरूदत्त प्रायश्चित्त लेना चाहिए। ऐसा करने से उस स्पर्शन से सामायिक में भंग नहीं होता। __प्रश्न-पक्व अपक्व दो दलवाला अनाज गोरस से मिलने परसं मूच्छिमजीव वाला हो जाता हैं, वैसे ही पक्व अपक्व गोरस के साथ दो दलबाला अनाज खाना कल्पता है या नहीं? मल---उक्कालियम्मि तक्के, विदलक्खेवे वि नत्थि तदोसो । अतत्तगोरसम्मि, पडियं संसप्पए विदलं ॥६६॥ अर्थ-गरम किये हुए दही छाछ आदि गोरस में बेसन दाल आदि द्विदल अनाज के डालने से तजन्य-आहार में जीव विराधना रूप दोष नहीं होता है। कच्चे गोरस में द्विदल अनाज के डालने से जोव-संमूच्छिम सूक्ष्म त्रस जीव पैदा होते हैं। जैसा किकल्पभाव्य में फरमाया है-"आम गोरसुम्भीसं संसज्जए य अइरा तहवि हु नियमा दु दोसायत्ति”-अर्थात्-कच्चे गोरस में द्विदल मिलाने से जल्दी समुच्छिम जीव पैदा होते हैं। उससे स्वास्थ्य और संयम की विराधना रूप दो दोष पैदा करते हैं। प्रश्न-अनेक रसवाली अनेक वस्तुओं को कढाई में तली जायँ तो वह विगय मान जायगी, या उत्कट द्रव्य ? Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली मूल--गोहुमघयगुलदुद्दाणि मेलितो कडाहगे पयइ । तं धणुहुज्जा पक्कन्नविगइ नियमा न दव्वं तं ॥६७॥ अर्थ-गेहूं- घृत-गुड-दूध आदि को मिलाकर कड़ाही में तला जाता है, जिसको कि नागोर के आस पास-सोलख पट्टी में "धणु हुज्जा"- गुडधाणी-लापसी जैसी वस्तुएं नियम से पक्वान्न-विगय होती है । न कि उत्कट द्रव्य मात्र। प्रश्न-किसी श्रावक की परिग्रहपरिमाण प्रमुख नियम पोथी को देखकर कोई भद्र श्रद्धाल उसी समय उन नियमों को स्वमति कल्पना से स्वीकार ले। बाद में सद्गुरु के सत्संग में उस विचार को सुने, उस समय यदि नियम भंग की संभावना से किसी प्रकार की छूट करना चाहे तो कर सकता है या नहीं? मूल---जइ कोवि अमिग्गहिओ टिप्पणयं अन्नसावयग्गहियं । पालितो वि हु तं सुगुरुदंसणे कुणइ मुक्कलयं ॥६८॥ अर्थ- यदि कोई धर्म श्रद्धालु आभिग्रहिक स्वेच्छा से अन्य श्रावक गृहित परिग्रह परिमाण के टीपने को देख कर टीपणे की व्यवस्था का अनुकरण करता हुआ परिग्रहपरिमाण का पालन करता है। वहीं सुगुरुदर्शन के बाद यदि नियम में छट करना चाहे तो कर सकता है। प्रश्न--जिस आसन शयन पर काफी देरतक बैठा सोया जाय उसी की भोगोप भोग व्रत में संख्या गिननी चाहिये ? या क्षण मात्र भी सोया बैठा जाय उन सबकी संख्या गिननी चाहिये ? मूल-जत्थोसणे निसन्नो, खणं पि तं लग्गए उ संखाए । जत्थ कडि पि हु दिज्जइ, गणिज्जए सा वि सिजति ॥६९॥ मूल-तो बहुकज्जपसाहणकए-वि परिभमइ सुबहुठाणेसु ॥ सो सयणासणमाणां लइ जइ कुणइ किर थोवं ॥ ७० ।। अर्थ-जिस आसन पर थोड़ा सा भी बैठा गया हो, जिस शय्यामें थोड़ी सी भी कमर सीधी की गई हो, उस आसन शयन की संख्या व्रती करनी चाहिये। + + + इस लिये बहुत से कामों को साधना में या यों भी घुमते हुए अपने लिये शयनासनों की संख्या अधिक रखनी चाहिये। यदि थोड़ा प्रमाण रखा जाय तो व्रत लंघन-भंग का दोष होता है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली प्रश्न-अनेक जाति के चावल आदि अलग २ पात्रोंमें पके हो तो एक द्रव्य होता है, या अनेक द्रव्य ? मूल---नाणाजाइसंमुब्भवतंडुलसिद्धं पुढो भवे दव्वं । निच्छयनयेण ववहारओ नये दव्वमेगं ति ॥७१॥ अर्थ-अनेक जाति के चावलों से बना हुआ भोजन निश्चय नय से अलग द्रव्य और व्यवहार नय से एक द्रव्य रूप होता है। __ प्रश्न-पर्श्वस्थादिकों के साथ रहने का और उन से आलोचना लेनेका पंचाशक वृत्ति में महाश्रुतधरश्रीमदमयदेवसुरिजी महाराज ने विधान किया है । तो उन पार्श्वस्थादिकों को वंदना करनी चाहिये या नहीं। मूल-पंचासगेसु पंचसु वंदणगा नेव साहु सड्डाणं । लिहिया गीयत्थेहिं अन्नेसु य समयगंथेसु ॥७२॥ अर्थ-यतिधर्म पंचाशक में और आलोचना पंचाशक में पासत्थे, ओसन्ने, कुशीलिये, संसक्ते, और यथाच्छन्दे इन पांचप्रकार के नाम साधुओ को सुविहि साधु और श्रावको कु वन्दना नहीं बताई है। मूल-देवालयम्मि साक्यपोसहसालाइ सावगाणेगे। जइ हुंति तेवि तिपण? साविया जंति निसुणंति ॥७३॥ __ अर्थ-मन्दिर में श्रावक पौषधशाला में या ऐसे ही स्थानों में जहाँ कि सुविहित आधुओं के उपदेश होते हैं । वहां यदि अनेक श्रावक वे भी आठ पांच या कम से कम तीन मौजूद हों तौ श्राविकाएं जाती हैं और व्याख्यान सुन सकती है। प्रश्न-जिस प्रदेशमें सुविहित साधु नहीं होते हैं, वहां श्रावक जो कुछ प्रकरणादि धार्मिक विचारों को जानता है, वह दूसरे लोगों को उपदेश रूप में कहे या नहीं ? मूल-जत्थ न हु सुविहिया हुंति, सहुणो सुविहिया वि ते इत्थ जे । गीयत्थसुत्तत्थ-देसगा तेसिं विरहम्मि ॥७॥ मूल-जं मुणइ सावओ तं कहेइ सेसाणं किं न जं पुट्ठ। पच्चुत्तरमेयं तत्थ कहइ जइ सो वि याणइ तं ॥७५॥ अर्थ-आगमो में सुविहित-क्रियापात्र साधु-वे भि गीतार्थ के एवं सूत्र और अर्थ के उपदेशक हों ऐसे-साधु जिस देशमें नहीं होते हैं, वहां सुविहित एवं गीतार्थ गुरु की दयासेबहुश्रुत श्रावक प्रकरणादि विचारों को जानता है, वह दूसरे लोगों को व्याख्यान द्वारा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ संदेह - दोलावली कह सकता है। किसी के द्वारा "क्या ऐसा है ? क्या ऐसा नहीं है ?" - इत्यादि रूप प्रश्न सुगुरु से समझा हुआ हो तो "यह ऐसा है । यह ऐसा किसी विषय में पूछा जा, उसे भी नहीं है" इत्यादि जबाब दे सकता है । इसी बात को भद्र जीवों के हित लिये स्पष्ट कहते हैं मूल --- सुगुरूणं च विहारो, जत्थ न देसम्मि जायए कहवि । पयरण वियार कुसलो, सुसाबगो अत्थिता कहउ ॥७६॥ अर्थ - जिस देशमें मार्ग आदि की विकटता आदि कारणों से सद्गुरुओं का विहार नहीं होता है, वहां प्रकरण विचार कुशल श्रावक यदि हो तो व्याख्यान कर सकता है । प्रश्न - जिस देश में कारण वशात सुगुरु लोग नहीं पथारते हैं । वहाँ के निवासी स्थापना चार्य जी के सन्मुख आलोचना निमित्त तप करें या नहीं ? और करें तो कैसा करें ? मूल — आलोयणानिमित्तं कहं तवं कुणइ साविया सड्डो । पुट्ठे इणमुत्तरमिह भन्नइ भो निसामेह ||७७|| अर्थ - आलोचना-शुद्धि ग्रहण करने के लिये किस विधि से श्रावक श्राविका तप ग्रहण करें ? ऐसा पूछने पर भो भव्य ? सुनियें वह विधि यहां बताई जाती है । मूल - पंच परमेहिपुव्वं ठवणायरियं ठविडं विहिणाओ । -- तत्थ खमासमणदुगं, दाउं मुहपत्तिपेहणयं ॥ ७८ ॥ तत्तो दुआलसावत्तवंदणंते य संदिसाविज्जा । आलोयणातवं तो दिज्जा अण्णं खमासमणं ॥ ७९ ॥ एवं भण्णइ तत्तो करेमि आलोयणातवं उचियं । उस्सग्गेणं तत्तो कुणइ तवं अत्तसुद्धिकए ||८०|| अर्थ - आलोचना ग्रहण विधि - उचित स्थान में भूमिकी प्रमार्जना कर पंच परमेष्ठी नमस्कार मंत्र पढ़ कर विधि पूर्वक स्थापना चार्य जी को स्थापना करे । बाद में खमासमण देकर इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ? सोधि मुहपत्ति पहिलेहु दूसरा खमासमण दे मुहपत्ति पsिहण करे | बाद द्वादशावर्त्त वांदणा दोवार देवें । तदन्तर खमासमण देकर इच्छा कारण संदिसह भगवन् आलोचणा तप संदिसाहुं । दूसरा खमासमण दे इच्छा कारेण संदिसह भगवन् ? आलोचणा तप करू । प्रश्न - उक्त रीति से तप और स्वाध्याय दोनों करने में समर्थ आलोचक क्या तप ही करे ? या तपो भेदरूप स्वाध्याय को ही ? Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली मूल-सज्झायतवसमत्थो जइ सडो साविगो वि अह हुजा । ता अणिगूहियविरिया, कुणंति तवमागमुत्तमिणं ॥८१॥ अर्थ स्वाध्याय और उपवासादि तप में श्रावक श्राविका समर्थ हैं तो शक्ति को नहीं छपाते हुए आगमों में फरमाया हुआ आलोचनार्थ यह उपवासादिक तप ही करें। स्वाध्याय को तपोभेद माना जरूर है पर जीतकल्प चूर्णि में प्रायश्चित्त के भेदों में उसकी गिनती नहीं की गई है। कायोत्सर्ग भी तपभेद है फिर भी उसका “काउसग्गारिहं" - "तवारिहं" रूपसे अलग विधान किया है । “तवारिहं"-प्रायश्चित अनसन तप से ही होता है। ___ यदि ऐसा है तो आलोचना में इतनी सज्झाय करना ऐसा क्यों कहा जाता है। जीतव्यवहार से। तप में अशक्त मनुष्य शुद्धि के लिये स्वाध्याय भी कर सकता है यह एक-अपबाद है। प्रश्न-आलोचना तप करते हुए क्या क्या करना चाहिये ? गाथाष्टक में बताते हैंमल-आलोअणानिमित्तं पारद्ध तवम्मि फासुगाहारो । - सच्चित्तवजणं बंभचेरकरणं च अविभूसा ॥८२॥ अर्थ-आलोचना निमित्त प्रारंभ किये हुये तप में प्रासुक आहार, सचित्त का त्याग ब्रह्मचर्य-पालन और अविभूषा-शृङ्गार त्याग करना चाचिये। . मूल-इंगालाइ पनरसकम्मादाणाण होइ परिहारो । विकहोवहासकलहं पमाय भोगातिरेगं च ॥८३॥ अर्थ-अङ्गार कर्म आदिक पनरहकर्मा दानों का, विकथा, उपहास, कलह प्रमाद और भोगों की अधिकताका भी त्याग करना चाहिये। मूल---कुजा नाहिगनिदं परपरिवायं च पावट्ठाणाणं । परिहरणं अप्पमाओ, कायव्यो सुद्ध धम्मत्थे ॥८४॥ अर्थ-अधिक नींद नहीं लेनी चाहिये। पर निन्दा और पापस्थानों का परिहार करता चाहिये । शुद्ध धर्म कार्यो में अप्रमाद सेवन करना चाहिये। मूल-तिक्कालं चियवंदणमित्थ जहन्नेण मज्झिमेण पुणो । __ वारा उ पंच सत्तं च उक्कोसेणं फुडं कुज्जा ॥८५॥ अर्थ-आलोचना में जघन्य से त्रिकाल मध्यम भाव से पांच बार और उत्कृष्ट सात बार चैत्य वन्दन करे। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली मल-पडिक्कमेणे चेइयहरे भोयणममयम्मि तह य संवरणे । ___ पडिक्कमणसुयणपडिबाहकालियं सत्तहा जहणो ॥८६॥ अर्थ-अहो रात्रि में १-प्राभातिक प्रतिक्रमण के अन्त में २-श्रीजिनमन्दिर में ३-प्रत्याख्यान पारने से पहिले ४-भोजन के बाद प्रत्याख्यान करने के पहिले ५ - दैवसिक प्रतिक्रमण के प्रारंभ में ६-रात्रि संथारा पौरुषी पढ़ने से पहिले सोते समय ७सोकर के जागने पर ऐसे सात बार साधुओं को चैत्य वन्दन करने होते हैं। ___ प्रश्न- ग्रहस्थोंको सात-पांच-तीन बार चैत्य वन्दन कैसे होते हैं ? मूल-पडिक्कमिओ गिहिणो वि हु सत्तविह पंचहा उ इयरस्स । होइ जहन्नेण पुणो तीसुवि संझासु इय तिविहं ॥८७॥ ___ अर्थ-उभयकाल आवश्यक-प्रतिक्रमण करते हुए गृहस्थ को भी उत्कृष्ट रूपसे सातबार प्रतिकमण न करते हुए, मध्यम रूपसे पांचवार, और जघन्य रूपसे तीन संध्याओं में तीन बार चैत्य वन्दन करना चाहिये ।। मूल-सुसाहूजिणाणां पूयणं च साहम्मियाणं चिंतं च । ___अपुव्य पढण-सवणं तदत्थ परिभावणं कुज्जा ॥८८।। अर्थ-आलोचना करनेवाला सुसाधुओं को प्रतिलाभे। जिनेश्वरों की पूजा करे। साधर्मिकों का खयाल रखे । पहिले नहीं पढ़ा ऐसा नया पाठ पढ़े, सुने, और उसके अर्थों का चिन्तन मनन निधि ध्यासन करे । मल--रुद्दट्ट झाणदुर्ग, वजित्ता तह करिज्ज सज्झायं । आयारे पंचविहे सया वि अब्भुज्जमं कुज्जा ॥८९॥ अर्थ-आलोचना करनेवाला विषय वासना-जन्य आर्तध्यान, और हिंसा भावना जन्य रौद्रध्यान, इन दोनों दुानों का त्याग करे। हमेशा स्वाध्याय करे और ज्ञान-दर्शन चारित्र-तप और वीर्यरूप पांच आचारों के पालन में अति उत्साह दिखावें । दुष्कर क्रियामात्र को करनेवाला यदि उत्सूत्र भाषी हो तो उसको कुसंग से बचना चाहिये । यह बताते हैंमूल-उस्मुत्तभासगा जे ते दुक्कर कारगा वि सच्छंदा । ताणं न दंसणं पिहु, कप्पाइ कप्पे जओ भणियं ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली अर्थ-आगमों से विपरीत बातों को वोलने वाले जो हैं वे स्वच्छन्दी दुष्कर क्रिया करनेवाले हों तो भी उनका दर्शन करना नहीं कल्पता है। ऐसा कल्प में कहा है। कल्प की बात बताते हैंमूल-जे जिणवयणुत्तिन्नं वयणं भासंति जे य मन्नंति । अहवा सविट्ठीणं तदसणं पि संसारखुड्डिकरं ॥९१॥ अर्थ-जो जिन वचनो से विपरीत बोलते हैं, विश्वास करते हैं । उनका दर्शन सम्यकत्वियों के लिये संसार वृद्धि का कारण होता है। X पांच प्रकार के आचारों का स्वरूप बताते हैंमूल-नाणम्मि दसणम्मि य चरणं मि तवंमि तह य वीरियंमि । आयरणं आयारो इय एमो पंचहा भणिओ॥ अर्थ-१-ज्ञान में प्रवृत्ति-ज्ञानाचार-२-श्रद्धा बढ़ाने में प्रवृत्ति-दर्शनाचार-३-सदाचार में प्रवृत्ति चारित्राचार-४-तपश्चर्या में प्रवृत्ति तपाचार और-५-शासन सेवा में प्रवृत्ति वीर्याचार | ऐसे आचार पाँच प्रकार का बताया है। पांच आचारों के प्रत्येक के भेदों की संख्या बताते हैंमूल-नाणं दसणमहचरणमत्थि पत्तेयमट्ठभेइल्लं । वारस तवम्मि छत्तीस वीरिए हुँति इमे मिलिया ॥१३॥ अर्थ-ज्ञानाचार दर्शनाचार और चारित्राचार प्रत्येक आठ अठ भेदवाला होता है। तपाचार में बारह भेद कुल मिलाने से ये छत्तीस भेद होते हैं। वीर्याचार में उपरोक्त छत्तीसों ही भेद होते हैं। जिस विधि से आलोचना-तप किया जाता है, वह कहते हैं - मूल-आलोयणातवो पुण इत्थं एगासणं तिहाहारं । पुरिमट्टतवो इह जो सो सव्वाहारचागाओ ॥५४॥ अर्थ-आलोचना तप इस तरह होता है । एकाशन किये बाद त्रिवध आहार का त्याग करना चाहिये । पुरिमाई तप-पुरिमट्ठ पौरुषी तप दिन के पहिले दो प्रहर तक चार आहारों का त्याग करना चाहिये। आलोचना संबंधि यदि एकाशना आदि तम हो तो बाद में तिविहार होता है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली प्रश्न-निविगय में क्या विधि है ? बताते हैं। मूल---तं होइ निविगइयं, जं किर उक्कोसदव्वचाएण । कीरइ जं उक्कोसं, तं दव्वं पुण निसामेह ॥