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चर्चरी बताता है अर्थात् अनायतन रूप तीसरे भेदको जो नहीं बनाता वह साधु भी अबगणना योग्य होता है । उस द्विविध चौत्य बताने वालेने इस संसारमें सारे ही भोले लोगोंको ठगा है । ३६ ।
इय निप्पुन्नह दुल्लह सिरिजिणवल्लहिण, तिविहु निवेइउ इउ सिवसिरिवल्लहिण । उस्सुत्तइ वारंतिण सुत्तु कहतइण, इह नवं व जिणसासण दंसिउ सुम्मइण ॥४०॥
अर्थ--इस प्रकार पुण्य हीनोंको दुर्लभ मोक्ष लक्ष्मीके बल्लभ श्रीजिनवल्लभ सूरीश्वरजीने तीन प्रकारके चैत्य बताये हैं । उत्सूत्र आचारणाओंको रोकते हुए और सूत्रोक्त अनुष्ठानोंको कहते हुए, उन सन्मतिने प्राचीन ऐसे भी श्री जिन शासनको नयेके समान दिखा दिया है । ॥४०॥
इक्कवयणु जिणवल्लहु पहु क्यणइ घणई, किं व जंपिवि जणु सकइ सक्कु वि जइ मुणइ । तसु पयभत्तइ सत्तह सत्तह भवभयह, होइ अन्तु सुनिरुत्तउ तव्वयणुज्जयह ॥४१॥
अर्थ-हे सखे ? तुम जानो कि श्रीजिनवल्लभ प्रभु एक वचनी होते हुए भी श्री वीरपट कल्याण-विधि-विषय-पारतंत्र्य-चैत्य साधुगत कृत्याकृत्य-छह हाथ प्रमाण साधु प्रावरण कल्प-कषायादि द्रव्याहत जलग्रहणादि बहुतसे वचनोंको कैसे बोल सकते हैं। एक वचनकी शक्तिवाला बहुत वचनोंको कैसे बोल सकता है । यह यहां विरोध सा दिखाते हुए, विरोधा भासालंकारको प्रकट किया है। विरोध परिहार यह है कि --श्री गुरुमहाराज का वचन सिद्धान्तसे अविरुद्ध और गीतार्थों के आचरणानुसारी होनेसे विपरीतताको नहीं रखता । वे वचन चैत्य वासियों द्वारा लुप्त प्रायः होनेसे शक इन्द्र भी मुश्किलसे यदि जाने तो जाने। __ अथवा यो अर्थ करना चाहिये कि श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराजके आगमानुसारी अनेक वचन जो कि पहिले कुछ बताये गये हैं - उनको हमारे जैसा एक वदन --- मुख वाला व्यक्ति कैसे बोल सकता है। ऐसे उन गुरुदेवके पद सेवक-भव्यात्मा-जो कि उन गुरुदेवके वचन आज्ञाको मानने में तत्पर हैं-उनके सातो भव-भयों का सुनिश्चित रूपसे अन्त हो जाता है ॥ ४१॥
इक्ककालु जसु विज्ज असेस वि वयणि ठिय, मिच्छदिहि वि वंदहिं किंकरभावठिय ।
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