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चैत्यवन्दन-कुलकम्
मूल — संगरहलि- मुग्ग-मुहट्ठे-मास - कंडुपमुक्खचियलाई ।
सह गोरसेण न जिमेए य, राइत्तियं न करे ॥ १८ ॥
अर्थ – सांगर फलियें' सांगरियें, मूंग, मौठ, उड़द, कंडुक धान्य विशेष आदि दो दल वाले अनाज - ( कठोल धान्य वाल चंवले, चणे, तूअर अरहर, कुलथी, मसूर, मेथी आदि जिनकी दो फाड़ें होती हैं ऐसे द्विदल धान्य ) विना गरम किये गोरस में दही छाछआदि में नहीं खाने चाहिये । न राइता ही बनाना चाहिये ||१८|| द्विदल के लक्षण को बताते हैं
मूल - जम्मिय पिलिज्जते, मणयं पि न नेहनिग्गमो हुज्जा ।
दुन्नियदलाइ दीसंति, मित्थिगाईण जह लोए ||१९||
अर्थ - घट्टी में पीसने पर जिसमें से तेल का निर्गम नहीं होता, तेल नहीं निकलता है । एवं जिसमें दो दल प्रत्यक्ष दीखते हैं । जैसे कि लोक में मेथी आदि धन्य । में देखा जाता है । उनको द्विदल कहते हैं ||१६||
मूल — निसि न्हाणं वज्जेमि, अच्छानिएणंचुणा दहाईसु ।
अंदोलणं च वज्जे, जीयाण जुज्झावणाई य ॥२०॥
अर्थ - सम्यक्त्व को ग्रहण करने वाला श्रावक प्रतिज्ञा करके ताकि मैं रात्री में स्नान नहीं करूंग | अनछाने पानी से स्नान नहीं करूंगा | हौद, कुँए तलाव वावड़ियो में भी स्नान नहीं करूंगा । अर्थात् दिन में जीवाकुल भूमि को छोड़ कर कपड़े से छने हुए परिमित पानी से श्रावक को स्नान करना चाहिये। हिंडोले की क्रीड़ा को भी नहीं करनी चाहिये स्व-परोपघातक होने से । मूर्गे सांढ आदि जीवो को परस्पर में लडाना नहीं चाहिये | ऐसा करने से उन अवोध जीवों का नाश होता है और उनके संरक्षकों में वैर वृद्धि होती है । अतः ऐसे विघातक काम श्रावक को छोड़ देने देने चाहिये ॥ २० ॥ मूलन वहेमि पाणिणो न य भण्णमि भासं मुसं न य मुसामि । करे ॥२१॥
परदव्वं परजुवई नामियमिह
परिग्गहॅ पि
अनंताई ।
आलू तह पिंडालू त्तीसं जाणिऊण एयाई बुद्धिमणा वज्जेव्वा
पयत्तेण ॥५॥
१ कई लोग मूंग मौठ आदि का तो कच्चे गोरस के साथ उपभोग नहीं करते परंतु सागरियाँ, बांडलिये को फलियाँ आदि के लिये कच्चे दही छाछ का परहेज नहीं करते हैं । वे लोग मूंग-मौठ आदि को तो धान्यद्विदल मानते हैं, और सांगरियाँ वॉड़लिये की फलियाँ आदि को काष्ठ द्विदल मानते हैं । किन्तु सिद्धांत में द्विदल के संबन्ध में ऐसे भेद नहीं बताये हैं । अतः मट्ठे आदि में किसी भी द्विदल को नहीं खाना चाहिये ।
विवेकियों को कच्चे दही छा
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