९५॥ खीरी-खंडं-खज्जूर-सकर-दक्ख-दाडिमाई य । तिलवट्टी वडयाइं करंबओ चूरिमं च तहा ॥९६॥ नालियरं मोइयमंडिया, संतलिय भजियाचणए । आसुरि अंबिलिया पाणगाइ, किल्लाडियाइ तहा ॥९७॥ तंदुलकढिअं दुद्धं घोलं एयाइं भूरि भेयाणि । उक्कोसगदव्वाइं वजिज्जा निव्विगइयम्मि ॥९८॥ अर्थ-विकार-वर्द्धक उत्कट-द्रव्यों के त्याग से एक बार भोजन करने को आप्त पुरुष निविगय फरमाते हैं। उत्कट-द्रव्य जो हैं वे इस प्रकार हैं। खीर, खाँड, खजूर, सक्कर, द्राक्षा दाडिभ आदि फल,तिल पापडी, बड़े, करबा, चूरमा, नारियलगिरि, मोदिक, मन्डिका पूरणपोली, भूजे हुए तले हुए चने, राइता इमली का पानी, फटे हुए दूध घ्रारिका आदि, थोड़े चावल डाल कर कढा हुआ दूध, दहिका घोलिया, ऐसे अनेक प्रकार के उत्कट द्रव्यों को निविगय में नहीं खना चाहिये। उत्कट-द्रव्य का क्या लक्षण है ? मूल-विराई दव्वेण हया, जायं उक्कोसियं भवे दव्वं । केइतयं विगइगयं, भणंति तं सुयमयं नत्थि ॥९९॥ अर्थ-दूध, दही, घी, तैल, गुड, तली हुई चीजें, ये छह विषय दूसरे द्रव्य से उपहत होने पर उत्कट द्रव्य हो जाता है । कई लोग उत्कट द्रव्य को विगय कहते हैं जो श्रुत समत नहीं है। प्रश्न-उपर बताये उत्कट द्रव्यों का त्याग आलोचना संबंधि निविगय में होता है या हर एक निविगय में करना चाहिये ।। मूल-कल्लाण तिहीसु पुणो, जं कीरइ निव्विगय मिह । तत्थ खंडादि दव्वमुक्कोसियं, तु उस्सग्गओ वज्जे १०० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ संदेह-दोलावली ____ अर्थ-कल्याणक-दिनों में पर्व तिथियों में या और किसी उद्देश्य से निविगय किया जाता है उसमें उत्कट द्रव्य खंडादि वस्तुयें उत्सर्ग विधि से छोड़ देना चाहिये ।। ' प्रश्न-अपबाद यह उपस्थित होने पर उत्कट द्रव्य स्वयं खाले या गुरु आज्ञा से खाना चाहिये। मूल-गीयत्था जुगपवरा, आयरिया दव-खेत्तकालन्नू । उकोसयं तु दव्वं, कहंति कय-निवियस्सा वि ॥१०१ अर्थ - द्रव्य क्षेत्रकाल और भाव को जानने वाले गोतार्थ युग प्रधान आचार्य निविगय करने वाले भव्यात्मा को उत्कट द्रव्य लेने की आज्ञा दे सकते हैं। मूल-उवहाणतवपइट्ठो असमत्थो भावओ य सुविसुद्धो । __उक्कोसगं तु दव्वं विगइच्चाए वि तस्सुचियं ॥१०२॥ अर्थ-- उपधान तप में प्रवेश किया हुआ सुविशुद्ध भाव वाला असमर्थ आराधक विगय त्याग करने पर भी उसनिविगय तप के उपयुक्त उत्कट द्रव्य का उपयोग कर सकता है। . मूल-जो पुण सइ सामत्थे, काऊणं सव्वविगइपरिहारं । भक्खइ खंडाइयं नियमा, सो होइ पच्छिती ॥१३॥ अर्थ-फिर जो सामर्थ्य के रहते हुए सब विगय के त्याग को अर्थात् निविगय पञ्चक्खाण करके यदि खंडादि उत्कट द्रव्य को खाता है तो नियम से बह प्रायश्चित का भागी होता है। मूल-इत्थ पत्थावे खण्डपुच्छए उत्तरं कयं । अर्थ-अकारण उत्कट द्रव्य खाने से निविगय पञ्चक्खाण वाले को दोष बताने के इस प्रस्ताव में खोंड खाना चाहिये या नहीं इस प्रश्न, का उत्तर एक सौ तेतीस वीं गाथा में आगे बताया है कि नहीं खाना चाहिये। मल-गिहिणो इह विहियायंबिलस्स कप्पंति दुन्नि दव्वाणि । एगं समुचियमन्नं बीयं पुण फासुगं नीरं ॥१०॥ अर्थ -आंबिल तप करने वाले गृहस्थ को एक समुचित अन्न और दूसरा अचित्त जल ये दो द्रव्य खाने पीने में कल्पते है।। मूल-गोहुम-चणग-जवेहिं भुग्गेहि सत्तएहिं छासीए । घुघुरिया वेढिमियाइ इड्डु रियाहिं न तं कुजा ॥१०५॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली अर्थ-भुजे हुए गेहूं-चने-जौं से, जौं के सत्तु से, अधपकी धानकी घुधरी से बेढ मिसे, देश विशेष प्रसिद्ध इडुरिका से, गरम पानी और त्रिफला जलसे अतिरिक्त छाछ आदि पीने योग्य पदार्थों से आंबिल न करें। प्रश्न-आंबिल में दो द्रव्य ही लेने की विधि है तो दंतशुद्धिके लिये सीली ( तीनखा ) का उपयोग करना चाहिये या नहीं ? __मूल-जे पुण सिलियाई विणा, मुहसुद्धिं काउं इत्थमसमत्थो । सो कडुयकसायरसं, सिलियं गिण्हइ न से भङ्गो ॥ अर्थ-जो सिली के विना मुख-दातको शुद्धि करने में असमर्थ हो तो वह कडुए कसेले रसवाले नीम आदि की सीली ले सकता है। इससे आंबिल में दो द्रव्य नियम विधिका भंग नहीं होता। प्रश्न-उपवास में आहार विधि क्या है ? मूल--आहारतिगं वज्जिय सजियं न जलं पि पियइ पवररसं । जो किर कयउववासो सो वासं लहइ परमपदे ॥१०७॥ अर्थ-जो असण, खादिम और स्वादिम ऐसे तीन प्रकार के आहारों का त्याग करके प्रधान रसवाले सजीव-सचित्त पानी को नहीं पीते हैं वे परम पद-मोक्ष में निवास प्राप्त करते हैं। प्रश्न-आलोचना तप विधि कही गई । इसमें एवं दूसरे कल्याणक आदि तप संबंधी निविगय आदि तप में जो नहीं कल्पता है सो दीखाते हैं । मूल—पायच्छित्तविसोहणकरणखगम्मि तवम्मि पारद्धे । जलपिवणं कप्पइ नो निसाइ निम्वियाइ सेसत॥१०८॥ अर्थ-प्रायश्चित विशुद्धि करने में समर्थ आलोचना तप का प्रारंभ करने पर, एवं कल्याणकादि संबंधी निविगय आदि शेष तप में रात्री में जलपान नहीं करना चाहिये। प्रश्न-निविगय आदि तप में तैल आदि विकृतियों का बाह्य परिभोग करना चाहिये या नहीं। मूल-पायाईणभंगो निम्वियायंबिलोववासेसु । वायाइपीडिएहिं, कायव्वो अन्नहा न करे ॥१०९॥ अर्थ-निविगय- आंबिल और उपवास में वायु आदि रोग से पीड़िन व्यक्ति अप १२ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली वाद से हाथ पैर आदि शरीर में तैल आदि का मालिश कर सकता है। अन्यथा शृंगार की दृष्टि से ऐसा नहीं करना चाहिये । ___ मूल-आलोयणाविसुद्धिं, जो काउं वंछए स सज्झायं । वजिउं कालवेलं, करेइ ताओ इमे चउरो । ॥११॥ अर्थ-जो शुद्धात्मा अपने पापोंकी आलोचना-विशुद्धि करने को चाहता है बह महानुभाव चार कालवेला को छोड़कर स्वाध्याय को करे । मूल-च उपोरिसिओ दिवसो, दिणमझंते य दुन्नि घडियाओ । एवं रयणीमज्झे, अन्तंमि य ताओ चत्तारि ॥१११॥ अर्थ-चार पौरुषी का एक दिन होता है। दीनके मध्यमें और अन्तमें दो-दो घड़िये ऐसे दिन रात के मध्य और अन्तमें चारकाल बेलाएँ होती है। इनमें स्वाध्याय नहीं करना चाहिये। प्रश्न-कालवेला में ही स्वाध्याय नहीं करना या दूसरे किसी काल में भी ? । __ मूल----चित्ता-सोए सियसत्तमट्ठनवमि तिसु तिहीसँ पि । बहुसुय-निसिद्धमेयं न गुणिज्जुवएसमालाइ ॥११२।। अर्थ - चैत्र और आसोज में शुक्ल पक्षकी सप्तमी अष्टमो और नवमी इन तीन तिथियों में भी उपदेश माला आदि प्रकरणों को पढना बहुश्रुत-गीतार्थ आचार्यों ने निषेध किया है। उपरकी गाथामें उपदेशमाला आदि कहा गया है, तो आदि शब्द से किन-किन प्रकरणों को लेना चाहिये उनके नाम बताते हैं। मूल---उवएसपए पंचासए तह पंचवत्थुगसयगं । सयरी कम्मविवागं छयासि य तह दिवढसयं ॥