________________
चैत्यवन्दन-कुलकम् मूल-जत्थ वसंति मढाइसु, चियदबनियोगनिम्मिएसु च ।
साहम्मिणो त्ति लिंगेण, सा थली इय पकप्पुत्तं ॥९॥ तमाणाययणं फुडमविहिचेइयं, तत्थ गमण पडिसेहो ।
आवस्सयाइ सुत्ते, विहिओ सुसाहु-सढाणं ॥१०॥ अर्थ-जहाँ चैत्यद्रव्य-देवद्रव्य के उपयोग से बने हुए मठ-उपाश्रय आदि में लिंगसे-वेशसे साधर्मिक साध्वाभास रहते हैं उसको-साधर्मिक स्थली श्रीनिशीथ सूत्र में बताई है । जैसे थली को नमस्कार आदि निष्फल होता है ठीक वैसे ही द्रव्यलिंगी साध्वाभासों से परिगृहीत चैत्यप्रतिमादि वन्दनभी निष्फल होता है। वह स्पष्ट रूप से अनायतन अविधि चैत्य होता है। वहीं जानेके लियेभी आवश्वयक आदि सूत्रों में सुविहित साधु और तदनुयायी श्रावकों को निषेध किया गया है ॥४-१०॥ मूल-जो उस्सुत्तं भासइ, सदहइ करेइ कारवे अन्नं ।
अणुमन्नइ कीरंतं, मनसा वायाए काएणं ॥११॥ मिच्छदिट्ठी नियमा, सो सुविहियसाहुसावएहिं पी।
परिहरणिज्जो जईसणे वि, तरसेह पच्छित्तं ॥१२॥ अर्थ-जो व्यक्ति साधु या श्रावक उत्सुत्र बोलता है । वैसी श्रद्धा रखता है और वैसे ही आचरण करता है, दूसरों से भी वैसे ही आचरण करवाता है एवं कराते हुए उत्सूत्र मूलक आचरण का मन वचन और काया से अनुमोदन करता है, वह व्यक्ति नियम से-निश्चय करके मिथ्यादृष्टि होता है। सुविहित-आगमानुसारी आचरण करने वाले साधु एवं श्रावकों को उन उत्सूत्र आचरण वाले व्यक्ति का दूर से ही परिहार-त्याग कर
१-अत एव श्रीआशापल्या पूर्व सैद्धान्तिक चक्र चूड़ामणिभिर्वादोन्द्रद्विपद ( द्वीप ) घटा विद्रावण केसरिभिनिश्छद्र शुद्धक्रियाकारिभिः श्रीजिनपतिसूरिभिः श्रीप्रद्युम्नसूरिभिः सहायतनानायतनवाद कुमर्वाणैः सकलान्याचार्यचक्रप्रत्यक्षं औघनियुक्त्यादि सिद्धानुसारेण सविस्तरमायतनं संस्थाप्यानायतनं निराचक्रे, अतो अनायतन परिहारे सर्वसाधुभिः सम्यग्दृष्टि श्रावकैश्च यतितव्यम् । इति टीकाकारः
अर्थात् आशापल्ली में सैद्धान्तिकचूड़ामणि श्रीजिनपतिसूरीश्वरजी ने श्रीप्रद्युम्नसूरि जी के साथ आयतन अनायतन के संबंध में औघनियुक्त्यादि आगमों के अनुसार आयतन को स्थापित कर अनायतन का निराकरण किया था। यह इतिहास पट्टावली में भी मिलता है।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org