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________________ उपदेश रसायन सावय वसहिं जेहिं किर ठावहिं साहुणि साहु तित्थु जइ आवहिं । भत्त वत्थ फासुय जल आसण वसहिं वि दिति य पावपणासण ॥६५॥ अर्थ श्रावक लोग जिन गांव नगरोंमें निवास करते हैं, वहां यदि साधु साध्वी विहार करते हुए आवं तो उनको प्रासुक आहार पानी वस्त्र पात्र आसन आदि देने चाहिये । एवं रहनेके लिये वसति-स्थान भी देना चाहिये जिनसे कि पापोंका नाश और धर्मका भला होता है ।। ६५ ॥ जइ ति वि कालच्चिय-गुणि वट्टहिं अप्पा पर वि धरहि विहिवट्टहिं । जिण-गुरुवेयावच्चु करेवउ इउ सिद्धतिउ वयणु सग्वउ ॥६६॥ अर्थ-- अगर वे साधु-साध्वी लोग भी कोलोचित गुणोंमें-संयम साधनामें वर्तमान हैं। आत्मा को और दूसरों को जो विधि मार्गमें स्थापित करते हैं, तो जिनदेव ओर गुरुओंकी वेयावच्च करनी चाहिये । इस सिद्धांत वचन को याद करना चाहिये ।। ६६ ।। घणमाणुसु कुडंवु निव्वाहइ धम्मवार पर हिउ वाहइ । तिणि सम्मत्त-जलंजलि दिन्नी तसु भवभमणि न मइ निम्विन्नी ॥६७॥ अर्थ-जो गृहस्थ बहु परिवारी कुटुंबका भलो भाती निर्वाह करता है और धर्मके मौके पर नीचे देखने लग जाता है वह सम्यक्त्व को जलाञ्जलि देता है, और माना जाता कि उककी बुद्धि भव भ्रमणसे खिन्न नहीं हुई ॥६॥ सधणु सजाइ जु ज्जि तसु भत्तुउ अन्नह सहिहिहि वि विरत्तउ । जे जिणसासणि हुति पवन्न सवि बंधव नेहपवन्ना ॥६८॥ अर्थ-जो श्रावक धन वालेकी एवं स्वजातीकी ही भक्ति करना है और दूसरे समान For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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