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________________ ( ज ) इस प्रकार इतनी शुभगुरु आम्माय ( परम्परा ) से प्राप्त युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि जी को जो मानता है वह जीव शाश्वती ( सदाकाल रहनेबाली ) शिवनारी ( मोक्षस्त्री ) से रमण करता है और फिर से यहां संसार में नहीं पड़ता || २४ ॥ जक्खिणि जक्ख बिउण चउवीस, विज्जादेवि चहूणी वीस । इय चउठि मिलि देहि असीस, जिणचंदसूरि जिउ कोडिवरीस ॥ २ ॥ यक्षिणी व यक्ष दुगुने चौवीस (४८), याने २४ तीथकर देवोंका अधिष्ठाता देवियां, २४ और देव २४ मिलकर ४८, एवं दो कम बीस याने १६ विद्यादेवियां, से सब जुमले चौंसठ ही मिलकर आशीर्वाद देवें कि - श्रीजिनचन्द्र सूरिजी महाराज क्रोट वर्ष जीवते रहो । ।। २५ ।। संघसहिउ फेरू इम भणइ, इत्तिय जुगपहाण जो थुणइ । पढइ गुणइ नियमणि सुमरेवइ, सो सिवपुरि वररज्जु करेइ ॥ २६ ॥ श्री संघ सहित फेरू ( ग्रंथकर्त्ता ) एस प्रकार कहता है कि- इतने युग प्रधानों को जो स्तवता है और उनके गुगनुवोद रूप इस चतुष्पदिका को जो पढ़ता है गुणता है व निजमन में स्मरण करता है वह शिवपुर (मोक्षनगर ) में उत्तम राज्य करता है ।। २६ । तेरह---सइतालइ (१३४७) महमासि, रायसिहरवाणारिय पासि । चंदतणुब्भवि इय चउपइय, कन्नाणइ गुरुभत्तिहि कहिय ॥ २७ ॥ विक्रम संवत १३४७ के माघ मास में 'कन्नाणय' नगर में वाचना चार्य श्रीराजशेखर के पास रहते हुए चन्द्रनामक शेठ के पुत्र “फेरू" ने यह चौपाइ कही ।। २७ ।। सुरगिरि पंच दीव सव्वेवि, चंद सूर गह रिरक जि केवि रयणायर घर अविचल जाभ, संघु चउब्बिहु नंदउ ताम ॥ २८ ॥ मेरु पर्वत, पंचद्वीप, चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्रादि तथा समुद्र व पृथ्वी आदि जो कुछ भी जगत्के पदार्थ हैं वे सभी जहांतक अविचल रहे वहांतक चारों ही प्रकारका संघ समृद्धमान् रहो ॥ २८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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