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________________ ___ संदेह-दोलावली मूल-भुग्गानि विरूढाणि य हुँति अचिताणितह विरुहनियमो । ताणिन फुक्खइ तह फुटकक्कडी असइ न हु साहु ॥६१॥ अर्थ - भुंजे हुए विरूहक धान्य अचित्त ही होते हैं फिर भी विरूहक धान्य तु खाने का व्रती उसको न खावे। सचित्त व्रती प्रवृत्ति दोषमय से न खावे । प्रश्न-अति पकी ककडी फुट सचित्त नहीं कही जाती किन्तु बीजवालो होने से सचित्त प्रतिबद्ध होती है-उसमें से यदि बीज हटा दिये जाय तो। सचित्त का त्यागी श्रावक उसे खावे या न खावे ? ___ उत्तर-अतिपकी ककडी-फुट फटी हुई होने से उसमें सर्प आदि के गरल-विष की संभावना हो सकती है इस लिये साधु भी न खाय तो श्रावकका तो कहना ही क्या ! प्रश्न--फटी हुई ककडी फुट तो कोई ही होती है। सबमें विषकी संभावना नहीं होती तो सभी का निषध क्यों किया जाता है ? मूल-जइ वायगणपमुहं पि तीमणं सया अचित्तमपि न जई । हिण्हइ पवित्ति दोसं सम्मं परिहरिलं इच्छन्तो ॥६॥ अर्थ-यद्यपि बैंगन आदि का बनाया हुआ साग अचित्त ही होता है फिर भी साधु प्रवृत्ति दोष को भली प्रकार से त्यागने की इच्छा से ग्रहण नहीं करता है। उसी तरह फुटककडो अचित्त होने पर भी सचित्त त्याग। श्रावक प्रवृत्ति निषेधार्थ ग्रहण नहीं करते। प्रश्न-जिस नागरमोथ आदि द्रव्य से एक दिन में जल को अचित्त किया उसी द्रव्य से दूसरे दिन भी यदि अचित्त किया जाय तो वह जल छठ-अठ्ठम आदिके पच्चक्खाण करने वाले श्रावक को पीना कल्पता है या नहीं? चतुर्थभक्त- एक उपवास के जैसे छठ अट्ठम में भी एक ही द्रव्य मोकला रखा होने से। ___मूल-जीए मुत्थाइकयं अज्जेव जलं तु फासुगं तीए । कल्लेव कीरइ जइ तमेगदव्वं न संदेहो ॥६३॥ अर्थ-१ जिस मुस्ता-नागर मोथ आदि उत्कट वर्ण गंध रसान्यतर गुणवाले द्रव्य से किया हुआ प्रासुक जल आजके उपवासी को कल्पता है। उसी मुस्ता आदि द्रव्यसे कल-परसों भी यदि जल को प्रासुक किया जाय तो वह एक ही द्रव्य माना जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं। जुदे २ घडों में भी एक द्रव्य से प्रासुक किया हुआ जल भी एक ही द्रव्य माना जाता है। नोट १-इस श्लोक की टीका में उकासे हुए पानी के जैसे ही त्रिफला आदि से प्रासुक किये पानी का उपयोग तर्क संगत एवं आगम संगत लगाया है। बड़ी लम्बो चर्चा में श्रावक को उकाला हुआ पानी ही प्रत्याख्यान में पीना चाहिए. ऐसे एकान्त पक्षका खण्डन किया गया है। वर्तमान में गरमपानी का जितना प्रचार हुआ है उतनी ही साधु विहार में विकटता पैदा हो गई है। विद्वान् लोग इस श्लोक की टोका को पढ़कर प्रासुक जान विधि का प्रचार करें तो विहार की एक बड़ी बाधापार हो सकती है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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