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संदेह - दोलावली
अगर दूसरे दिन तिथितप को नहीं करता है तो वह बड़ा तप भी आलोचना में न जाकर तिथि तप रूप से ही माना जायगा ।
प्रश्न - आवश्यक चूर्णि में बताया है कि “सामायिक करता हुआ श्रावक मुकुटका त्यागकरे कुण्डलों को नाम मुद्रा को तंबोल को प्रावारक - वस्त्र आदि का त्याग करे" - सो सामायिक पोषध को ग्रहण करता हुआ गृहस्थ निष्प्रावरण रहे या कभी कुछ कपड़ा ग्रहण भी करे ? अगर ग्रहण भी करे तो कितने प्रावरणों को ग्रहण करे ?
मूल-उस्सग्गनयेणं सावगस्स परिहाणसाडगादवरं ।
कप्पइ पाउरणाई न सेसमवबायओ तिण्णि ॥ ४६ ॥
अर्थ - उत्सर्ग मार्ग से श्रावक को पहिनने की धोती से भिन्न अधिक कपड़ा नहीं कल्पता है । परन्तु अपबाद मार्ग से तीन कपड़े ओढने के लिये ले सकता है । क्योंकि सामायिक में श्रावक साधु के समान होता है ।
मूल एवं कयसामाइया वि साविगा पढमनयमएणेह |
कडिसाडग कंचुयमुत्तरिज वत्याणि धारेइ ||४७||
अर्थ - इसी तरह सामायिक करनेवाली श्राविका भी उत्सर्ग मार्ग से कटिशाटकलहेंगा कंचुकी और साडी ये तीन वस्त्र धारण कर सकती है ।
मूल - बीयपणं तिहुवरि तिहिं उ वत्थेर्हि पाउअंगी उ ।
सामाइयवयं पालइ तिपय परिहरइ पडिक्कमणे ॥४८॥
अर्थ - दूसरे - अपवाद मार्ग से लहेंगा – कंचुकी और साडी इन तीन वस्त्रों के उपर शीतताप निवारणार्थ ओढने के तीन अधिक वस्त्रों से ढके हुए अंगवाली सामायिक व्रत को श्राविका पालती है । परन्तु प्रतिक्रमण के समय त्रिपद - अपवाद सेवा को छोड देती है । मूल - जइ कंचुगाइ रहिया, गिण्हइ सामाइयं च सुमरिज्जा । तो पच्छा अंग करेइ गरहेइ पुव्वकयं ॥ ४९ ॥
अर्थ - यदि श्राविका कंचुकी से रहित भूल से सामायिक ग्रहण कर लेती है, और बाद में याद आता है, तो पीछे से भी अंग ढक लेना चाहिये । उस अवस्था में की हुई किया अविधि मानी जाती है इसलिये उस पूर्वकृत अविधि की गर्दा निंदा करे ।
मूल - एलामुत्याइगयं भिन्नं भिन्नं जलं भवे दव्वं । वण्णरसभेयओ जं, दव्वविभेओ वि समयमओ ॥ ५० ॥
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