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________________ उपदेश रसायन अलिउ वि अप्पाणउं सच्चाबइ सो समत्तु न केमइ पावइ ॥७२॥ अर्थ-श्रावक-श्राविकाके छिद्रों को ढूढ़े, उसके साथ लड़े, धनबलसे राजदरवार चढ़े, झंठे भी आत्मा को सच्चा बनाने, बह सम्यक्त्व को किसी भी तरह नहीं पा सकता है ७२॥ विकियबयणु बुल्लइ नवि मिल्लइ पर पभणंतु वि सच्चउं पिल्लइ । अट्ठ मयट्ठाणिइिं वटुंतउ सो सदिहि न होइ न संतउ ॥ ७३ ॥ अर्थ-- जो गृहस्थ विकृत-गाली गलौज आदि दुर्वचनोंको ही बोलता है। सच बोलनेवाले को भी दूसरेको जो नहीं छोड़ता है, और पीड़ा पहुंचाता है । आठ मदस्थानको वर्त्तता हुआ वह सम्यकदृष्टि नहीं होता। कदाचित् हो जाता है तो सम्यक्त्व चिरस्थाई नहीं रहता । अथवा वह भले आदमियोंकी कोटिमें नहीं रहता ॥७३।। पर अणत्थि घल्लंतु न संकइ परधण-धणिय जु लेयण धंखइ । अहियपरिग्गह-पावपसत्तउ सो संभात्तिण दृरिण चत्तउ ॥७४॥ अर्थ- जो दूसरे को अनर्थमें डालते हुए शंका नहीं करता है। जो परधन और परस्त्रोको अपनानेकी इच्छा रखता है। जो अधिकतया परिग्रहको पापमें लगा रहता है। उसको सम्यक्त्व भी दूरसे ही त्याग देता है ॥४॥ जो सिद्धत्तियजुत्तिहिं नियधरु वाहि न जाणइ करइ विसंवरु । कु वि केणइ कसायपूरियमणु वसइ कुटुम्बि जं माणुसधणु ॥७५॥ अर्थ-जो गृहस्थ सैद्धान्तिक युक्तियोंसे-गृहस्थोचित गुणोंसे अपने घरको चलाना नहीं जानते, वे अपने गृहस्थ धर्मको विसंस्थुल-अमर्यादित-क्लेशमय बनादेते हैं। क्योंकि घनें मनुष्योंवाले कुटुम्बमें कोइ किसी कारणसे क्रोध मान-माया-लोभ इन कषायोंसे भर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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