११३।। जीवसमासं संगणिकम्मपयडी उ पिंडसुद्धिं च । पडिकमणसामायारिं थेरावलियं सपडिक्कमणं ॥११४॥ सामाइयचीवंदणवंदणयं काउसग्गसुत्तं च । पञ्चक्खाणं तह पंचसंगहं अणुवयाइविहिं ॥११५॥ खित्तसमासं पवयणसंदोहुवएसमालपुणसुत्तं । सावयपन्नति नरय-वन्नणं सम्मसत्तरियं ॥११६॥ + Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली ६१ अट्ठय सोड सगाई तह वीसं विसियाउ पसमरई । जिए सत्तरियं एवमाइं जत्थ सिद्धन्तपरमत्थो ॥११७॥ भन्नइ तं सेसं पि हु पवयणमिह चउपु कालवेलासु । न गुणिज्जा सेयासं चितासोए तिसु तिहिसु ।।११८॥ अर्थ उपदेशपद, पंचाशक, पंचवस्तु, शतक, कर्मसप्ततिका, कर्मविपाक, षडशीति, द्वयर्द्धशतक, जीवसमास, संग्रहणि, कर्मप्रकृति, पिण्डविशुद्धि, प्रतिक्रमणसमाचारी, स्थविरावली, प्रतिक्रमणसूत्र, सामायिक, चैत्यवन्दन, गुरुवन्दन; काउसग्गसूत्र, प्रत्याख्यानभाष्य, पंचसंग्रह, अणुव्रतादि विधि, क्षेत्रसमास, प्रवचनसार, उपदेशमाला, पंचसूत्र, श्रावकप्रज्ञप्ति, नरकवर्णनकुलक, सम्यकवसप्ततिका, अष्ट कजी, षोडशक, विशतिस्थानक, प्रशमरति, जिनसप्ततिका, इत्यादि प्रकरण जिनमें सिद्धान्त का परमार्थ पढा जाता है। वह अशेष प्रवचन चारकाल वेलाओंमें चैत्र आसोज में शुक्ल पक्षकी सप्तमी अष्टमी और नवमी इन तीन तिथियों में नहीं पढना चाहिए । प्रश्न - स्वाध्याय किस विधि से करने से सफल होता है ? मल-पढम पडिक्कमिऊणं इरियावहियं जहा समायारिं । निंदं विकहं कलहं हासक्किड्डाइं वज्जतो ॥११९॥ वयणदुबारे मुहणंतयं, च वत्थंचलं अह दाउं । सुत्तत्थे उबउत्तो सज्झायं कुणइ सुणइ पढ ॥१२०॥ अर्थ- पहिले इर्यावही करके विधि पूर्वक निद्रा, विकथा, लड़ाई, हँसी, क्रीड़ा आदि को छोड़ता हुआ । मुखवत्रिका, रूमाल या दुपट्टा अदि से मुखकी जयणा करके सूत्र और अर्थमें उपयोगीवान होता हुआ स्वाध्याय करे सुने और पढे। प्रश्न-उपवास करने में अशक्त दूसरे ढंग से भी उपवास की पूर्ति कर सकता है क्या ? हाँ, बताते हैं। मूल-चउरिक्कासणएहिं उववासो तहय निवियतएण । आयंबिलेहिं दोहिं, बारसपुरिमट्ठ उबवासो ॥१२॥ अर्थ- चार इकासनोंसे, तीन नीवियों से, दो आयंविलों से, एवं बारह पुरिमट्ठोसे, एक उपवास होता है। मूल-सज्झायसहस्सेहिं दोहि एगो हविज्ज उववासो । कारणओ करसइ पुण अहहिं दोकोसणेहिं च ॥१२२।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली अर्थ-आलोचना का उपवास रोग आदि कारणसे किसी सुकुमार प्रकृति वाले को दो हजार श्लोक प्रमाण स्वाध्याय करके पूर्ण करना चाहिये। मूल-संतंमि वले संतंमि वीरिए, पुरिसकारि संतंमि । __जह भणियं सुद्धिकए, करिज्ज आलोयणाइ तवं ॥१२३॥ अर्थ-बल-शरीर सामर्थ्य के रहते हुए, वीर्यमन उत्साहके रहते हुए, और अंगीकृत निर्वाहक रूप पुरुषत्व के रहते हुए आलोचनाचार्य ने जैसा फरमाया है। वैसा, आत्मशुद्धि के लिये तप करना चाहिए । मनमाने ढंगसे नहीं करना चाहिये। मूल-अह नत्थि शरीर बलं तवसत्ती वि हु न तारिसा होइ । भावो विज्जइ सुद्धो ता अववाएण हुज्ज तवं ॥१२४।। अर्थ-पक्षान्तरमें यदि वैसा देह सामर्थ्य नहीं है। पर आत्म शुद्धि के लिये भाव विद्यमान है, तो अपवाद से एकासन आदि द्वारा उपवास आदि तप हो सकता है। मूल-सुगुरूणं अणाए करिज्ज आलोयणातवं भव्यो । इय भणितसूत्र विधिना, स लहु परमप्पयं लहइ ॥१२५॥ अर्थ-श्रीसद्गुरुकी आज्ञा से इस प्रकार सूत्रमें बताई हुई विधि से जो भव्य जीब अलोचना तप करता है । वह जल्दीसे परमपद को प्राप्त करता है । प्रश्न-शिथिलाचारी कुगुरु द्वारा दी हुई आलोचना प्रमाणभूत होती है या अप्रमाणभूत ? कहते हैं। मल----केणावि सावएणं मुद्धणं सिढिलसूरिपासम्मि । ___ आलोयणा य गहिया, पमाणमिह किं न सा होइ ॥१२६॥ अर्थ-किसी भोले श्रावकने शिथिलाचारवाले आचार्य के पास आलोचना प्रहणकी हो तो वह जैन शासन में प्रमाणिक नहीं होती है क्या ? मूल---जमगीयत्थो सिढिलो आउट्टिपमायदप्पकप्पेसु । न वि जाणइ पच्छितं दाउं अह तं परं देइ ॥१२७॥ अर्थ-जो अगीतार्थ शिथिल-आ चार बाला आकुष्टि-हिंसादि रूप, प्रमाद-विषय सेवा रूप दर्प-कुदना आदि क्रिया रूप, कल्प कारणमें करना इन विषयों में प्रायश्चित्त देना नहीं जानता है, फिर भी दे देता है, तो वह विराधक होता है। लेनेवाले की आलोचना भी प्रमाणिक नहीं होती । कपोल कल्पनामात्र होने से । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली न जानकर भी देता है उसकी विराधकता तो ठीक, पर त्रिकरण शुद्धि से ग्राहक की आलोचना अप्रमाणिक क्यों होती है ? - कहते हैं । मूल----तत्थ त्थि गाहगस्स वि दोसो सो दोयगस्स अहिययगे। तित्थगराणाभंगो, आणा वेसा जओ भणियं ॥१२८॥ ___ अर्थ-अगीतार्थ से आलोचना लेने वाले को भी दोष ही होता है। वह दोष देने वाले को अधिकतर होता है। क्यों कि ऐसा करनेसे तीर्थंकर देवों को आज्ञा का भंग होता है। ऐसी आज्ञा है, इसीलिये यह बात कही है। मूल----आलोयण चउभेया, अरिहो अरिहम्मि पढमओ भंगो। अरिहंमि अणरिहो पुण, विओ अरिहो वि जमणरिहे । एसो तइओ जत्थेव अणरिहा दोवि सो च उत्थो उ ॥१२९॥ अर्थ-अधिकारी भेद से आलोचनाके चार भेद हैं। देनेवाला योग्य हो, और लेनेवाला भी योग्य हो, यह पहिला भेद हुआ। देनेबाला योग्य हो पर लेने वाला अयोग्य हो यह दूसरा भेद है। देनेवाला अयोग्य हो, और लेनेवाला योग्य हो, यह तीसरा भेद है । जहाँ देनेवाला भी अयोग्य हो, और लेनेवाला भी अयोग्य हो, यह चौथा भेद हुआ। भूल---पढमा उस्सग्गेण, सुद्धा अववायआ वीओ। तइओ पुण अच्चन्ताववायओ कम्मि हाइ कस्स वि य । आणा वझोभंगो एस चउत्थो तओ दोसो ॥१३०-१३१॥ अर्थ- उपर बताये चार भेदों में पहिला भेद उत्सर्ग से शुद्ध माना गया है । अपवाद से दूसरा भेद शुद्ध है। तीसरा अत्यन्त अपवाद की हालत में कभी किसी खास व्यक्ति विशेष के लिये ठीक माना जा सकता है। चौथा भेद जो है वह तीर्थ कर देवों की आज्ञा से वाह्य है। इसीलिये वह दोष पूर्ण है। मूल----दुण्हवि य अयाणते पच्चक्खाणं पि जं मुसावाओ । आलोयणा वि एवं गहिया हुज्जा मुसावाओ ॥१३२॥ अर्थ-प्रत्याख्यान करानेवाला और प्रत्याख्यान करनेवाला दोनों जानकारी से हीन हों तो वह प्रत्याख्यान भी मृषावाद-झूठमात्र हो जाता है, और इसी प्रकार अजानते अनधिकारी रूप से आलोचना करने और कराने वाले को भी मृषावाद मठका दोष लगता है। प्रश्न-त्यागी हुई एक दो तीन आदि विगयोंको और तत्संबंधी उत्कट द्रव्यों को खाना Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. संदेह-दोलावली नहीं कल्पता है, समान दोष होने से। इसी तरह निविगय में भी सभी विगयों को एवं उनके उत्कट द्रव्योंको छोड़ देने चाहिये क्या ? मूल-दो तिन्नि य विगईओ, पच्चक्खंतेण मुक्कलाउ कया । ताओ भोअण समए, सव्वा भुत्ता गुडेण विणा ॥