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________________ संदेह-दोलावली अर्थ--गृहस्थ स्त्री या पुरुषको कुशील त्याग का नियम इस प्रकार लेना चाहिये । मनुष्य देवता और तोयं च सम्बन्धी विषय भोग को-स्थूल अब्रह्मचर्यको मन वचन और काया इन तीन योगों से, स्वाधीन भावसे करू नहीं कराउ नहीं इन दो करणों से, स्वजन सम्बन्धियों को --उपलक्षण से गाय भैंस आदि जानवरों को खदार सम्बन्ध कराने की छूट रखकर त्याग करता हूँ। इस नियम की मयाँदा में पराधीन अवस्थासे कुशील हो जाय तो व्रत भंग नहीं माना जाता । प्रश्न-कोई भो तप किया गया हो उसका उजमणा यदि किसी कारण से न हो सका तो वह तप सफल होता है या नहीं ? मूल--काए वि साविगाए विहिओ दिक्खातवो न उज्जमिओ। भावविसुद्धिई फलं तहावि से अस्थि इहरा नो ॥१४४॥ अर्थ-किसी भी श्रावक श्राविकाने कल्याणक आदि तप किया हो और उसका उजमणा न हो सका हो तो भाव विशुद्धि से वह सफल ही होता है। कंजूस वृत्ति आदि से यदि न किया गया हो, तो सफल नहीं होगा। मूल--- अह सा सग्गहंगहिया पासे सच्छंदसिढिललिंगीणं । कुणई तवो नत्थि फलं, ता तीसे होइ भूरिभवो ॥१४५॥ ___ अर्थ-अगर श्रावक श्राविका स्वच्छन्द शिथिलाचारी भेषधारियों के पास तप ग्रहण करते हैं तो वह सफल नहीं होता एवं उनका भव भ्रमण बढ़ता है। प्रश्न- गोत्र देवताको पूजा आदि नहीं करने से गृहस्थों के लिये प्रतिकूल आचरण कर देते हैं। उसके लिये क्या करना चाहिये ? मूल-अच्चन्तखुद्दसीला, उवद्दवं कुणइ जो न पूयेइ । जरसेरिस स्थि गुत्तंमि देवया स कहं सड्ढोत्थु।।१४६॥ अर्थ-जिसके गोत्र में अत्यन्त क्रूर स्वभाव-वाली गोत्र देवी हैं उसकी पूजा नहीं करने से उपद्रव करती है, वह श्रावक-व्रतधारी कैसे हो ? मल-उस्तग्गेण न कप्पइ तीए पूयाइ तस्स सट्टस्स । ___ जइ मारइत्ता मारउ कुडुंबगं एस परमत्थो ॥१४७॥ ___ अर्थ-उत्सर्गसे उस व्रतधारी श्रावकको उस गोत्रदेवता की पूजा नहीं करनी चाहिये। यदि वह श्रावक-कुटुम्बको मारदेती है तो भले ही मार दे। श्रावकको दृढता रखनी चाहिये यह परमार्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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