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________________ ४० उपदेश रसायन धर्म सम्यक्त्व से भी विरक्ति रखता है । यह एकदम अयोग्य बात है । जो जिनशासन को मानते हैं वे सभी श्नेह पानमें बद्ध परस्पर में अविशेष भावसे भाई ही हैं । अत: समान धर्म वालोंमें भेदभाव करना सर्वथा वे ठीक है ॥ ६८ ॥ किव मुडह ? बुद्धह | तसु संमत्तु होइ जो नवि वयणि विलग्गइ तिन्नि चयारि छुत्तिदिण रक्खइ सज्जि सरावी लग्गइ लिक्खइ ||६९|| अर्थ - जो श्रावक साधार्मि बन्धुओंमें भेद भाव रखता है उस मुग्धात्मा के सम्यक्त्व कैसे हो सकता है ? जो तीर्थंकरदेव - गीतार्थ गुरु आदिके पुनित बचनों में मन को लगता ? वही श्राविका -श्राविकाओंकी गिनती में आने योग्य होतो है, जो पूरे तीन एवं चार दिन स्त्री की धर्म छूत को रखती है ॥ ६६ ॥ हुति यच्छुत्ति जल (पव) ट्टइ सेच्छइ सा घर-धम्मह आवइ निच्छइ । छुत्तिभग्ग घर छडई देवय सासणसर मिलहिं विहिसेवय ||७० || अर्थ - जो स्त्री रजस्वलाकी छूतके रहते हुए भी स्वेच्छा से घर काममें एवं धर्ममें लगी रहती है वह स्त्री निश्चय करके उस घर और धर्मके एक बड़ी भारी आपत्तिके समान हो जाती है । क्यों छूत को तोड़ने से घर को विधि धर्मके सेवक शासन देव छोड़ देते हैं और भूतप्रेतोंसे घर भर जाता है अतः घर भी नष्ट प्राय हो जाता है ॥ ७० ॥ पडिकमणइ वंदणइ आउल्ली चित्त करेइ अभुल्ली । मणह नवकारु विज्झायइ तासु मुहु समत्तु वि रायइ ॥ ७१ ॥ अर्थ - जो रजस्वला स्त्री प्रतिक्रमण में बंदन में सूद्ध अक्षरोंका उच्चारण नहीं करती है । असंदिग्ध भाव से चित्तमें ही धारण करती है । मनमें ही नवकर मंत्रका ध्यान भी करती है उनमें सम्यक्त्व भी सुन्दर रूपसे शोभता है ॥ ७१ ॥ सावउ मग्गइ सावयछिद तिणि सह जुज्झइ धणबलि वग्गइ । Jain Education International धरंति मज्झि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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