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________________ चैत्यवन्दन-कुलकम् देना चाहिये। उन' उत्सूत्राचारियों के दर्शन करने-देखने से भी प्रायश्चित्त लगता है॥११-१२॥ मूल-धम्मत्थमन्नतित्थे, न करे तवन्हाण-दाण-होमाई । ____ चियवंदणं निकालं, सक्कथएणवि सया काहं ॥१३॥ अर्थ-अन्य तीर्थों में धर्म के लिये तप-स्नान-दान-होम आदि न करे एवं सम्यक्त्व लिये बाद ऐसा अभिग्रह रखे कि-मैं हमेशा ही शक्रस्तव-नमुत्थुणं पाठ से त्रिकाल चैत्यवन्दन करूंगा ॥१३॥ मूल-संपुन्नं चियवंदण, दोवाराओ करेमि छमासं । अट्ठसयं परमिट्ठीण, सायरं तह गुणिस्यामि ॥१४॥ अर्थ सम्यक्त्व स्वीकार के बाद छह महीने तक संपूर्ण चैत्यवंदन करूंगा। एवं १०८ वार परमेष्ठिमंत्र श्रीनवकार मंत्रका जप करूंगा ॥१४॥ मूल-जावज्जीवं चउवीसं, उद्दिट्टटुंमि चउद्दसीसं च । पॅनिम वीयएगारसि, पंचमि दोकासणाइ तवं ॥१५॥ १-उत्सूत्रभासगा जे ते दुक्करकारगावि सच्छंदा । ताणं न दंसणं पि हु, कप्पइ कप्पे जओ भणियं ॥१॥ कठ्ठ करंति अप्पं दमित, दव्वं वयंति धम्मत्थी । इक्क न चयहिं उस्सुत्तं-विसलवं जे बुट्ठति ॥२॥ उस्सुत्तदे सणाए चरणं नासिति जिणवरिंदाणं ।। वावन्नदंसणा खलु न हु लब्भा तारिसा दठ्ठ् ॥३॥ पयमक्खरं पि इक्कं जो, न रोवेइ सुत्त निदिठ्ठ। सेसं रोवंतो वि हु, मिच्छदिछी जमालिव्व ॥४॥ (भावार्थ) दुष्कर क्रिया करने वाले भी जो स्वेच्छाचारी उत्सूत्र भाषक हैं उनका दर्शन नहीं करना चाहिये। ऐसा कल्प में फरमाया है। आगमों की एक बात भी नहीं मानता हुआ जमाली के जैसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है। २- नवकारेण जहन्ना, दंडग थुइ जमलन्भिमा नेया । संपुन्ना उक्की सा, विहि जुत्ता बंदणा होई ॥१॥ अर्थात सिद्धात में पूर्वधरों ने तीन प्रकार से चैत्यवंदना वताई है। नमस्कार से जघन्य, दण्डक स्तुति आदि से मध्यम, और सम्पूर्ण विधि से युक्त उत्कृष्ट चैत्यवन्दना होती है। इस सम्बन्ध में विशेष विधि देववन्दन भाष्य आदिसे जानना चाहिये ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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