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________________ श्री श्री १०८ श्री मज्जिनदत्त सूरीश्वर विरचितम् ॥ चैत्यवन्दन कुलकम् ॥ अपर नाम सम्यक्त्त्वारोप प्रकरणम् ।। मूल-नमिऊणमणंतगुणं, चउवयणं जिणवरं महावीरं । पडिवन्न-दसणाणं, सरुवमिह कित्तइस्सोमि ॥१॥ अथ-अनन्त गुण वाले समवसरण में चार मुख वाले एवं दान शील तप भाव रूप चार वचनो से-भेदों से धर्म को बताने वाले,राग द्वष जीतने वाले, जिन-सामान्य केवलि योंमें प्रधान-जिनेश्वर श्रीमहावीर देव को नमस्कार करके प्राप्त किया है दर्शन-सम्यक्त्व जिनने ऐसे श्रावकों को स्वरूप यहां-इस प्रकरणमें मैं वताउँगा ॥१॥ मूल-तिविहा य हुंति वासा, दुविहा ते हुंति दव्वभावेहिं । दव्वम्मि दुविहा ते वि हु, गासपवाहेसु विन्नेया ॥२॥ अर्थ-ब्रतधारि श्रावक अपने लिये गुरु बनाते समय तीन प्रकार से वासक्षेप गुरु महाराज से लिया करते हैं। उनमें मुख्यतया द्रव्य से और भावसे ये दो भेद होते हैं। द्रव्य में भी दो प्रकारसे लिया जाता है। उन गुरुका वासक्षेप हमारे धनधान्य को चढावेगा इस भाव से लिया हुआ वासक्षेप-ग्रास वासक्षेप माना जाता है । और विना शोचे समझे सभी लेते हैं, अत: मै भी लेल । यह प्रवाह वासक्षेप है । ये दोनों द्रव्य वासक्षेप के भेद हैं ॥२॥ मूल-भावंमि य सुहगुरुपारतंतवसओ, सया वि विसयंमि । विहिणा जिणागमुत्तेण, जेसिं सम्मत्त-पडिवत्ती ॥३॥ तेसु सुवासा ते हंति, परमपयवासहेऊणो जेण । जणियाणंतप्पणगा, सयलकिलेसंतकरणखमा ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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