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संदेह-दोलावली पढ़मगुणठाणे जे जीवा, चिठ्ठति तेसिं सो पढमो ।
होइ इह दव्वधम्मो, अविसुद्धो वीयनामेणं ॥१०॥ अर्थ-पहिले मिथ्यत्वगुणस्थानकमें जो जीव रहते हैं, और वे जो अनुष्ठानक्रिया करते हैं, उनको वह पहिला द्रव्यधर्म अविशुद्ध इस दूसरे नाम वाला होता है । अर्थात् मिथ्यात्वीयों का आचरण अविशुद्ध नामका द्रव्य धर्म है।
अविरयगुणठाणईसु, जेय ठिया तेसिं भावओ बीओ। तेण जुआ ते जीया, हुंति सबीआ अओ सुह्रो ॥११॥ पढमंमि आउबंधो, दुकरकिरियाओ होइ देवेसु ।
तत्तो वहुदुखपरंपराओ, नरतिरियजाईसु ॥१२॥
अर्थ-अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान आदिमें जो रहे हुए हैं उनका शुभ अनुष्ठानधर्म-दसरा भाव धर्म है । उससे संपन्न जो जीव होते हैं वे बोधिजीज करके सहित होते है अत: यह दूसरा शुद्ध भावधर्म है। अर्थात् पहिला साधुओंका शुद्ध भावधर्म दूसरा गृहस्थों का शुद्ध भाव धर्म ।।
अर्थ-पहिले द्रव्यधर्मके के अधिकारी दुष्कर-कठोर क्रिया का आचरण करके देव संबंधी आयुष्य का बंध करके देवता में पैदा होते हैं। बाद में विषयभोगकी तल्लीनता के कारण नर नियं च आदि दुर्गतियों में बहुत दुःख परंपराओं को भोगते हैं ऐसे जोवोंके लिये ही कहा जाता है -राजेसरी नरकेसरी”। मूल-बीएविमाणवज्जो आउयबंधो न विज्जाए पायं ।
सुखित्तकुले नरजम्म, सिवगमो होइ अचिरेण ॥ १३॥ अर्थ-दूसरे भावधर्म के अधिकारी के वैभानिक देवों के सिवाय नीच जाती के देवता तक का आयुष्य प्रायः करके नहीं बंध होता। भाव धर्माधिकारी जीव वैमानिक देव होकर सुक्षेत्र और सुकुल में मनुष्यजन्म प्राप्त कर झटपट मोक्षगामी होता है । मूल-पाणिवहाई पावट्ठाणाणटारसेव जं हुति ।
होइ अहम्मो य तेसु पवट्टमाणस्स जीवरस ॥१४॥ अर्थ-प्राणीवध-हिंसा आदि पापके अठारह स्थानक जिसके करने से होते हैं। उन कामों में प्रवृत्ति मान जीवको अधर्म होता है। मल-तत्तो तिरियनरयगई, अह रुदं च दुन्निज्झाणाई।
__ सग्गापवग्गा-सुहसंगमो कहं तस्स सुमिणे वि ॥१५॥
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