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उपदेश रसायन ___ श्रावकों को गृहस्थोचित शिक्षा बतातेहैं
अर्थ-जो श्रावक साधर्मिकोंसे कार्यवशात् द्रव्य लेते हैं। वापस देते नहीं और परस्पर झगतेड़ हैं। वे लोग विधि धर्मकी, लोगमें झगड़ते हुए वड़ी भारी खींसणा-निंदा को करबाते हैं॥ ६१॥
जिणपवयण-अपभावण वड्डी तर सम्मत्तह वत्त वि बुड्डी । जुत्तिहि देवदव्व तं भज्जइ
हुंतउं मग्गइ तो वि न दिज्जइ ॥२॥ अर्थ- कर्जदार का कर्ज न चुकाने पर और झगड़ने पर श्री जिनशासनकी महत्तों अप्रभवानर होती है फिर उस हालतमें सम्क्त्व की बात तो मानो डूब ही जाती है। ऐसा करने वाला श्रावक परंपरासे देव द्रव्यका नाश करने वाला होता है। क्योंकि श्रावकका धन कालांतरमें सात क्षेत्रों में लगता है । लेकिन कर्ज न चुकाने वैसा अवसर आने नहीं देता अत: वह देवद्रव्यका भञ्जकमाना जाता है। जो कि अपने पास धनके होने पर भी-कर्जदार का कर्ज नहीं चुकाता ।। ६२ ।
बेट्टा बेट्टी परिणाविज्ञहि ते वि समाणधम्म-घरि दिज्जहिं । बिसमधम्म-धरि जइ वीवाहइ
तो सम ( म्म ) त्तु सु निच्छइ वाहइ ॥६३॥ अर्थ-- गृहस्थ लोग बेटा बेटी समान कुल शील वालोंके साथ व्याहते हैं । श्रावकों को चाहिये कि समान धर्म वाले को लड़की दें। विषम-दूसरे धर्मवालेसे अगर विवाह किया जाता है तो उससे निश्चय करके सम्यक्त्वमें बाधा पहुंचती है ।।। ६३ ।।
थोडइ धणि संसारियकज्जइ साहिज्जइ सव्वइ सावज्जइ । विहिधम्मत्थि अत्थू विविज्जइ
जेण सुअप्पु निव्वुइ निज्जइ ॥६४॥ अर्थ-श्रावकों को चाहिये कि संसार संबंधी सारे सावध सपाप कार्य थोड़े धन को खर्च करके संपन्न करने चाहिये। विधि धर्म-जिन पूजा-संघपूजादि असावद्य-अपाप कार्यमें धन को अधिक खर्च करना चाहिये, जिससे कि आत्मा निवृत्ति मुक्तिमें पहुंचाया जा सके। ६४ ॥
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