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संदेह - दोलावली
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अर्थ
- उन पापस्थानों के सेवनसे हुए अधर्म से तिथंच गति और नरक गति होती है । उनमें भी आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दोनों दुर्ध्यान बने रहते हैं । इस हालत में उस अधर्म का आचरण करने वाले को स्वप्न में भी स्वर्ग और मोक्षसुखका संगम कैसे प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ।
मूल - तम्हा कयसुकयाणं सुगुरुणं दंसणं फुडं होइ ।
कत्तो निष्पुण्णाणं गिहम्मि कप्पदुमुप्पत्ति ॥ १६ ॥
अर्थ - इसलिये किया है सुकृत- पुण्य जिनने ऐसे पुण्यवंतों को श्रीसद्गुरु महाराज के दर्शन प्रत्यक्ष में प्राप्त होते हैं । यह भी ठीक ही है कि निष्पुण्य-भाग्यहीन आदमी के घर कत्पद्रुम की उत्पत्ति कहां से हो ।
मूल - भवा वि केइ नियकम्मपयडिपडिकुलयाइ संभूया ।
जत्थ सुसाहुविहारो संभइ न सिद्धिसुक्खकरो ||१७||
अर्थ - कितनेक भव्यात्मा भी अपने कर्मों की प्रकृतियों की प्रतिकूलता से वहां पैदा होते हैं, जहां सिद्धिसुख को करनेवाला सुसाधुओं का बिहार ( असंयम क्षेत्र की प्रधानता के कारण ) नहीं होता ।
मूल - पयईए ऽवि हु तेसिं, सद्धम्मपसाहणुज्जयमणाणं ।
सुगुरुणं अदंसणओं, संदेहसयाणि जायंति ॥ १८ ॥
अर्थ-स्वभाव से ही सधर्म की साधना में उत्कण्ठित होनेवाले उन भव्यात्माओं के दिल में श्रीसद्गुरु महाराज के अदर्शन ( संसर्ग ) से सैकड़ों संदेह पैदा होते हैं । मल-ते सन्देहा सव्वे गुरुणा विहरंति जत्थ गीयत्था ।
गंतु पुठ्ठव्वा तत्थ इहरहो होय मिच्छत्तं ॥ १९॥
अर्थ - उन सभी संदेहों को जहाँ श्रीसद्गुरु महाराज विचरते हैं वहां जाकर पूछ लेने चाहिये | अन्यथा अतत्त्वश्रद्रानरूप मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है ।
मूल - संसइयमिह चउत्थं, निस्सन्देहाण होय सम्मत्तं । जुगपवरागमगुरु, लिहिय वयणदंसणसुईहिंते ॥ २० ॥
अर्थ – सन्देह के निवारण न होने पर सांसायिक नामका चौथा भिथ्यात्व होता है । इसी प्रकार जिनके संदेह मिट जाते हैं उन निस्सन्देह भाव वालों को निर्मल सम्यक्त्व पैदा होता है | युगप्रधानबोधवाले गुरुमहाराजाओं के लिखे हुए वचनों को सिद्धान्तोंका वेक दृष्टि से देखने एवं सुनने से सन्देह नष्ट होते हैं ।
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