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उपदेश रसायन
अम्हि केम इस पुट्टिहि लग्गड़ ! अन्निहि जिव किव नियगुरु मिल्लाह || ५१||
अथे ये गुरु कितनेक लोकों द्वारा प्रशंसित हैं, परन्तु हमारे संघने इनको नहीं माना, हम केसे इनके पीछे लगे ? दूसरोंके जैसे केसे हम अपने- गुरुको - जैसे तैसे गुरु को भी कैसे छोड़ दें ? ॥ ५१||
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पारतंत-विहिविसइ - विमुक्कउ
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जणु इउ बुल्लइ मग्गह चुक्कउ | तिणि जणु विहि धम्मिहि सह झगड़ह इह परलोइ वि अप्पा रगड || ५२ ||
अर्थ - सद्गुरुकी परतंत्रता आगमोक्त विधि साधु श्रावकों का विषय इनसे अलग लोकप्रवाह पतित जन मार्ग भ्रष्ट होता हुआ इस प्रकारसे उपर कही बातबोलता है एवं इसी लिये विधिधर्मकारी लोगोंके साथ झगड़ता है और इस लोकमें एवं परलोक में अत्मा को भीर खडवाता रहता है ॥५२॥
तु वि अविलक्खु विवाउ करंतर किवइ न थक्कइ विहि असहंत । जो जिणभासिउ विह सु कि तुट्टइ ?
सो झगडंतु लोउ परिफिट्टइ ॥ ५३ ॥
अर्थ - यद्यपि आत्मा की ओर ध्यान नहीं देता है, तो भी अपने निश्चित लक्ष्यसे हीन होता हुआ अविवेकी विवाद करते हुएं कैसे भी नहीं थकता और विधि को सहन नहीं करता है। तो भी क्या ? वह श्री जिनेश्वरदेव द्वारा फरमाई हुई विधि कुट थोड़े हो सकती है ? हाँ क्लेशको करता हुआ वह प्रवाह पतित जनतो अवश्य फीका पड़ता है । धर्म लाभसे रहित होता है ॥५३॥
३५
जं बुत्तउ
दुप्पसहंतु चरणु तं विहि विणु किव होइ निरुत्तउ ! | इक्क सूरि इक्का वि स अज्जी इक्कु देस जि इक्क वि देसजी ॥५४॥
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