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________________ चर्चरी अर्थ-हे भव्यात्मजनों ? पुण्य हीनजनो को दुर्लभ ऐसे श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरके उन पुनीत गुणों का अन्त में नहीं जानता हूं। परन्तु सद्गुण संक्रमणसे ऊनकी दया से ही यह भी मैंने जाना है कि श्रीयुगप्रधान आगमवाले गुरुदेवने मुझको शुद्ध-निष्पाप आगमोक्त आज्ञा पालन रूप धर्ममें (विधि मार्गमें ) स्थापित किया गया हूं ॥४॥ स्तुतिकी समाप्तिमें कर्ता अपने चरितसे दुःखी होते हुए सखेद फरमाते हैं --- भमिउभूरि भवसायरि तह वि न पत्तू मइ, सुगुरुरयणु जिणवल्लह दुल्लहु सुद्धमइ। पाविय तेण न निव्बुइ इह पारत्तियइ, परिभव पत्त बहुँत्त न हुय पारत्तियइ ॥४६॥ अर्थ-भवसागरमें मैंने अनन्त भ्रमण किया तो भी परम विवेकी शुद्धमति दुर्लभ ऐसे श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज रूप सद्गुरु रत्न मुझको नहीं मिले। इसो लिये इस लोक सम्बन्धी और परलोग सम्बन्धी निवृत्ति-शान्ति मैंने नहीं पाई । जन्म-जन्मांतरोंमें बहुतसे परिभव-दुःख पाये, कहींसे परित्राण नहीं हुआ। या यों कहिये, परलोक हितकारी ज्ञानादिका लाभ न मिला ॥ ४६॥ उपसंहार करते हैं इय जुगपवरह सूरिहि सिरिजिणवल्लहह, नायसमयपरमत्थह बहुजणतुल्लहह । तसु गुणथुइ बहुमाणिण सिरिजिणदत्त गुरु, करइ सु निरुवमु पावइ पउ जिणदत्तगुरु ॥४७॥ अर्थ-इस प्रकार निर्भीक शिरोमणि सुविहित खरतर विधि मार्गके परम प्रचारक युगप्रधान ज्ञान सिद्धान्त परमार्थ, भारेकमी जीवोंके लिये दुर्लभ ऐसे श्रीमज्जिनवल्लभ सूरीश्वरजी महाराजकी गुणस्तुतिको बहुमान पूर्वक, श्री सम्पन्न जिनेश्वर भगवानके दिये हुए शासनके पालनसे गुरुता प्राप्त ऐसा जो श्रीजिनदत्तगुरु-भव्य स्तुति करता है वह श्रीजिनेश्वर भगवान द्वारा दिया हुआ अर्थात् सिद्धान्तमें दिखाये हुए गुरु निरूपम - मोक्ष पदको प्राप्त करता है । ४७ ॥ १-श्रीजिनदत्त यह स्तुति कर्ताका अपना नाम है। यहां कई अव्युपन्न, प्राज्ञशिरोमणि लोग ऐसा विचार प्रचारित कर देते हैं कि देखो ? देखो ? कर्ता कविने अपने नामके साथ 'गुरु शब्द' जोड़ दिया क्या यह अभिमान नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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