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उन जीवों का ही होता है । अत: उनके दृश्यमान प्रकाश को होने पर विराधना संभवित है
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संदेह - दोलावली
अर्थात् अनिकाय के शरीर से दूर प्रभा प्रकाश नहीं होता सचेतन माना जाता है और इसीलिये अग्निकाय के स्पर्श अतः आलोचना करनी चाहिये ।
प्रश्न - आलोचना करते समय प्रायश्चित रूपसे श्रीगुरुमहाराज यदि सम्झाय करना जनावें तो वह समय हमेशा के नियम से होती है वह मानी जायगी ? या उस से अधिक सज्झाय-स्वाध्याय- पूर्व पठित अपठित पाठ-आगम- प्रकरण आदि पढ़ना चाहिये ?
मूल – पइदिवस सज्झाए, अभिग्ग हो जस्स सय सहरसाई ।
सो कम्मक्खयहेऊ, अहिगो आलोयणा भवे ॥४३॥
अर्थ - प्रतिदिन दो- हजार या अधिक श्लोंकों के स्वाध्याय को करने का जिसके अभिग्रह है, वह - कर्म क्षयका कारण ही है । परन्तु आलोचना में प्रायश्चित्त रूप से जो स्वाध्याय करना हो, वह सदा से अधिक होना चाहिये ।
प्रश्न - पांच तित्थियों में यदि एकासना आदि तपका नियम है । और वह तप होता भी है । परन्तु आलोचना के कराने पर यदि उस अभिगृहीत तप से कोई बडा तप करे । जैसे एकासने का अभिग्रह है और आलोचना का तप करता है अगर आयंबिल या उपवास कर लिया जाय तो वह तित्थि के अभिगृहीत तपमें गिना जायगा या आलोचना में ?
मूल - एग्गासणाइ पंचसु तिहीसु जस्सत्थि सो तवं गरुयं ।
कुइ इह निव्त्रियाई, पविसइ आलोयणाइ तवे ॥४४॥
अर्थ- द्वितीया - पंचमी - अष्ठमी एकादशी - चतुर्दशी इन पांच तिथियों में एकाशन आदि तप करने के जिसके नियम है । वह व्यक्ति अगर अपने अभिगृहीत तपसे अधिक तप नीवी आदि करता है तो वह तप आलोचना तपमें प्रविष्ट होता है । क्योंकि मानसिक परिणामों की प्रधानता मानी जाती है।
इस सम्बन्ध में अतिप्रसंग को रोकने के लिये बताते हैं
मूल - जइ तं तिहिभणियतवं अन्नत्यदिणे करिज्ज विहिसज्जा । अइण कुणइ जो सो गुरुतवो वि जं तिहि तपे पडइ ||४५||
अर्थ - यदि सुविहित विधिपालन में तत्पर महानुभाव उस तिथि निर्दिष्ट तप को दूसरे दिन करले, तो उपर वाली बात ( कि-गुरु तप आलोचना में जाता है - ) होती है ।
१ - इस सम्बन्ध का अधिक स्पष्टी करण इसके टीकाकार ने किया है जिज्ञासु टीका देखें । अनुः
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