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________________ पभवसूरि--सिज्जभउ सुगुरु, जसोभदु सूरीसरु पवरु । सिरिसंभूयविजउ मुणितिलउ, पणमहु भद्दबाहु गुणनिलउ ॥ ४ ॥ सुगुरु श्रीप्रभवसूरि, एवं सूरिप्रवर श्रीयशोभद्र सूरीश्वरजी और मुनियों में तिलक समान श्रीशंभूतविजयाचार्य तथैव गुणों के स्थान भूत श्रीभद्रबाहुस्वामी को प्रणाम करो ॥४॥ भद्दबाहसूरीसरपासि, चउदसपुत्रपढिय गुणरासि । भंजिउ जेण मयणभडवाउ, जयउ सु युलिभद्द मुणिराउ ॥ ५ ॥ जिन्होंने श्रीभद्रबाहुसूरीश्वरजीके पास चौदह पूर्वकी विद्या पढ़ीथि और मदन रूप सुभट के वादका जिन्होंने भंग कर दिया था, वे गुणों के खजाने श्रीस्थूलभद्र मुनिराज जयवान् हो ॥५॥ दूसमकालि तुलिउ जिणकप्पु, अजमहागिरि गुरुमाहप्पु ! अज्जसुहत्थि थुणहु धरि भाउ, जिणि पडिबोहिउ संपइराउ ॥ ६ ॥ __जिन्होंने इस दुष्षम (पंचम ) कालमें महाप्रभाव शाली ऐसे जिन कल्पकी तूलना करी थी, उन आर्यमहागिरि आचार्य की और जिन्होंने संप्रति राजाको प्रतिबोध देके श्रावक बनाया था, उन आर्यसुहस्तिसूरि महाराज की स्तवना हृदय में भाव धर के करो ॥६॥ संतिसूरि कयसंघह संति, चउदिसि पसरिय जसु वरकित्ति । तास पहि हरिभद् मुणिंदु, मोहतिमिरभरहरणदिणिंदु ॥ ७॥ उन के बाद संघ में शांति के करनेवाले श्रीशांतिसूरि हुए, जिनकी प्रधान कीर्ति चारों ही दिशाओं में प्रसृत थी, उन के पाटपर मोहरूप अंधकार के समूह को हरण करने के लिए सूर्य समान श्रीहरिभद्र मुनींद्र हुए ।।७।। संडिलसूरि तह अजसमुदु, अज्जमंगु जणकइरवचंदु । अजधम्मु धर पयडिय धम्मु, भदगुत्तु दंसिय सिवसम्मु ॥ ८ ॥ तत्पश्चात् भव्य जीव रूपी कमलों को विकसित करने के लिये चन्द्र तुल्य आर्यसंडिलसरि तथा आर्यसमुद्रलूरि और आर्य मंगुसूरि हुए, बाद में पृथ्वीतल उपर प्रगटित किया है धर्म जिन्होंने ऐसे आर्य धर्मसूरि और दिखाया है शिवसुखका मार्ग जिन्होंने ऐसे भद्रगुप्तसूरि हुए ॥८॥ वयरसामि पभाविय तित्थु, अजरक्खिउ बोहियजणसत्थु । अजनंदिगुरु वंदहु नरहु, अजनागहत्थीसरु सरहु ॥ ९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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