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संदेह - दोलावली मूल - गीयत्थेणमगारछकमिह देसिघं च
सम्मत्ते ।
रायगुरु देवया वित्तिच्छेयबलगणभिओगा य ॥ १४८ ॥ ता इय अगारनिवेयणाओ धम्मत्यमन्न तित्थम्मि | वयणाओ अववाएण तीए नमणाईसु न दोसो ॥१४९॥
अर्थ - गीतार्थो ने सम्यक्त्व प्रतिज्ञामें छह आगार बताये हैं । राजाअभियोग, गुरुनिग्रह, देवताअभियोग वृत्तिकान्तार, बलाभियोग और गणाभियोग |
आगारों को इसलिये बताया गया है कि धर्म के लिये अन्यतीर्थ - धर्म में वन्दना नमस्कार अदि प्रवृत्ति न करे, पर उन छह कारणों से अपवाद से प्रवृत्ति करनी हो पड़े तो व्रत भंग नहीं होता । इस शास्त्रीय वचनों से अपवाद से उस गोत्रदेवी को नमस्कारादि करने से भी दोष नहीं होता ।
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ग्रंथकार उपसंहार करते हुवे अपना परिचय देते हैं ।
कइवयसंसय पयपण्डुत्तरपयरणं
मूल - इय
समासेणं । भणियं जुगपवरागमजिणबल्लभसूरिसीसेण ॥ १५०॥
अथ - इस प्रकार कितनेक संशय प्रश्नों के उत्तर रूप इस प्रकरणको संक्षिप्त तथा युगप्रधान परमगतार्थ श्रीमज्जिनवल्लसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य परम गुरुदेव दादा श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी महाराजने फरमाया ।
अनुवादक प्रशस्ति
दादा श्रीजिनदत्तसूरिगुरुने संदेहदोलावली,
गाथा सार्धशत प्रमाणरचना भव्य प्रबोधार्थ की । हिन्दी संस्कृत में उसे परिणता संक्षेप से की यहां,
पावें शाश्वत सिद्धि पावन विधि भव्यातमा जो पढ़े || जिन हरिसागर सूरिने, दो हजार पर चार । संवत में इसको लिखा, जोधपुरे जयकार |
॥ समाप्त ॥
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