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चर्चरी में मोक्ष पहुंचाने में तत्पर जिनाज्ञा पालन रूप विधि निश्चित रूपसे भव्यात्माओंको जिनने सुनाया, जिसको सुनकर श्री जिनप्रवचनसे चतुर लोक प्रसन्न हो गये । विधिको ही बताते हैं।
जहि उम्सतु जणकमुकु वि किर लोयणिहिं, कीरंतउ नवि दीसइ सुविहिपलोयणिहिं निसि न हाणु न पइठ न साहु साहुणिहि,
निसि जुवइहिं न पवेसु न नहुँ विलासिणिहिं ॥१६॥ अर्थ- जहाँ-विधि चैत्योंमें उत्सूत्र भाषण करनेवालोंका नन्दि-व्याख्यान आदि कोई भी आचारक्रम कराता हुआ सुविधि देखनेवाले-दीर्घदृष्टि लोगोंको नहीं दिखाई देता है। रात्रीमें स्नात्र भी नहीं होता है, न प्रतिष्ठा ही होती है । जहाँ रात्रीमें साधु-साध्वी या-स्त्रियोंका प्रवेश भी नहीं होता, न विलासिनी वेश्याओंका नृत्य ही ।
जाइ नाइ नं कयग्गहु मन्नइ जिणवयणु, कुणइ न निंदियकमु न पीडइ धम्मियणु । विहिजिणहरि अहिगारिइ सो किर सलहियइ,
सुडइ धम्मु सुनिम्मलि जसु निवसइ हियइ ॥१७॥ अर्थ-जहाँ जाती-ज्ञातीका स्नात्र-पूजा आदिमें इसी जातीवाले या इसी ज्ञानीवाले करा सकते हैं-ऐसा कदाग्रह नहीं होता। इस प्रकारके पुनीत विधि चैत्यके लिये वही अधिकारी प्रशंसनीय होते हैं जो जिन वचनोंको मानते हैं । जो निन्दित आचरण नहीं करते । जो धार्मिक जनोंको पीड़ा नहीं पहुंचाते । जिनके हृदयमें शुद्ध सुनिर्मल धर्म निवास करता है
जित्थुति-चउर सुसावय ट्ठिउदव्ववउ, निसिहिं न नंदि करावि कुवि किर लेइ वउ । बलि दिणयरि अत्यमियइ जहि न हु जिण पुरउ
दीसइ धरिउ न सुत्तइ जाहि जणि तूररउ ॥१८॥ अर्थ-जहाँ विधिचैत्यमें तीन-चार सुयोग्य श्रावकोंकी देख रेखमें देव द्रव्य खर्च किया जाता है। कोई भी रात्रोमें नन्दी स्थापन कराकर व्रत नहीं लेता है। सूर्यके अस्त हुए
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