१३३॥ मूल----ता खण्डसकराओ, सो भुंजइ किं न वेति इययुच्छा । (उत्तर मेवं) तत्थ उ, सेो वि न भक्खिज खण्डाइ ॥१३४॥ अर्थ-दो, तीन बिगयों को प्रत्याख्यान करते हुए खुली रखी, उन सबको भोजन के समय गुड को छोड कर खाली-तो गुड विगय के उत्कट द्रव्य खांड शक्कर आदि को वह प्रत्याख्यान करनेवाला व्यक्ति-खावे या नहीं ? इस प्रश्नका यह उत्तर है कि --न खावे । निविगय में भी यही बात जानना । * उत्सर्गसे उत्कट द्रव्यको नहीं खाना बता कर अपवाद विधि को बताते हैं ! मूल-जइ पित्ताई-रोगो सो खण्डाईहिं उवसमइ तस्स । ___ता तग्गहणं जुत्तं, रसगिडीए न तं भजे ॥१३५॥ अर्थ- यदि प्रत्याख्यान करने वाले को पित्त-आदि रोग हो जाय और वह खाँड आदि उत्कट द्रव्यों से उपज्ञान्त होता हो तो उनका ग्रहण करना युक्त हो सकता है। रसगृद्धि जीभ के स्वाद के लिये अयुक्त होगा। प्रश्न-कई लोग सांगरी और राइको द्विदल नहीं मानते। तो उनको द्विदल मानना चाहिये या नहीं ? मूल-जं संगरराईओ भवंति विदलं नवत्ति पुठ्ठाओ। तत्थेवं भन्नइ राइयाअ विदलं न भण्णंति ॥१३६॥ अर्थ-क्या सांगरियाँ और राई द्विदल हैं या नहीं ? इस प्रश्नके जवाब में कहते हैं कि उनमें राई द्विदल नहीं कही जाती। मूल-वरहासाईसु ठाणेसु ताओ जं घाणगंभि पक्खितं । ___ पीलिज्जंति तिल-सरिस बुब्व तिल्लं वि य मुयंति ॥१३७॥ अर्थ-वरहास आदि देश विदेशों में राईको घाणीमें डाल कर पीलते हैं। राई भी तिल-सरसों के जैसे तैल को छोड़ती है ! इस लिये गोरस में द्विदल के जैसा दोष नहीं माना गया। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ संदेह-दोलावली मूल-जह किर चवलयचगया बिदलं तह संगरावि बिदलं ति। . दिणचरिया नवपयपयरणेसु लिहिया उ फलिबग्गे ॥१३८॥ अर्थ-जैसे चंवले और चने द्विदल हैं। वैसे ही-सांगरियां भी द्विदल ही हैं। क्यों कि दिनचर्या और नवपदप्रकरण आदि प्रकरणों में सांगरियों को फलि वर्ग में लिखा गया है। मूल-नय संगरबीयाओ तिल्लुप्पत्ती कया वि संभवइ । दलिए दुन्नि दलाइ मुग्गाईणं व दीसंति ॥१३९॥ अर्थ- सांगरी के बीजों से कभी भी तैल की उत्पत्ति संभवित नहीं है। एवं घट्टी में दले जाने पर दो दल मुंग आदि के जैसे होते हैं । इस लिये सांगरो द्विदल ही है। मल-एवं कंडुय-गोवारपभियमारन्नियं भवे बिदलं । एयं न सावएणं भुत्तव्वं गोरसेण समं भणियं ॥१४॥ अर्थ-इसी प्रकार कडुक-ग्वार आदि जंगली धान्य-जो कि द्विदल होते हैं। उनको गोरस-कच्चे दही छाछके साथ श्रावकको नहीं खाना चाहिये। ऐसा पूर्वाचार्यों ने फरमाया है। मूल-पंचुबरि चउविगई हिम विस करगे य सव्वमट्टीय । राईभोयणगं चिय, बहुबीयणंतसंधाणं ॥१४१॥ घोलवडाबायंगण अमुणिय नामाइं पुफफलयाई । तुच्छफलं चलियरसं वजह वजाणि बावीसं ॥१४२॥ अर्थ-बड़काफल, पीपलकाफल; गुलरकाफल, पीलुकाफल, पोचुकाफल, इन पांच उदुबर फलोंको शराब, मांस, सहत, मक्खन, इन चार महाविगयों को शरदी में जमा हुआ पानी हिम, जहर, बर्षाद के गड़े सब प्रकार की मिट्टी, रोत्रीभोजन, बहुबीज, अनंतकाय, सन्धानं- कालानीत अचार, घोलबड़े, बैंगन, अज्ञात फलफूल, चलितरस इस वस्तु इन त्यागने योग्य बावीस अभक्ष्यों को अपने हितके लिये भव्य जीव छोड़ दें। प्रश्न-स्वाधीन कुशील का त्याग करने वालेको पराधीन अवस्थामें कुशील सेवन हो । जाय तो व्रत भंग होगा या नहीं ? मूल-मणुय सुरतिरिय विसयं दुविहं तिविहेण थूलगमबंभं । सवसा चयामि मुत्त सयणाइ सदार कारवणं ॥१४३॥ | Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह-दोलावली अर्थ--गृहस्थ स्त्री या पुरुषको कुशील त्याग का नियम इस प्रकार लेना चाहिये । मनुष्य देवता और तोयं च सम्बन्धी विषय भोग को-स्थूल अब्रह्मचर्यको मन वचन और काया इन तीन योगों से, स्वाधीन भावसे करू नहीं कराउ नहीं इन दो करणों से, स्वजन सम्बन्धियों को --उपलक्षण से गाय भैंस आदि जानवरों को खदार सम्बन्ध कराने की छूट रखकर त्याग करता हूँ। इस नियम की मयाँदा में पराधीन अवस्थासे कुशील हो जाय तो व्रत भंग नहीं माना जाता । प्रश्न-कोई भो तप किया गया हो उसका उजमणा यदि किसी कारण से न हो सका तो वह तप सफल होता है या नहीं ? मूल--काए वि साविगाए विहिओ दिक्खातवो न उज्जमिओ। भावविसुद्धिई फलं तहावि से अस्थि इहरा नो ॥१४४॥ अर्थ-किसी भी श्रावक श्राविकाने कल्याणक आदि तप किया हो और उसका उजमणा न हो सका हो तो भाव विशुद्धि से वह सफल ही होता है। कंजूस वृत्ति आदि से यदि न किया गया हो, तो सफल नहीं होगा। मूल--- अह सा सग्गहंगहिया पासे सच्छंदसिढिललिंगीणं । कुणई तवो नत्थि फलं, ता तीसे होइ भूरिभवो ॥१४५॥ ___ अर्थ-अगर श्रावक श्राविका स्वच्छन्द शिथिलाचारी भेषधारियों के पास तप ग्रहण करते हैं तो वह सफल नहीं होता एवं उनका भव भ्रमण बढ़ता है। प्रश्न- गोत्र देवताको पूजा आदि नहीं करने से गृहस्थों के लिये प्रतिकूल आचरण कर देते हैं। उसके लिये क्या करना चाहिये ? मूल-अच्चन्तखुद्दसीला, उवद्दवं कुणइ जो न पूयेइ । जरसेरिस स्थि गुत्तंमि देवया स कहं सड्ढोत्थु।।१४६॥ अर्थ-जिसके गोत्र में अत्यन्त क्रूर स्वभाव-वाली गोत्र देवी हैं उसकी पूजा नहीं करने से उपद्रव करती है, वह श्रावक-व्रतधारी कैसे हो ? मल-उस्तग्गेण न कप्पइ तीए पूयाइ तस्स सट्टस्स । ___ जइ मारइत्ता मारउ कुडुंबगं एस परमत्थो ॥१४७॥ ___ अर्थ-उत्सर्गसे उस व्रतधारी श्रावकको उस गोत्रदेवता की पूजा नहीं करनी चाहिये। यदि वह श्रावक-कुटुम्बको मारदेती है तो भले ही मार दे। श्रावकको दृढता रखनी चाहिये यह परमार्थ है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह - दोलावली मूल - गीयत्थेणमगारछकमिह देसिघं च सम्मत्ते । रायगुरु देवया वित्तिच्छेयबलगणभिओगा य ॥ १४८ ॥ ता इय अगारनिवेयणाओ धम्मत्यमन्न तित्थम्मि | वयणाओ अववाएण तीए नमणाईसु न दोसो ॥१४९॥ अर्थ - गीतार्थो ने सम्यक्त्व प्रतिज्ञामें छह आगार बताये हैं । राजाअभियोग, गुरुनिग्रह, देवताअभियोग वृत्तिकान्तार, बलाभियोग और गणाभियोग | आगारों को इसलिये बताया गया है कि धर्म के लिये अन्यतीर्थ - धर्म में वन्दना नमस्कार अदि प्रवृत्ति न करे, पर उन छह कारणों से अपवाद से प्रवृत्ति करनी हो पड़े तो व्रत भंग नहीं होता । इस शास्त्रीय वचनों से अपवाद से उस गोत्रदेवी को नमस्कारादि करने से भी दोष नहीं होता । * ** ग्रंथकार उपसंहार करते हुवे अपना परिचय देते हैं । कइवयसंसय पयपण्डुत्तरपयरणं मूल - इय समासेणं । भणियं जुगपवरागमजिणबल्लभसूरिसीसेण ॥ १५०॥ अथ - इस प्रकार कितनेक संशय प्रश्नों के उत्तर रूप इस प्रकरणको संक्षिप्त तथा युगप्रधान परमगतार्थ श्रीमज्जिनवल्लसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य परम गुरुदेव दादा श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी महाराजने फरमाया । अनुवादक प्रशस्ति दादा श्रीजिनदत्तसूरिगुरुने संदेहदोलावली, गाथा सार्धशत प्रमाणरचना भव्य प्रबोधार्थ की । हिन्दी संस्कृत में उसे परिणता संक्षेप से की यहां, पावें शाश्वत सिद्धि पावन विधि भव्यातमा जो पढ़े || जिन हरिसागर सूरिने, दो हजार पर चार । संवत में इसको लिखा, जोधपुरे जयकार | ॥ समाप्त ॥ १३ * ६७ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARAURINHERITE ames S - 65 SH CATAL POST RE LIA विमलाबल्ला वन्यदिवासमाााजिणायवोदय विदहशाहिस्कनिकविराट गयामिदवाणानियालिदानझामा दाणतोगुणाजपामाइनियमणिया साबणजणलादतावनिमुदियणनिरुनरजमालमतरगमयरवदरपययनमस्कारिगुरुसरहाम फायनल मुगुणनिमबुकितिदसदिमिनियसिद्दडादवपापणदिटावरकमायणगणिदिसमिहासडिपण्य रायवलाधकयवरश्रलिवल्लामवविदलियटरकरणमयपगयारवश्वविवलजामसिंधुचजबिजनंटउतामानिमवाना व्यवउपायांकनापाइगुरुसविदिकदिया मुरगिरिपंचदीवस मरेविज्ञासासिवपुस्विरहकरेजा हरदसडतालकमहमासि वायलिमिलिदेदिवासीमाणिवदसरिजिउकोडिदरीमासंघसहिडफेमसणइनिधनुगया गजोमनामनिरमाइसासयसिक्नाशिवलविनपडास्वसंसाजिकिणिजस्कविउणवठवीसाविजादेवि सहकरणासवियलायजामायापासंघजगपढापनिणवंडायलिटासुदगुरधामनशानियबदमारजी | विदाणाचायवरागमसंसयदरणजिणापवादसरिसदगुरुसरणातमुपदसराममणिरयप्पामयणविणासपूसिव श्रीयुगप्रधानचतुष्पदिका का अंतिम पत्र । RatiPANA SEE 5 LA - Media HelliAS NIA AM TE ritain m asia A H iranation ANAHUA Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट श्रीदिल्लीश्वरपातिसाह-अल्लावदीन-राज्यान्तर्गत - कन्नाणपुरवास्तव्य-वास्तुसार ज्योतिष्कसार-गणितसार-रत्नपरिक्षा-द्रव्यपरीक्षादिग्रन्थकारश्रीमालकुलावतंस--परमजैन चंद्रांगज- ठक्कु रफेरू-विरचिता श्रीयुगप्रधानचतुष्पदिका। प्रस्तुत ग्रंथकर्ता ठक्कुरफेरु का विशेष परिचय तो उपलब्ध नहीं होता पर उनके द्वारा निर्मित ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि दिल्लीश्वर बादशाह अल्लाउद्दीन खीलजी के राज्यकाल में विद्यमान थे । आप राज्यकर्मचारियों में से उच्चपद पर और प्रामाधिपति भी थे। आपने युवावस्था में प्रथम हो युगप्रधानचतुष्पादिका नामक स्तुत्यात्मक ग्रन्थ की रचना की "युगप्रधान" याने तत्कालोन जैन संघ में होने वाले प्रधान आचार्य "चतुष्पदिका” याने उन आचायों के गुणों का चार चरणवाले पद्यों द्वारा स्तुति । प्रस्तुत ग्रंथ के आदि में भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार कर एवं सरस्वती देवी का स्मरण करने के बाद युगप्रधान आचार्यों का संक्षिप्त वर्णन प्रारम्भ होता है, जिसमें सुधर्मा स्वामी से लगाकर जिनचंदसूरि पर्यंत युगप्रधान आचार्यो के गुणों वर्णन है। ग्रंथकी महिमा संघ सहित फेरु इस प्रकार कहता है कि उपरोक्त बताये हुए युगप्रधान आचार्यों के गुणों की जो कोई स्तुति करता है, एवं गुणों का अध्ययन करता है तथा गुणों की आवृत्ति करता है, और नियमपूर्वक मंत्रवत् गुणों का नित्य स्मरण करता है, वह प्राणी मोक्षलक्ष्मी को अवश्य प्राप्त कर सकता है। संवत् १३४७ के माघ मास में कन्नाणपुर में राजशेखर वाचनाचाय के सम्मुख गुरुभक्ति से चंद्र के पुत्र फेरु ने यह युगप्रधानचतुष्पदिका, नामक काव्य की रचना की। अंतमें शुभकामना --- पांच मेरु पर्वत, एवं संपूणे द्वीप, चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, और भी तारा वगैरह (समुद्र ) और पृथ्वी जिस प्रकार निश्चल है उसी प्रकार साधु-साध्वी, श्रावकभाविकारूप चतुर्विधसंघ सर्व प्रकार से समृद्धवान होता हुआ निश्चल रहे ? अन्य ग्रन्थ रचना (२) ज्योतिष्कसार, संवत् १३७२ ग्रं० श्लो० ४७४ । ग्रन्थ में ज्योतिष का विषय चार भाग में पूर्ण होता है। (३) वास्तुसार, सं० १३७२ गाथा २८२ । विषय शिल्प कला विज्ञान (मुद्रित ) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ख ) (४) रत्नपरिक्षा सं० १३७२ गा० १३२। इस में सर्व प्रकार के रत्न एवं मोती इत्यादि का वर्णन है जो कि उस समय बादशाह के खजाने में विद्यमान थे।। (५) द्रव्यपरिक्षा, सं० १३७५ गाथा १४६ । इस ग्रन्थ में प्राचीन और तत्कालीन राजा व बादशाहों की मुद्राओं का वर्णन है। जो कि अल्लाउद्दीन बादशाह के टंकशाल में विद्यमान थी। जिस को आदि गाथा "कमलासण कमलकरा छणससिवयणा सुकमलदलनयणा संजुत्तनवनिहाणा नमि वि महालच्छि रिद्धिकरा" ॥१॥ (६) धातोत्पत्ति, गाथा ५७ । इस में सातों प्रकार के धातुओं का वर्णत है। (७) गणितसार, गाथा ३११। इस में मुख्य गणित का विषय इसके अतिरिक्त कृषि, शिल्प-विज्ञान, आदि अन्य विषयों का भी संग्रह किया गया है। उपरोक्त संपूर्ण ग्रंथों का विशेष परिचय हमारे लघुभ्राता मुनि कांतिसागरजी द्वारा लिखित "ठक्कुर फेरू और उनके ग्रन्थ" नामक निबन्धों में देखें-"विशाल भारत” अंक मई और जून १८४७ । इन ग्रंथों के अवलोकन से जान पड़ता है कि ग्रन्थकार फेरु प्राकृत एवं अपभ्रंस भाषा के महान् अनुभवी विद्वान थे। सं० १३७५में ठ० अचलने कुतुबदीनके समय जैन तीर्थोकी जात्रानिमित्त विशाल संघ निकाला था, वैसा हो एक और सं० १३८० में ग्यासुदीन तुगलक के समय रयपति ने भी संघ निकाला था इन उभय संघों में ठक्कुर फेरु और श्रीजिनचंद्रसूरि तथा दादा-जिनकुशलसूरि क्रमशः सम्मिलित थे । (खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली पृ० ७२) इस प्रकार खरतरगच्छ के युग प्रधानाचार्यो के समय में ग्रन्थकार ठक्कुर फेरु विद्यमान थे। प्रस्तुत ग्रन्थ का संशोधन और भाषा अनुवाद श्रीबुद्धिमुनिजी ने कराहे । मुनि मंगलसागर कलकत्ता R Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमालकुलावतंस-परमजैनचंद्रांगज-ठक्कुरफेरुविरचिता श्रीयुगप्रधानचतुष्पदिका। अनुवादक श्रीबुद्धिमुनिजी सयलसुरासुरवंदियपाय, वीरनाह पणमवि जगताय । समरेविणु सिरिसरसइ देवि, जुगवरचरिउ भणुसु संखेवि ॥ १ ॥ वैमानिक व भवनवासी आदि देवताओंने जिनके चरणों में वंदन किया है, उन जगत् के पिता तुल्य भगवान् वीर प्रभु को प्रणाम करके ? एवं सरस्वती देवीका स्मरण करके मैं जुगप्रधानाचार्यो का चरित्र संक्षेप में ( नाम मात्र ) कहूंगा। ॥