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चर्चरो जे पडिसोय पयट्टहि अप्प वि जिय धरह,
अवसय सामिय हुँति ति निब्वुइपुरवरह, ॥३१॥ अर्थ- संसारमें अनुश्रोत -- लोक प्रवाहके अनुकूल-सुखशीत प्रवृत्तिवालोंकी कोई गिनती भी नहीं करता है। सुखशीलिये लोग भवसागरमें पड़ते हैं, एक भी पार नहीं उतरता। जो लोक प्रवाहके प्रतिश्रोत-प्रतिकूल अध्यात्म मार्गमें प्रवृत्त होते हैं वे निश्चय हो मुक्तिपुरीके स्वामी हो जाते हैं ॥ ३ ॥
जं आगम-आयरणिहिं सहुँ न विसंवयइ, भणहि त वयणु निरुत्तु न सग्गुण जं चयइ । ते वसंति गिहिगेहि वि होइ तमाययण,
गइहि तित्थु लहु लब्भइ मुत्तिउ सुहरयणु ॥३२॥ अर्थ-आगम और आचरणके साथ विसंवास विपरीतता नहीं रखता ऐसे और निश्चित रूपसे सद्गुण जिसको नहीं छोड़ते ऐसे वचनको जो बोलते हैं । ऐसे वे साधु गृहस्थके जिस घरमें रहते हैं वह स्थान भी आयतन-ज्ञानादि लाभको बढ़ानेवाला होता है। वहाँ जानेसे मुक्तिके सुखरत्नको झट्ट पाया जाता है। ३२।
विधि चैत्य जो कि अनिश्राकृत होता है उसीके प्रसंगसे निश्राकृत चैत्यादिके स्वरूपको बताते हैं
पासत्थाइविबोहिय केइ जि सावयइं, कारावहि जिणमंदिरु तंमइभावियइं । तं किर निस्साचेइउ अववायिण भणिउ,
तिहि-पविहि तहि कीरइ वंदणु कारणिउ ॥३३॥ अर्थ-पासत्थादिकों द्वारा प्रतिबोधित कितनेक श्रावक तन्मत भावित चित्तवाले होकर श्रीजिनमंदिरको बताते हैं, उस चैत्यको अपवादसे निश्रा चैत्य कहा गया है। पर्व तिथि अष्टमी चतुर्दशी आदिमें एवं पर्यषणादि पर्वोमें वहां कारणसे बन्दन किया जा सकता है अनिश्राकृत चैत्यके अभावमें । ३३ । अनायतन बतानेकी इच्छावाले निशीथ सूत्रके प्रकारसे बताते हैं
जहि लिंगिय जिणमंदिरि जिणदविण कयइं, मढि वसंति आसायण करहिं महंतियइ ।
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