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________________ उपदेश रसायन गज्जइ मुडह लाअह अग्गइ लक्खण तक्क वियारण लग्गइ । भणइ जिणागमु सहु वक्खाणउं तं पि वियारमि जं लक्काणउं ॥१७॥ अर्थ-तथोक्ति दीक्षित साध्वाभास भोले लोगोंके सामने गर्जता है। लक्षणव्याकरण, और तर्क नहीं जानता हुआ भी, जानता हूं इस ढोंगसे विचारने लगता है। सभी जैन आगमोंका मैं व्याख्यान करता हूं जो लौकिक श्रुति-स्मृति, पुराणादि शास्त्र हैं उनको भी मै विचारता हूं-जानता हूं। जो कि यथार्थमें जानता कुछ नहीं ॥१७॥ अडमास चउमासह पारइ मलु अभितरु बाहिरि धारइ । कहइ उस्सुत्त-उम्मग्गपयाई पडिक्कमणय-वंदणयगयाइं ॥१८॥ अर्थ-जो आधा मास चार मास आदि तप पारता है। अन्दर बाहिर मल-मलिनता भी धारण करता है, श्रावकोंको प्रतिक्रमण नहीं करना चाहिये, साधु आदिको भी प्रतिक्रमणमें क्षेत्र देवता आदिके कायोत्सर्ग नहीं करना चाहिये, अन्तमें तीन स्तुति 'नमोस्तु वर्द्धमानाय'-आदिके अनन्तर नमुत्थुणं नहीं बोलना चाहिये साध्वियां खड़ी २ ही द्वादशावत वंदन करें, इत्यादि प्रतिक्रमण सम्बन्धी और वंदन सम्बन्धी उत्सूत्र-उन्मार्ग रूप अविधि पदोंको कहता है ॥१८॥ पर न मुणइ तयत्थु जो अच्छइ लोयपवाहि पडिउ सु वि गच्छइ । जइ गीयत्थु को वि तं वारइ ता तं उढिवि लउडइ मारइ ॥१९॥ अर्थ- परन्तु वह लोक प्रतिक्रमणादि विधिके अर्थको नहिं जानते हैं, यहांपर दशिका पर्यन्त वस्त्रको पकड़ कर उत्कटिकासन रहा हुआ प्रति लेखणा करे यह अर्थ है, पर सच्चे परमार्थको नहिं जानके साध्वियों से खड़े-खड़े बंदन देवाते हैं, सत्य पर्मार्थ होने पर भी मल धारक लोक प्रवाहमें सामिल होकर चलते हैं, यदि कोई भी गीतार्थ पुरुष उसको ऐसा करनेसे रोकता है तो वह लट्ठसे मारनेको उठता ।।१६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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