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________________ संदेह-दोलावली न जानकर भी देता है उसकी विराधकता तो ठीक, पर त्रिकरण शुद्धि से ग्राहक की आलोचना अप्रमाणिक क्यों होती है ? - कहते हैं । मूल----तत्थ त्थि गाहगस्स वि दोसो सो दोयगस्स अहिययगे। तित्थगराणाभंगो, आणा वेसा जओ भणियं ॥१२८॥ ___ अर्थ-अगीतार्थ से आलोचना लेने वाले को भी दोष ही होता है। वह दोष देने वाले को अधिकतर होता है। क्यों कि ऐसा करनेसे तीर्थंकर देवों को आज्ञा का भंग होता है। ऐसी आज्ञा है, इसीलिये यह बात कही है। मूल----आलोयण चउभेया, अरिहो अरिहम्मि पढमओ भंगो। अरिहंमि अणरिहो पुण, विओ अरिहो वि जमणरिहे । एसो तइओ जत्थेव अणरिहा दोवि सो च उत्थो उ ॥१२९॥ अर्थ-अधिकारी भेद से आलोचनाके चार भेद हैं। देनेवाला योग्य हो, और लेनेवाला भी योग्य हो, यह पहिला भेद हुआ। देनेबाला योग्य हो पर लेने वाला अयोग्य हो यह दूसरा भेद है। देनेवाला अयोग्य हो, और लेनेवाला योग्य हो, यह तीसरा भेद है । जहाँ देनेवाला भी अयोग्य हो, और लेनेवाला भी अयोग्य हो, यह चौथा भेद हुआ। भूल---पढमा उस्सग्गेण, सुद्धा अववायआ वीओ। तइओ पुण अच्चन्ताववायओ कम्मि हाइ कस्स वि य । आणा वझोभंगो एस चउत्थो तओ दोसो ॥१३०-१३१॥ अर्थ- उपर बताये चार भेदों में पहिला भेद उत्सर्ग से शुद्ध माना गया है । अपवाद से दूसरा भेद शुद्ध है। तीसरा अत्यन्त अपवाद की हालत में कभी किसी खास व्यक्ति विशेष के लिये ठीक माना जा सकता है। चौथा भेद जो है वह तीर्थ कर देवों की आज्ञा से वाह्य है। इसीलिये वह दोष पूर्ण है। मूल----दुण्हवि य अयाणते पच्चक्खाणं पि जं मुसावाओ । आलोयणा वि एवं गहिया हुज्जा मुसावाओ ॥१३२॥ अर्थ-प्रत्याख्यान करानेवाला और प्रत्याख्यान करनेवाला दोनों जानकारी से हीन हों तो वह प्रत्याख्यान भी मृषावाद-झूठमात्र हो जाता है, और इसी प्रकार अजानते अनधिकारी रूप से आलोचना करने और कराने वाले को भी मृषावाद मठका दोष लगता है। प्रश्न-त्यागी हुई एक दो तीन आदि विगयोंको और तत्संबंधी उत्कट द्रव्यों को खाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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