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________________ चैत्यवन्दन-कुलकम् अर्थ- संवेगी एवं गीतार्थ ऐसे श्री सद्गुरु महाराज को परतंत्रता के साथ और उन्हीं की सेवा में तत्परता के साथ सदैव श्रीतीर्थंकरदेव-गणधर-युगप्रधान आचार्य महाराज आदि के-विषय में भक्ति बहुमान करना चाहिये । एवं उन्हीं के पास श्रीजिनागम में फरमाई हुई आवश्यक- चैत्यवंदन - स्वाध्याय - अपूर्व पठन-सद्ध्यान-साधर्मिक वात्स--- ल्यादि-विधि से जिन भव्य जीवोंके सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। उन्हीं भव्यत्माओंके परम पद मोक्ष पद के निवास हेतु, अनंत ज्ञान अनंत दर्शन अनन्त सुख, अनंत वीर्य और अनंत सम्यक्त्व इन पांच अनन्तों को पैदा करने वाले, एवं समस्त क्लेशों का दुःखोंका अन्त करने में समर्थ ऐसे भाव से सुवास- अर्थात् सद्गुरु महाराज के डाले हुए-भाव वासक्षेप होते हैं ॥३-४-॥ मूल-आययणमनिस्सकडं, विधिचेइयमिह तिहा सिवकरं तु । उस्सग्गओववाया, पासत्थोसन्नसन्निकयं ॥५॥ आययणं निस्सकडं, पव्वतिहीच कारणे गमणं । इयराभावे तस्सत्ति, भाववुडित्थमोसरणं ॥६॥ अर्थ-जिस से सम्यग दर्शन-ज्ञान- चारित्रादि गुणों का लाभ होता है। अथवा जहाँ साधु नहीं रहते हैं उसको आयतन कहते है। वह भी जाती-ज्ञाती आदि के ममत्व से रहित हो तो अनिश्राकृत माना जाता है । जिस में श्रीजैनागम प्रणीत गीतार्थ गुरु प्रदर्शित विधि आचरित किया जाता है उसको विधि चैत्य कहते हैं। इस प्रकार तीन विशेषणों से विशिष्ट देव मन्दिर शिव मोक्ष को करने वाला निश्चय से होता है । अतः सम्यक्त्व संपन्न भव्यात्मा श्रावोंकों को वहां सदैव जाना चाहिये । यह उत्सर्ग मार्ग-राज मार्ग है। पार्श्वस्थ और अवसन्न शिथिलाचारी साध्वाभांसों के नाम जीन भक्तों द्वारा बनाये हुए मंदिर में जहां की साधु वेष धारी नहीं रहते हैं । केवल उनकी देख रेख में जिसका हिसाब किताब चलता है-जिसको सूत्रकार निश्राकृत आयतन -- मंदिर मानते हैं-उसमें अपवाद से पर्व तिथियों में और कारण उपस्थित होने पर जाना चाहिये। हमेशा नहीं । आयतन--अनिश्राकृत विधि-चैत्यके अभाव में उन श्रावकों की भावबृद्धि के लिये सविहित साधुओं को उस में जाकर व्याख्यान करना चाहिये ।।५-६॥ १---सुगुरुणसंपयओ पारततं इह विणिद्दि । तेसिं परतंतेहिं, अणुछाणं होइ कायव्वं ॥ २--विसओ पुण तित्थयरा आयरिया गणहरा जुगप्पवरा । आणासायणाय भत्तो बहुमाणो होइ कायव्वो ॥ ३---आवस्सयचिइबंदण, सज्ज्ञायाप्यपढणसज्झाणं । साहाम्मिय-वच्छल्लं, एवमाई विही भणिओ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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