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संदेह-दोलावली उद्दिठ्ठा-अमवस्सा इति । एवं सूत्र कृतांगसूत्र को वृत्ति में चाउद्दसट्टमुहिठ-पुण्णमासिणीसु-इत्यादि की व्याख्या में श्रीशोलांकाचार्य जी महाराज ने-उद्दिष्टासु महा कल्याणिक सम्बन्धि तया पुण्य तिथित्वेन प्रत्याख्यातासु इति-अर्थात् उद्दिष्ट शब्द से कल्याणक वा पुण्य हिथियों को बताया है।
प्रश्न - अष्टमी चतुई सी आदि पर्व तिथियों में और महाकल्याणकों में एकासन आदि तप करने का नियम लिया हुआ हो । और अष्टमी आदि तिथियों का महाकल्याणक से सम्बन्ध हो जाय तो तिथियों का -- एवं कल्याणक सम्वन्धी तप कैसे करना चाहिये ? मूल-जइ कहवि अठ्ठमी, चउद्दसीय तत्थविय होइ वयजोगो ।
क्यदद्देणं भण्णइ नियमो कल्लाणमाइओ ॥३९॥ मूल-तस्संजोगा जो कोवि गुरुतरो निम्वियाइओ नियमो ।
सो कायव्वो जं निव्वियंति एकासणा गरुयं ॥४०॥ अर्थ-यदि किसी प्रकार से अष्टमी चतुर्दशों आदि पर्व तिथियों में ही वृत योग होता है। व्रत शब्द से कल्याणक आदि में कराता हुआ नियय कहा जाता है तो पर्व तिथियों में उसके संयोग से एकासन आदि तप करने वाले को निविगयआदि गुरुतर बड़ा नियम करना चाहिये । अर्थात्- एकासन वाले को नीवी, नीवी वाले को आयंविल और आयंविल वाले को उपवास करना चाहिये । क्यों कि एकासने से नीवी बड़ी होती है।
प्रश्न-सामायिक लेकर प्रतिक्रमणादि करते हुए विजलीका-कच्चे पानी आदिका संघट्टा हो । उस विराधना शुद्रिके लिये-"तेउकाय-अपकाय के बहुत संघटे हुए"-ऐसे सामान्य कथन से आलोचना "इतने छोटे संघट्ट हुए इतने बड़े-ऐमा विशेष खयाल रख कर आलोचना करे ? __ मूल-पडिक्कमणं च कुणंता, विजुपईवाइएहिं जइ कहवि ।
वारा दो चउ फुसिओ, तो बहु फुसिओ त्ति आलोए ॥४१॥ अर्थ--प्रतिक्रमण एवं पठन पाठानादि करते हुए सामायिक में किसी भी कारण से विजली-दीपक-बर्षादके छींटे आदि से यदि दो तीन चार बार संघट्टा हो जाय तो-“आज सामायिक में मेरे बहुत संघट्ट हुए"---ऐसा ध्यान रखकर आलोचना करे। सद्गुरु महाराज से सादर दिवेदन करे।
__ आलोचना की विशेषता बताते हैं - मूल--जइ कोवि होइ दक्खो, ता जावइयाणि हुंति फुसणाणि ।
तावइयाणि गणिज्जा, अतिमुडो जो बहुं भणइ ॥४२॥
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