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________________ कालस्वरूपकुलकम् तं पि बहुत्तु होइ जइ पुन्निहि जित्थु गुरुत्तु सुणिज्जइ कंनिहि ॥१५॥ अर्थ-जिस नर जन्ममें आयुष्य संक्षिप्त-थोड़ा हो, उसमें श्री जिनेश्वर देवों द्वारा फरमाये हुए ज्ञानदर्शन चारित्र आदि कार्यों की साधना नहीं हो सकती। उस जन्मसे भी क्या ? हां यदि वह आयुष्य पुन्यसे बडा हो, और उसमें सद्गुरुके फरमाये उपदेश कानोंसे सुने जाय ।।१५।। । सदहाणु तव्वयणु सुगंतह विरला कसु वि होइ गुणवंतह । पढ़हिं गुणहिं सिद्धेतु बहुत्तइ सदहाणु पर नत्थि जिणोत्तइ ॥१६॥ अथे... श्री सद्गुरुके उपदेशको सुनते हुए भी किसी विरले गुणवानको ही उसपर दृढ श्रद्धा होती है । वहुत लोग ऐसे हैं जो पढते हैं, गुणते हैं, परन्तु श्री वचनोंमें उनकी श्रद्धा नहीं होती ॥१६॥ अविहि पयट्टहि विहिपरु दूसहि पडिउ पवाहि लोउ सु पसंसहि । अणुसोयह पडिसोयह अंतरु न कुणहि खवणय जेव निरंतर ॥१७॥ अर्थ --- अविधिसे प्रवृत्ति करते हैं। विधि करने वालोंको दूषित करते हैं। प्रवाह पतित लोगोंकी प्रशंसा करते हैं। अनुश्रोत और प्रतिश्रोतका भेद नहीं करते हैं। किन्तु क्षपणक के-नंग्गंके जैसे विशेषताके अभावको करते है अर्थात् सबको एक भाव समझते हैं ॥१४॥ करिवि जिणोत्ति धम्मि जण लग्गा दुरिणी जंति सुगुरु सुइभग्गा । विहिपह-~-पक्खइ जिणु मुणि वंदहि तं मग्गट्ठिउ जणु अहिणंदहि ॥१८॥ अर्थ- कई मन्दबुद्धिवाले अविधि क्रियाको भो यह जिनोक्त धर्म है ऐसा करके उसमें लगते हैं। सद्गुरुके उपदेश श्रवणसे दूर भागते हैं। विधि पक्षको छोड़ अविधि चैत्य और अविधि प्रवर्तक नामधारी मुनियों को वंदते हैं। एवं अविधिमार्ग स्थित लोगोंका अभिनंदन करते हैं ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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