१॥ सुहँमसामि गणहर पमुह, सिरिजुगपवर नाम वरमंत, सुमाहु अणुदिणु भत्तिजय, लीलइ तरिवि भवोयहि जेम, ___कमि कमि पावहु सिद्धिसुह ॥ धुवकम् ॥ वडमाणजिणपट्टि पसिद्ध, केवलनाणी गुणिहि समिद्ध । पंचमु गणहरु जुगवरु पढमु, नमहु सुहंमसामिगुरु अममु ॥ २ ॥ हे भव्यात्माओं ? गणधर श्रीसुधर्मा स्वामी प्रमुख युगप्रधान आचार्यों का नाम रूप उत्तम मन्त्र को भक्ति सहित हृदय में हमेशा स्मरण करो, जिससे कि लीला के साथ इस संसार समुद्र तिरजाओ और क्रमशः क्रमशः सिद्धि सुख को प्राप्त करो (धुवपद) ___ भगवानश्रीवर्द्धमान जिनेश्वर के पाटपर किसी तरह की ममता से रहित गुणोंसे समृद्ध, केवलज्ञान को धारने वाले, पांचवे गणधर और प्रथम युगप्रधान गुरु श्रीसुधर्मास्वामी प्रसिद्ध हुए, उन को नमस्कार करो ॥२॥ भजा अट्ठ पंचसय तेण, इकि रयणि पडिवोहिय जेण । सुगुरुपासि लिउ संयमभारु, सरहु सरहु सो जंबुकुमारु ॥ ३ ॥ जिन्हों ने आठ स्त्रियोंको और पांचसौ चौरोंको एक ही रात में प्रतिबोध देकर सुगुरु श्रीसुधर्मास्वामी के पास संयम भारको ग्रहण किया था, उन जंबूकुमार मुनिवर को बारंबार स्मरण करो ॥३॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभवसूरि--सिज्जभउ सुगुरु, जसोभदु सूरीसरु पवरु । सिरिसंभूयविजउ मुणितिलउ, पणमहु भद्दबाहु गुणनिलउ ॥ ४ ॥ सुगुरु श्रीप्रभवसूरि, एवं सूरिप्रवर श्रीयशोभद्र सूरीश्वरजी और मुनियों में तिलक समान श्रीशंभूतविजयाचार्य तथैव गुणों के स्थान भूत श्रीभद्रबाहुस्वामी को प्रणाम करो ॥४॥ भद्दबाहसूरीसरपासि, चउदसपुत्रपढिय गुणरासि । भंजिउ जेण मयणभडवाउ, जयउ सु युलिभद्द मुणिराउ ॥ ५ ॥ जिन्होंने श्रीभद्रबाहुसूरीश्वरजीके पास चौदह पूर्वकी विद्या पढ़ीथि और मदन रूप सुभट के वादका जिन्होंने भंग कर दिया था, वे गुणों के खजाने श्रीस्थूलभद्र मुनिराज जयवान् हो ॥५॥ दूसमकालि तुलिउ जिणकप्पु, अजमहागिरि गुरुमाहप्पु ! अज्जसुहत्थि थुणहु धरि भाउ, जिणि पडिबोहिउ संपइराउ ॥ ६ ॥ __जिन्होंने इस दुष्षम (पंचम ) कालमें महाप्रभाव शाली ऐसे जिन कल्पकी तूलना करी थी, उन आर्यमहागिरि आचार्य की और जिन्होंने संप्रति राजाको प्रतिबोध देके श्रावक बनाया था, उन आर्यसुहस्तिसूरि महाराज की स्तवना हृदय में भाव धर के करो ॥६॥ संतिसूरि कयसंघह संति, चउदिसि पसरिय जसु वरकित्ति । तास पहि हरिभद् मुणिंदु, मोहतिमिरभरहरणदिणिंदु ॥ ७॥ उन के बाद संघ में शांति के करनेवाले श्रीशांतिसूरि हुए, जिनकी प्रधान कीर्ति चारों ही दिशाओं में प्रसृत थी, उन के पाटपर मोहरूप अंधकार के समूह को हरण करने के लिए सूर्य समान श्रीहरिभद्र मुनींद्र हुए ।।७।। संडिलसूरि तह अजसमुदु, अज्जमंगु जणकइरवचंदु । अजधम्मु धर पयडिय धम्मु, भदगुत्तु दंसिय सिवसम्मु ॥ ८ ॥ तत्पश्चात् भव्य जीव रूपी कमलों को विकसित करने के लिये चन्द्र तुल्य आर्यसंडिलसरि तथा आर्यसमुद्रलूरि और आर्य मंगुसूरि हुए, बाद में पृथ्वीतल उपर प्रगटित किया है धर्म जिन्होंने ऐसे आर्य धर्मसूरि और दिखाया है शिवसुखका मार्ग जिन्होंने ऐसे भद्रगुप्तसूरि हुए ॥८॥ वयरसामि पभाविय तित्थु, अजरक्खिउ बोहियजणसत्थु । अजनंदिगुरु वंदहु नरहु, अजनागहत्थीसरु सरहु ॥ ९॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक प्रकार से शासन प्रभावना करने वाले वज्रस्वामी को, समस्त कुटुम्बी आदि जन समुदाय को बोध देनेवाले आर्य रक्षितसूरि को एवं आर्यनन्दि गुरु को वन्दन करो, एवं हे मनुष्यों! आर्य नागहस्तीहरि को स्मारण में लाओ ॥६॥ रेवयसामि सूरि खंडिल्ल, जिणि उम्मूलिय भवदुहसल्ल । हेमवंतु झायहु बहुभत्ति, तरहु जेम भवसायरु झत्ति ॥ १० ॥ रेवत स्वामी ( रेवति मित्र सूरि ) सूरि खंडिल (सांडिल्याचार्य) कि-जिन्होंने भवदुःख के शल्य को जड़से उखाड़ दिया है, एवं हिमवन्त सूरि, इन सब का बहुत भक्तिसे वैसा ध्यान धरो जिससे भवसमुद्र को जल्दी तर जाओ ॥ १० ॥ नागऽज्जोयसूरि गोविंद, भूइदिन्न लोहिच्च मुणिंद । दुसमसूरि उम्मासयसामि, तह जिणभद्दसूरि पणमामि ॥ ११॥ अर्य नागसुरि, गोविन्द वाचक, भूतदिन्नाचार्य, लौहित्याचार्य मुनीन्द्र, दुःषमसूरि; उम्मासय स्वामी ( उमास्वाति वाचक) तथा जिनभद्र ( गणिक्षमाश्रमण ) सूरि को प्रणाम करता हूं ॥ ११ ॥ सिरिहरिभद्दसूरि मुणिनाहु, देवभदसूरिव जुगबाहु । नेमिचंद चंदुजलकित्ति, उज्जोयणसुरि कंचणदित्ति ॥ १२ ॥ मुनियों के नाथ श्रीहरिभद्र सुरि एवं अपने युगमें बाहु ( भुजा ) समान श्रीदेवभद्र सूरिवर और चन्द्रसम उज्ज्वल कीर्ति वाले नेमिचन्द्र सूरि, कञ्चन के सदृश दीप्ति (कांति) वाले उद्योतन सूरि हुए ।। १२ ।। पयडिय सूरिमंतमाहप्पु, रूवि झाणि निज्जियकंदप्पु । कुंदुज्जलजसभुसियभवणु, सलहहु वद्धमाणसुरिग्यणु ॥ १३ ॥ जिन्होंने सूरिमन्त्र का माहात्म्य प्रगट किया है, रूप व ध्यान से कन्दर्प (कामदेव) को जीतलिया है, कुन्दके फूल के समान उज्ज्वल यशसे समग्र भुवन (लोक ) को भूषित किया है, उन सूरिरत्न श्रीवर्द्धमानसूरिजी की प्रशंसा करो । १३ ॥ अणहिलपुरि दुल्लहअत्थाणि, जिणेसरसूरि सिद्धंतु वखाणि । चउरासी आयरिय जिणेवि, लिउ जसु वसहिमग्गु पयडेवि ॥ १४ ॥ उनके शिष्य आचार्य श्रीजिनेश्वरसूरि हुए कि-जिन्होंने अणहिलपुर पाटण में दुर्लभ राजाकी सभा में सिद्धान्तके सत्यार्थ प्रकाशन द्वारा चौरासी ( गच्छ के चैयवासी) आचार्यों को जीतकर वसति वास के मार्ग को खुला कर के यश प्राप्त किया था ॥ १४ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणि विरईय कहा संवेग-रंगसाला तह सत्थ अणेग । नियदेसण रंजिय नरराय, तमु जिणचंदसूरि सेवहु पाय ॥ १५ ॥ जिन्होंने संवेगरङ्गशाला कथा तथा ( क्षपक शिक्षा प्रकरण आदि ) अनेक शास्त्रों की रचना करी और अपनी देशना से राजाओं को भी रञ्जित किये, उन श्रीजिनचन्द्र सुरिजी महाराज के चरणों की सेवा करो ।। १५ । वर नवअंगवित्ति उद्धरणु, थंभणिपास पयड पुक्करणु । अभयदेवसूरि मुणिवरराउ, दिसि दिसि पसरिय जसु जसवाउ ॥ १६ ॥ ___उनके पाट पर उन्हींके छोटे गुरुभाइ एवं मुनिवरों के राजा श्रीअभयदेवसूरिजी हुए कि जिन्होंने ठाणांगादि नवअंग सूत्रों पर वृत्तिकी रचना करी, एवं स्तंभन पुर (खेड़ा के पास में आये थांभणा गांव ) में स्तंभन पार्श्वनाथ प्रभुकी प्रतिमा प्रगट करी, इसी कारण जिनका यशोवाद दिशोदिशि में प्रसृत था ॥ १६ ॥ नंदि--न्हवणु--बलि--रहु--सुपइट--तालारासु जुवइ मुणिसिठ्ठ । निसि जिणहरि जिणि वारिय अविहि, थुणहु सु जिणवल्लहसूरि सुविहि १७ ___ रात्रि के समय जिनमन्दिर में नन्दि ( दीक्षा ) विधि का करना, स्नात्रोत्सव, बलिप्रदान (नैवेद्यादि चढ़ाना या बलि बाकुलादि उछलना ), रथ भ्रमण, प्रतिष्ठा, तालियां बजाते हुए रासगाना और स्त्रियों आकर एकत्र होती, इत्यादि अविधि कर्त्तव्य, जो कि उत्तम मनियों से सर्वथा निषिद्ध है, उनका जिन्होंने सर्वथा निषेध किया था और पूर्व महर्षियोंने बताये उत्तम विधिमार्ग का खूब जोरोंसे प्रचार किया था, उन मुनिश्रेष्ठ श्रीजिनबल्लभसूरिजी महाराज की स्तवना करो ॥ १७ ॥ जोइणिचक्कु उज्जेणिय जेण, बोहिउ जिणि नियझाणवलेण । सासणदेवि कहिउ जुगपवरु, सो जिणदत्तु जयउ गुरु पवरु ॥ १८॥ उज्जयनी नगरी में जिन्होंने अपने ध्यान बलसे योगिनी चक्र (६४ योगिनीयों) को जीतकर धर्म बोध दिया था और जिनको शासनदेवी ( अम्बिका ) ने युगप्रधान कहे थे वे उत्तम गुरुदेव श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज जयवंते रहो ॥ १८ ॥ सहजरूवि निज्जियअमरिंद, जिणि पडिबोहिय सावयविंद । पंचमहव्वयदुद्धरधरणु, गंदउ जिणचंदसूरि मुणिरयणु ॥ १९ ॥ जिन्होंने अपने स्वभाविक रूप से इन्द्र को भी जीत लिया हो वैसे अनुपम रूप सम्पदावाले, संख्या बंध श्रावकों की प्रतिबोध देने वाले, बड़ी ही कठिन रीतिसे पञ्च Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा व्रतोंको धारण करने वाले, मुनियों में रत्न समान मणिधारी श्रीजिनचन्द्र सूरिजी महाराज समृद्धिमान हो ॥ १६ ॥ अजयमेरि नरवइपञ्चक्खि, करि विवाउ बुहयणजणसक्खि । जिणि पउमप्पहु लिउ जयपत्तु, जिणवइसूरि जयउ सुचरित्तु ॥२०॥ जिन्होंने अजमेर में राजा के समक्ष बुधजन (पण्डित ) जनों की साक्षी से विवाद करके पद्मप्रभ उपाध्यायको जीतकर जयपताका प्राप्त किया था, वे उत्तमचारित्रवान् श्रीजिनपतिसूरिजी महाराज जयवंते हो ॥२०॥ नयरि नयरि जिणमंदिर ठविय, तोरण--डंड-कलस-धजसहिय । तेवीसा सउ दिक्खिय साहु, जिणेसरसूरि जयउ गणनाहु ॥ २१ ॥ शहरो शहर में तोरण, ध्वजदण्ड, ध्वजा, कलश सहित जिनमन्दिरों की स्थापना कराने वाले, एकसो तेवीस साधुओंको दीक्षा देनेवाले, गणनाथ श्रीजिनेश्वरसुरिजी महाराज जयवान् हो॥२१॥ तसु पयपउमुज्जोयणु भाणु, जसनिम्मलू गुणगणह निहाणु । जुगपवरागम संसयहरणु, जिणपबोहसूरि सुहगुरुसरणु ॥ २२ ॥ उनके चरण कमल में उद्योतनशील (अतिशय प्रकाशवान् ) सूर्य समान और निर्मल यशके धारक, गुण गणके निधान, अपने समय में उत्तम आगम ज्ञान के धारक भव्यात्माओं के संशों को हटाने वाले, शुभगुरु श्री प्रबोधसूरिजी महाराज भव्य जीवोंको शरण हो ॥ २२ ॥ तसु पट्टहरु गुरु मुणिरयण, मयणविणासणु सिवसुहकरणु । भवियलोयजणमणआणंदु, संपइ जुगपहाणु जिणचदु ॥ २३ ॥ उनके पाटको अतिशयपणे धारण करने वाले, मदन का विनाश करने वाले, शिवसुखके करने वाले, मुनियों में रत्न समान, युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि गुरु महाराज भव्य लोगोंके मनको आनन्दित करते हुए संप्रति ( वर्त्तमान ) कालमें विजयमान हो ॥२३॥ इय इत्तिय सुहगुरु आमनइ, जिणचंदसूरि जुगवर जो मनइ । सुजिउ रमइ सासयसिवनारि, वलवि न पडइ इत्थ संसारि ॥ २४ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ज ) इस प्रकार इतनी शुभगुरु आम्माय ( परम्परा ) से प्राप्त युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि जी को जो मानता है वह जीव शाश्वती ( सदाकाल रहनेबाली ) शिवनारी ( मोक्षस्त्री ) से रमण करता है और फिर से यहां संसार में नहीं पड़ता || २४ ॥ जक्खिणि जक्ख बिउण चउवीस, विज्जादेवि चहूणी वीस । इय चउठि मिलि देहि असीस, जिणचंदसूरि जिउ कोडिवरीस ॥ २ ॥ यक्षिणी व यक्ष दुगुने चौवीस (४८), याने २४ तीथकर देवोंका अधिष्ठाता देवियां, २४ और देव २४ मिलकर ४८, एवं दो कम बीस याने १६ विद्यादेवियां, से सब जुमले चौंसठ ही मिलकर आशीर्वाद देवें कि - श्रीजिनचन्द्र सूरिजी महाराज क्रोट वर्ष जीवते रहो । ।। २५ ।। संघसहिउ फेरू इम भणइ, इत्तिय जुगपहाण जो थुणइ । पढइ गुणइ नियमणि सुमरेवइ, सो सिवपुरि वररज्जु करेइ ॥ २६ ॥ श्री संघ सहित फेरू ( ग्रंथकर्त्ता ) एस प्रकार कहता है कि- इतने युग प्रधानों को जो स्तवता है और उनके गुगनुवोद रूप इस चतुष्पदिका को जो पढ़ता है गुणता है व निजमन में स्मरण करता है वह शिवपुर (मोक्षनगर ) में उत्तम राज्य करता है ।। २६ । तेरह---सइतालइ (१३४७) महमासि, रायसिहरवाणारिय पासि । चंदतणुब्भवि इय चउपइय, कन्नाणइ गुरुभत्तिहि कहिय ॥ २७ ॥ विक्रम संवत १३४७ के माघ मास में 'कन्नाणय' नगर में वाचना चार्य श्रीराजशेखर के पास रहते हुए चन्द्रनामक शेठ के पुत्र “फेरू" ने यह चौपाइ कही ।। २७ ।। सुरगिरि पंच दीव सव्वेवि, चंद सूर गह रिरक जि केवि रयणायर घर अविचल जाभ, संघु चउब्बिहु नंदउ ताम ॥ २८ ॥ मेरु पर्वत, पंचद्वीप, चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्रादि तथा समुद्र व पृथ्वी आदि जो कुछ भी जगत्के पदार्थ हैं वे सभी जहांतक अविचल रहे वहांतक चारों ही प्रकारका संघ समृद्धमान् रहो ॥ २८ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( झ ) जि-णपबोहगुरुरायचरणपंकयवरअलिबल, न-वविजियदयकरणु मयणगयसिंहमहाबलु, चं-दुज्जलु गुणविमलु कत्ति दसदिसिहि पसिद्धउ, द--वणु पणिदिय चउकसाय गुणगणिहि समिद्धउ । सू-रिंदु पणयप्पणजणसहिउ वंछिउ सुहियण निरु रनहु, रि-उमंतरंगमय अवहरणु पयपढमक्खरिगुरु सरहु ॥ १॥ इति जिन प्रबोध सूरि गुरुराज के चरण कमल में उत्तम भ्रमर समान बलबाले, नवविध जीवदयाके करने वाले, मदन रूप गजका भंजन करनेके लिये सिंह सदृश महा बलवान्, चन्द्र समान उज्ज्वल गुणोंसे विमल, कीर्तिसे दशों दिशाओं में प्रसिद्ध, पांच इन्द्रियोंका व चार कषायों का दमन करने वाले, गुणगणसे समृद्ध, सूर्य-चन्द्रसम प्रताप व सौम्यवान्, प्रणतात्म ( नम्रतासे शिष्यादि) जनोंसे सहित, सुखि (मित्र) जनोंसे वांछित, मदमानादि अन्तरंग शत्रओंको हटाने वाले, और इस षट्पदी वृत्तके प्रत्येक चरणके प्रथमाक्षर से जिनका नाम प्रगट होता है, उन गुरुदेव जिनचन्द्र सूरिजी को हे मनुष्यों ! निश्चित भावसे स्मरण करो ॥१॥ इति ॥ इति जुगप्रधानचतुष्पदिका समाप्ता । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए आ. कैलासनगर विज्ञान मंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा मा क. ..........+ 0000000000 poo 7480000. Je ge IV Fe Fe se 30 IR BI SE 32 ना Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70.000 J0000000000000 Re999994 र जय जय छर-जय-- जय जय --- जय जरजर ----- र र उर 27 CS2 For Private Personaluse only jainelibrary.org