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उपदेश रसायन
२७ अर्थ-वे प्रवाह पतित कुश्रावक विधि चैत्यमें अविधि करानेके लिये बहुतसे उपाय काममें लाते हैं । परन्तु उनकी चलती नहीं, यदि कदाचित् विधि जिन मन्दिरमें अविधिप्रमादाचरण हो जाय तब तो, मानो 'सत्तूमें घी पड़ा हो' वैसे वे मानने लगते हैं ॥२३॥
जइ किर नरवइ कि वि दूसमवस ताहि वि अप्पहि विहिचेइय दस। तह वि न धम्मिय विहि विणु झगड़हि
जइ ते सव्वि वि उद्यहि लगुडिहि ॥२४॥ अर्थ-यदि दुःषम कालके प्रभावसे कोई राजा उन अविधिकारियोंको दो चार दस विधिचैत्य पूजा करनेके लिये सौंप दे, तो भी धार्मिक जन विधिके बिना उन अविधिकारियोंसे अगर वे सबके सब लट्ठ लेकर उठे तो भी झंगड़ा नहीं करते हैं ॥२४॥
निच्चु वि सुगुरू-देवपयभत्तह पणपरमिटि सरंतह संतह । सासण सुर पसन्न ते भव्वइं
धम्मिय कजि पसाहहि सव्वइं ॥२५॥ अर्थ--इस प्रकार होने पर भी, हमेशा देव गुरुकी भक्ति करनेवाले, श्री पंचपरमेष्ठी भगवानका ध्यान करनेवाले, उन विधि करनेवाले सज्जन पुरुषोंके सारे मन चाहे धार्मिक कार्य प्रसन्न हुए शासन देव सिद्ध कर देते हैं ।।२।।
धम्मिउ धम्मुकज्जु साहंतउ परु मारइ कीवइ जुज्झंतउ। तु वि तसु धम्मु अत्थि न हु नासइ
परमपइ निवसइ सो सासइ ॥२६॥ अर्थ-विधि मार्गकी साधना करते हुए धाम्मिक जनको यदि कोई अविधि करनेवाला दूसरा व्यक्ति मार भी दे तो उसकी -विधि साधकका धर्म रहता ही है, नष्ट नहीं होता मर करके भी वह विधि साधनाके प्रभावसे शाश्वत ऐसे परम पदमें वास करता है ॥२६॥
सावय विहिधम्मह अहिगारिय जिज्ज न हुति दीहसंसारिय
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