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________________ ३६ उपदेश रसायन अर्थ-भगवान् ने फरमाया है कि अंतमें श्रीदुप्पसहसूरि जी तक चरित्र रहेगा। यह बात विधिके विना कैसे निश्चत हो सकती है ? अंतमें एक दुःप्रसभ नामके आचार्य होंगे। सत्य श्री नामकी एक आर्या होगी। देशव्रत को धारण करने वाला नागिल नामका एक श्रावक होगा, और फल्गुश्री नामकी एक देशव्रतधारिणी श्राविका होगी ॥५४॥ तह वीरह तु वि तित्थु पयट्टइ तं दस-बीसह अज्जु कि तुट्टइ !। नाण-चरण-दसणगुणसंठिउ संघु सु वच्चइ जिणिहि जहठिउ ॥५५॥ अर्थ- फिर श्री वीर भगवानका शासन इकइस हजार वर्ष तक रहेगा। वह क्या दशवीस वषमें या आज ही टूटता है ? ना। वह तो अविच्छिन्न धारासे चलता रहेगा। हो सम्यगज्ञान-चरित्र और दर्शन गुणमें संस्थित चतुर्विध श्री संध को ही तीर्थकर देवो यथार्थ रूपसे संघ कहा है । चाहे वह संख्यामें कितना ही हो ।। ५५ ॥ दव्व-खित्त-काल-ठिइ वट्टइ गुणि-मच्छरु करंतु न निहट्ट इ । गुणविहण संघाउ कहिज्जइ लोअपवाहनईए जो निज्जइ ॥५६॥ अर्थ- श्रीभगवानका फरमाया हुआ बिधिसंघ द्रब्य क्षेत्र काल स्थितिके अनुसार वर्त्तता है। गुणवान् पुरुषोंके साथ निश्चत रूप मात्सर्य भाव नहीं रखता। कदाचित् कुकर्मके उदयसे मत्सरता आभी जाय तो उसमें निश्चत नहीं होता। उस को संघ कहते हैं । परन्तु जो लोक प्रवाह रूप नहींमें वहता है एवं उचित गुणोंसे हीन है वह 'संघात' कहा जा सकता है। जैन शासनमें संघकी भारी वर्णना है ।। ५६ ।। जुत्ताजुत्तु वियारु न रुच्चइ जसु जं भावइ तं तिण वच्चइ । अविवे इहिं सु वि संघ भणिज्जइ परं गीयस्थिहिं किव मन्निज्जइ ॥५७॥ अर्थ-जिसको योग्यायोग्य विचारका भी ख्याल नहीं है । जिसको जो मनमें भाता है वही वह बोल देता है, अविवेकी आदमी हो ऐसे टोले को संघ कहते हैं, परन्तु गीतार्य लोग ऐसे संघको कैसे मानें ॥ १७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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