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चचरी
सांक २३
अविधि आचरण करनेके साथ २ निरर्थक निंदा प्रचार में वह पतित जन लग जाता है ॥ ११ ॥ बहुलता एवं शक्ति विकलता के कारण से ऐसे अनधिकारीके लिये फलाभाव श्लेषालंकार से बताते हैं :
क
कायरु ?
धम्मु सु धरणु कु सक्कइ तहिं गुणु कवणु चडावर सायरू ? तसु सुहत्थु निव्त्राणु किं संघइ ? मुक्ख किं करइ राह किं सुविधइ ॥ १२ ॥
अर्थ - कायर पुरुष धर्मको क्या धारण कर सकता है ? अगर धारण भी कर ले तो उत्तरोत्तर वृद्धिलक्षण गुणको सादर कौन आरोपित कर सकता है ? उसके सुखके लिये निर्वाण हेतु अनुष्ठानको भी कौन कृपालु जोड़ सकता है ? इस हालत में वह मोक्ष भी क्या प्राप्त कर सकता है और राधा - आत्माकी दिव्य धाराको भी वह क्या बींध सकता है ? श्लेषालंकार में पक्ष में 'धम्मु' का अर्थ मनुष्य, 'गुणु' का अर्थ प्रत्यवा दोरी, 'नि-व्वाणु' का अर्थ - निश्चित बाण, 'मुक्ख' का अर्थ वाण छोड़ना, 'राह' का अर्थ उल्टे सीधे आठ चक्रोंके बीचमें रहो हुई, काष्ठ- पुतलीकी आंखकी कीकी करना चाहिये । दोनों का निष्कर्ष यह होता है कि न कायर व्यक्ति धर्मको धारण करके यावत मोक्षास्थित आत्माकी दिव्य धाराको ही वींध सकता है, और न कायर मनुष्य धनुष्यको धारण करके राधावेध कर सकता है ||१२||
कायर के समान ही अस्थिरवृत्ति वाला भी धर्म में अयोग्य होता है यह बताते हैं:
तसु किव होइ अथिरु जु जिव
सुनिव्वुइ- संगम ? किक्काणु तुरंगमु ।
मग्गि
विलग्गइ
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कुप्प हि पडइ न
वायह भरिउ जहिच्छइ
अर्थ - जो किक्काण देशीय घोड़के जैसा मन वचन और कायासे अत्यधिक चपलअस्थिर है, उस व्यक्तिके सुनिवृत्ति - - परम समाधिका संगम कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं । वह लोकप्रवाह रूप कुमार्ग में पड़ता है। ज्ञानादि सुमार्ग में तो वह लगता ही नहीं । अविद्या जनित अहंकारवाद रूप कुपित वायुसे भरा हुआ जैसी मनमें आती है, वैसी यथेच्छ कुचेष्टायें करता है । बेलगाम किक्काण देशीय चंचल घोड़ा भी वायुसे भर जाता है, और कूदता हुआ, मार्गको छोड़ कुमार्ग में पड़ता है । सुखसे वंचित हो जाता है ।
वग्गइ ॥ १३ ॥
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