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________________ उपदेश रसायन ४२ जाता है । अगर गृहपति ठीक हो तो उनको भी निभाता है और जीवन क्लेशमय नहीं होने देता है ||७|| तसु सरुवु मुणि अणुवत्तिज्जन् कु विदाणिण कु वि वयणिण लिज्जइ । कुवि भएण करि पाणु धरिज्जइ सगुणु जिहु सो पइ ठाविज्जइ ॥ ७६ ॥ अर्थ --गृही जिवनको सुखमय रखनेके लिये यह जरूरी है कि उन कुटुम्बियों के स्वरूपको भली-भाँती जानकर उनके साथ अनुवर्त्तन- व्यवहार करना चाहिये। किसीको कुछ देकर, किसीको कुछ वचन सुनाकर, किसीको कुछ भय दिखाकर, किसीको मर्यादित बलात्कार से भी शांत बनाना चाहिये । कुटुम्ब में जो अधिक गुणवान हों विवेकी हों उनको ज्येष्ठ पद पर यानि हरेक काम में लेने देने योग्य स्थापित करदेनां चाहिये | ||७६ || पत्तिज्जइ जुह धिट्ठह न य जो असत्तु तसुवरि दइ किज्जइ । लक्खाविज्जइ अप्पा परह न नप्पा विणु कारणि खाविज्जइ ॥७७॥ अर्थ - मूंठ बोलनेवाले और धीटे व्यक्तियोंका विश्वास नहीं करना चाहिये । जो असमर्थ हैं उनपर दया करनी चाहिये । शोकके कारणोंके उपस्थित हो जानेपर चेहरे पर वे भाव आने देने न चाहिये । बिना कारण बिना विशेष लाभके राजकर्मचारियोंसे संबन्ध नहीं रखना चाहिये। क्योंकि ऐसे सम्बन्धो के साथ काफी प्रपंच बढ़ जाते हैं ॥७७॥ माय-पियर ज धम्मि विभिन्ना ति वि अणुवित्तिय हुति ति धन्ना । जे किर हुति दीहसंसारिय ते बल्लंत न ठंति निवारिय ||७८ || अर्थ - जो माता पिता अन्य धर्मको मानते हैं, यदि वे विधि मार्ग के अभिमुख ही जांय तो धन्य हैं । यदि कदाचित् दीर्घ संसारी भावके कारण विधिमार्गसे विपरीत बातें बोलते हुए रोकने पर भी नहीं रुकते हैं तो उनपर क्रोध नहीं लाना चाहिये || ७ || ताहि विकीरइ इह भोयण - वत्थ-पयाण Jain Education International अणुवत्तण पयत्तिण | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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