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________________ संदेह - दोलावली जब तक कि उसमें जल नहीं पडता है । करने पर वह घोल नहीं कल्पता है । मूल - जइ मंडियाइ जोगो पायकओ कोवि होइ गुडचुण्णो । उव्वरइ सो विनियमा गुडविगई होइ अनुवहत ॥ ५४ ॥ जल के गिरने पर भी निविगय का पञ्चखाण अर्थ - यदि मंडिका - पक्वान विशेष सेवैया लड्डु, कसार आदि खाद्य पदार्थो की लिये गुड़ सम्बन्धी कोई पात ( चासनी ) होती है वह नियम से गुड़ विगई ही अनुपहत भाव से बनी रहती है । जैसा कि 'प्रवचन सारोद्धार' में कहा है: अद्ध वढ़िते क्खुरसो गुडपाणीयं च सकरा खंड पायगुलं गुलविगई विगइगयाई तु पंचेवन्ति ॥ ७७ मूल - सव्वाइं पुष्फलाई पुष्फल मेगं दव्वं जब वह पात मंडिकादि खाद्य द्रव्यों से संबंधित की जाती है । तब वह गुड विकृति नहीं रहती । है । प्रश्न - पहले कहा गया है कि वर्ण, रस भेद से एक द्रव्य के भी कई भेद वन जाते हैं तो नाना जाति के रूप से अनेक देशोत्पन्न रूपसे नया पुराना आदि भेद से जुदे जुदे वर्ण रसवाले सुपारी आदि द्रव्यों में अनेक द्रव्यता का प्रसंग उपस्थित होगा और इसका प्रकार उपभोग व्रत में द्रव्य संख्या का अतिक्रम क्या नहीं होता ? ऐसे द्रव्योंको सदा ही एक दिन में कई वार भोगे जाते हैं । विवाहादि उत्सवों में तो कहना ही क्या ? नाणाविह जाइरस विभिन्नाई । उवभोगवयम्मि विन्नेयं ॥५५॥ Jain Education International अथवा सुंठ आदि से मिलाई जाती अर्थ -- उपभोग द्रव्य परिमाण व्रत में नाना प्रकार की जाती, रस विभिन्न पुप्फलादि-सुपारी आदि सभी द्रव्य अपनी अपनी जाती में सुपारी आदि एक द्रव्य रूपसे जानना चाहिये । प्रश्न – अनेक जाति रस वाले पुगीफल - सुपारियों को ही एक द्रव्य से मानना चाहिये या दूसरे द्रव्यों को भी ? - मूल- एवं जलकणघय तिल्ललोण विभिन्नाई विविहजाइगयं । एगं दव्वं परिगह पमाणवयगहियगणणा ॥ ५६ ॥ अर्थ - इसप्रकार सुपारी के जैसे नानाप्रकार का जात, धन्य-कण, घी तेल नमक आदि अनेक देशोत्पन्न असमान वर्ण रस वाले जुदे जुदे होने पर भी परिग्रह परिमाण व्रत की गिनती में अनेक रूप जात्याहित एक द्रव्य रूप से मानना चाहिये। जैसे आकाशका भूमिका नदोका जल भिन्न भिन्न होने पर एक जल द्रव्य रूप से स्वकारना चाहिये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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