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चर्चरी
लोय - पवाह-- पयट्टहि
कीरंतइ फुडदोसइ
ताई वि समइनिसिद्धइ समइ कयत्थियहि, धम्मत्थीहि विकीरहिं बहुजणपत्थियहि ॥ १३॥
अर्थ - लोक प्रवाह में प्रवृत्तिवाले कुतूहलप्रिय पूर्व महागीतार्थों की आज्ञा में शंका न रखनेवाले, कुमार्गानुगामिनी कुमति द्वारा कदर्थना पाये हुए, और धर्मको चाहनेवाले लोग भी सिद्धान्त आगमोंमें निषेध किये हुए स्फुट दोषवाले मनुष्यस्वभाव कुतूहल प्रिय होने से बहुत से आदमी जिनको करना चाहते हैं ऐसे अनुचित कर्तव्यों को कर लेते हैं ।
जुगपवरागमु मन्निउ सिरिहरिभद्दपहु,
पडिहयकुमयसमुहु
कोहल पिइहि, संसयविरहियहि ।
प्रसंग विधि प्रकाशको बताते हैं ।
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पयासियमुत्तिपहु | सिरिजिणवल्लहिण
जुग पहाणसिद्धंतिण
पयडिउ पयडपयाविण विहिपहु दुल्ल हिण ॥ १४॥
अर्थ - श्रीजिन चैत्य में शिथिलाचारियों द्वारा प्रवर्तित उन अनुचित गाने बजाने प्रेक्षक आदिका निषेध करते हुए युगप्रधान सिद्धान्त वाले प्रकट प्रतापवाले, पापियोंके लिये दुर्लभ ऐसे श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजीने- युग प्रधान बोधवाले कुमत समूहका प्रतिकार करनेवाले मुक्तिपथका प्रकाश करनेवाले भगवान् श्रीहरिभद्र सूरीश्वरजीको उपलक्षणसे समस्त प्रवचन प्रभावक आचार्य पुंगवोंको माना । एवं ऐसा करते हुए जिनने विधि मार्ग को प्रकाशित किया |
विहि चेईहरु कारिउ कहिउ तमाययणु, तमिह अणिरसाचें उ कय निव्वुइनयणु । विहि पुण तत्थ निवेइय मिवपावणपउण, जं निसुणेविणु रंजिय जिणपवयणनिउण ||१५||
अर्थ - जिनने आगम देशना द्वारा प्रतिबोधित श्रावकोंसे विधि प्रधान जिन मंदिर बनवाया । ऐसे चैत्य ही । ज्ञानादि लाभको बढ़ानेवाले - आयतन होते हैं, ऐसा जिनने करवाया । वही साधु आदिकी मालिकीके विनाका -अनिश्राकृत चैत्य इस संसार में अपुनरागमनभाव रूप निवृति-मुक्तिको करनेवाला और लानेवाला होता है । तथोक्त जिन चैत्य
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