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( झ ) जि-णपबोहगुरुरायचरणपंकयवरअलिबल, न-वविजियदयकरणु मयणगयसिंहमहाबलु, चं-दुज्जलु गुणविमलु कत्ति दसदिसिहि पसिद्धउ, द--वणु पणिदिय चउकसाय गुणगणिहि समिद्धउ । सू-रिंदु पणयप्पणजणसहिउ वंछिउ सुहियण निरु रनहु, रि-उमंतरंगमय अवहरणु पयपढमक्खरिगुरु सरहु ॥ १॥ इति
जिन प्रबोध सूरि गुरुराज के चरण कमल में उत्तम भ्रमर समान बलबाले, नवविध जीवदयाके करने वाले, मदन रूप गजका भंजन करनेके लिये सिंह सदृश महा बलवान्, चन्द्र समान उज्ज्वल गुणोंसे विमल, कीर्तिसे दशों दिशाओं में प्रसिद्ध, पांच इन्द्रियोंका व चार कषायों का दमन करने वाले, गुणगणसे समृद्ध, सूर्य-चन्द्रसम प्रताप व सौम्यवान्, प्रणतात्म ( नम्रतासे शिष्यादि) जनोंसे सहित, सुखि (मित्र) जनोंसे वांछित, मदमानादि अन्तरंग शत्रओंको हटाने वाले, और इस षट्पदी वृत्तके प्रत्येक चरणके प्रथमाक्षर से जिनका नाम प्रगट होता है, उन गुरुदेव जिनचन्द्र सूरिजी को हे मनुष्यों ! निश्चित भावसे स्मरण करो ॥१॥ इति
॥ इति जुगप्रधानचतुष्पदिका समाप्ता ।
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